बौद्ध-धर्म और इस्लाम के बीच के धर्म-युद्ध

प्रायः, जब लोग जिहाद या धर्म-युद्ध की मुस्लिम धारणा के विषय में सोचते हैं, तो वे इसे इसके नकारात्मक लक्ष्यार्थ के साथ जोड़ते हैं जिसमें ईश्वर के नाम पर दूसरों का बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करने के लिए एक विनाशकारी प्रतिशोधमय दम्भपूर्ण अभियान चलाया जाता है। वे मानते हैं कि ईसाई धर्म में धर्मयुद्ध का समरूप है, परन्तु वे बौद्ध-धर्म में ऐसा कुछ नहीं पाते। उनका कहना है कि बौद्ध-धर्म शान्ति का धर्म है और इसमें धर्मयुद्ध जैसा तकनीकी शब्द नहीं है। परन्तु बौद्ध ग्रंथों, विशेषतः कालचक्र तंत्र साहित्य, के सूक्ष्म अध्ययन से ऐसे बाह्य एवं आतंरिक स्तरों के युद्ध उद्घाटित होते हैं जिन्हें आसानी से "धर्म-युद्ध" कहा जा सकता है। इस्लाम के निष्पक्ष अवलोकन से भी यही उद्घाटित होता है। दोनों धर्मों में, नेतागण राजनैतिक, आर्थिक, अथवा व्यक्तिगत लाभ के लिए धर्म-युद्ध के ऊपरी आयामों का लाभ उठाते हैं, और उसका प्रयोग करके लोगों को भिड़ाते हैं। इस्लाम में ऐसे कई ऐतिहासिक उदाहरण मिल जाऍंगे, परन्तु हमें बौद्ध-धर्म को भी सम्मोहित होकर नहीं देखना चाहिए और ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि वह इस दृश्य-प्रपंच से अनछुआ है। जो भी हो, दोनों धर्मों में, अपनी अज्ञानता और विनाशकारी आदतों के विरुद्ध अपने आतंरिक संघर्ष पर ही मुख्य बल दिया गया है।

बौद्ध-धर्म में सैन्य बिम्ब-विधान

शाक्यमुनि का जन्म भारतीय क्षत्रिय जाति में हुआ था और वे प्रायः आध्यात्मिक यात्रा के विवरण में सैन्य बिम्ब-विधान का प्रयोग करते थे। वे विजेता थे, जिन्होंने अनभिज्ञता, विकृत दृष्टिकोण, अशांतकारी मनोभावों, और बाध्यकारी कार्मिक व्यवहार जैसी आसुरी शक्तियों (मार ) को परास्त कर दिया था। ईसा की 8 वीं शताब्दी के भारतीय बौद्ध गुरु शान्तिदेव ने बोधिसत्त्वचर्यावतार  में बार-बार युद्ध के रूपक का प्रयोग किया है: जिन्हें परास्त करना है वे असली शत्रु हैं अशांतकारी मनोभाव और मनोदृष्टियाँ जो चित्त में छिपे रहते हैं। तिब्बती लोग संस्कृत शब्द अर्हत  को अनूदित करते हैं, विमुक्त सत्व, शत्रु-विध्वंसक, वह जिसने भीतरी शत्रुओं का नाश कर दिया है। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि बौद्ध-धर्म में "धर्म-युद्ध" का आह्वान एक विशुद्ध आतंरिक आध्यात्मिक मुद्दा है। परन्तु, कालचक्र तंत्र, एक अतिरिक्त बाह्य आयाम प्रकट करता है।

शम्भल की दंतकथा

परम्परा के अनुसार, बुद्ध ने 880 ईसापूर्व में दक्षिण भारत में आंध्रा में यात्रा कर रहे शम्भल के राजा, सुचन्द्र, और उनके काफ़िले को कालचक्र तंत्र  सिखाया था। राजा सुचन्द्र ये शिक्षाएँ अपने साथ उत्तरी क्षेत्र ले आए, जहाँ ये तब से फल-फूल रही हैं। शम्भल एक मानव-गति है, बौद्ध निर्मल प्रदेश नहीं है, जहाँ कालचक्र साधना के लिए सभी परिस्थितियाँ अनुकूल होंगी। चाहे धरती पर कोई विशेष स्थान उसका प्रतिनिधित्व करता भी हो, परम् पावन चौदहवें दलाई लामा कहते हैं कि शम्भल केवल एक आध्यात्मिक गति के रूप में ही विद्यमान है। यद्यपि परम्परागत साहित्य में वहाँ पहुँचने की कायिक यात्रा का विवरण दिया गया है, तथापि वहाँ पहुँचने का एकमात्र मार्ग है गहन कालचक्र ध्यान-साधना।

