बौद्ध-धर्म और इस्लाम के बीच के धर्म-युद्ध

प्रायः, जब लोग जिहाद या धर्म-युद्ध की मुस्लिम धारणा के विषय में सोचते हैं, तो वे इसे इसके नकारात्मक लक्ष्यार्थ के साथ जोड़ते हैं जिसमें ईश्वर के नाम पर दूसरों का बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करने के लिए एक विनाशकारी प्रतिशोधमय दम्भपूर्ण अभियान चलाया जाता है। वे मानते हैं कि ईसाई धर्म में धर्मयुद्ध का समरूप है, परन्तु वे बौद्ध-धर्म में ऐसा कुछ नहीं पाते। उनका कहना है कि बौद्ध-धर्म शान्ति का धर्म है और इसमें धर्मयुद्ध जैसा तकनीकी शब्द नहीं है। परन्तु बौद्ध ग्रंथों, विशेषतः कालचक्र तंत्र साहित्य, के सूक्ष्म अध्ययन से ऐसे बाह्य एवं आतंरिक स्तरों के युद्ध उद्घाटित होते हैं जिन्हें आसानी से "धर्म-युद्ध" कहा जा सकता है। इस्लाम के निष्पक्ष अवलोकन से भी यही उद्घाटित होता है। दोनों धर्मों में, नेतागण राजनैतिक, आर्थिक, अथवा व्यक्तिगत लाभ के लिए धर्म-युद्ध के ऊपरी आयामों का लाभ उठाते हैं, और उसका प्रयोग करके लोगों को भिड़ाते हैं। इस्लाम में ऐसे कई ऐतिहासिक उदाहरण मिल जाऍंगे, परन्तु हमें बौद्ध-धर्म को भी सम्मोहित होकर नहीं देखना चाहिए और ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि वह इस दृश्य-प्रपंच से अनछुआ है। जो भी हो, दोनों धर्मों में, अपनी अज्ञानता और विनाशकारी आदतों के विरुद्ध अपने आतंरिक संघर्ष पर ही मुख्य बल दिया गया है।

बौद्ध-धर्म में सैन्य बिम्ब-विधान

शाक्यमुनि का जन्म भारतीय क्षत्रिय जाति में हुआ था और वे प्रायः आध्यात्मिक यात्रा के विवरण में सैन्य बिम्ब-विधान का प्रयोग करते थे। वे विजेता थे, जिन्होंने अनभिज्ञता, विकृत दृष्टिकोण, अशांतकारी मनोभावों, और बाध्यकारी कार्मिक व्यवहार जैसी आसुरी शक्तियों (मार ) को परास्त कर दिया था। ईसा की 8 वीं शताब्दी के भारतीय बौद्ध गुरु शान्तिदेव ने बोधिसत्त्वचर्यावतार  में बार-बार युद्ध के रूपक का प्रयोग किया है: जिन्हें परास्त करना है वे असली शत्रु हैं अशांतकारी मनोभाव और मनोदृष्टियाँ जो चित्त में छिपे रहते हैं। तिब्बती लोग संस्कृत शब्द अर्हत  को अनूदित करते हैं, विमुक्त सत्व, शत्रु-विध्वंसक, वह जिसने भीतरी शत्रुओं का नाश कर दिया है। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि बौद्ध-धर्म में "धर्म-युद्ध" का आह्वान एक विशुद्ध आतंरिक आध्यात्मिक मुद्दा है। परन्तु, कालचक्र तंत्र, एक अतिरिक्त बाह्य आयाम प्रकट करता है।

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