सुचन्द्र की सात पुश्तों के पश्चात, 176 ईसापूर्व में, राजा मंजुश्री यशस ने शम्भल के धर्म गुरुओं को एकत्रित किया, विशेषतः ब्राह्मण विद्वत्जनों को, और उन्हें एक चेतावनी और कई भविष्यवाणियाँ दीं। भविष्य में आठ सौ वर्ष बाद, 624 ईसापूर्व में, मक्का में एक ग़ैर-भारतीय धर्म उभरेगा। ब्राह्मण-जनों की एकता की कमी और वेदों में दी गई निषेधाज्ञाओं के उचित पालन में चूक के कारण, सुदूर भविष्य में, कई लोग इस धर्म को अपना लेंगे जब उस धर्म के नेता आक्रमण की धमकी देंगे। इस संकट से बचने के लिए, मंजुश्री यशस ने कालचक्र अभिषेक प्रदान करके शम्भल के लोगों को एक "वज्र-जाति" में एकीकृत कर दिया। उनके इस कृत्य से, वे पहली कल्कि  बने - जाति के पहले रखवाले। फिर उन्होंने संक्षिप्त कालचक्र तंत्र  की रचना की, जो कालचक्र तंत्र  का वर्तमान संस्करण है।

अ-भारतीय आक्रांता

चूँकि इस्लाम की शुरुआत 622 ईसापूर्व मानी जाती है, जो कालचक्र की बतलाई गई तिथि से दो वर्ष पूर्व है, इसलिए अधिकतर विद्वान् इस अ-भारतीय धर्म को उससे जोड़ते हैं। कालचक्र ग्रंथों में अन्य स्थान पर दिए गए धर्म-विवरण जैसे अल्लाह का नाम लेते हुए मवेशियों का वध करना, खतना, महिलाओं की पर्दा प्रथा, और पावन भूमि की ओर देखते हुए दिन में पाँच बार प्रार्थना करना इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं।

यहाँ पर अ-भारतीय के लिए संस्कृत शब्द है म्लेच्छ, जिसका अर्थ है वह व्यक्ति जो किसी ग़ैर-संस्कृत दुर्बोध भाषा में बोलता हो। हिन्दुओं और बौद्ध-धर्मियों ने इसका प्रयोग उन सभी विदेशी आक्रांताओं के लिए किया है जिन्होंने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया, जैसे सिकंदर महान के समय में मेसेडोनिया और यूनान के लोग। दूसरा प्रमुख संस्कृत शब्द जिसका प्रयोग किया गया वह है ताई, जो अरब लोगों के लिए प्रयुक्त किए गए फ़ारसी शब्द से उद्भूत हुआ है, जिसे मध्य-7वीं शताब्दी में ईरान पर आक्रमण कर रहे अरबी आक्रांताओं के लिए प्रयुक्त किया जाता था।

पहले कल्कि ने भविष्य के अ-भारतीय धर्म में आने वाले आठ महान गुरुओं का विवरण भी दिया था: आदम, हज़रत नूह, इब्राहिम, मूसा, यीशू, मानी, हज़रत मुहम्मद, और मेहदी। हज़रत मुहम्मद बग़दाद, मक्का, भी आएँगे। इस्लामी समुदाय के आक्रांताओं को पहचानने में इस विवरण से सहायता मिलती है।

  • हज़रत मुहम्मद 570 और 632 ईसापूर्व में अरबिया में रहते थे। किन्तु, बग़दाद का निर्माण अरब अब्बासिद ख़लीफ़ा (750-1258 ईसापूर्व) की राजधानी के रूप में केवल 762 ईसापूर्व में ही हुआ था।
  • मानी तीसरी शताब्दी के एक ईरानी थे, जिन्होंने एक उदार धर्म, मैनिकेइज़्म, की स्थापना की जो भूतपूर्व ईरानी धर्म (ज़रथुस्ट्रवाद ) की तरह था, जिसमें अच्छाई और बुराई की ताकतों के बीच के संघर्ष पर बल दिया गया था। इस्लाम धर्म में, उन्हें केवल विधर्मी मैनिकाईन पंथ द्वारा नबी के रूप में स्वीकार किया गया होगा जो बग़दाद में पूर्व अब्बासिद राजसभा के कुछ अधिकारियों में पाया जाता था - हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा हुआ था या नहीं। अब्बासिद ख़लीफ़ाओं ने उसके अनुयायियों को बुरी तरह से सताया।
  • 8 वीं शताब्दी ईसापूर्व के परवर्ती भाग में समकालीन अफ़्ग़ानिस्तान और भारतीय उपमहाद्वीप के बौद्ध विद्वान बग़दाद में संस्कृत ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया करते थे।
  • हज़रत मुहम्मद के वंशज, मेहदी, भविष्य में शासक (इमाम ) बनेंगे, जो श्रद्धालुओं को जेरूसलम की ओर उन्मुख करेंगे, क़ुरआन की क़ानून और व्यवस्था पुनर्स्थापित करेंगे, और, उस महाप्रलय से पहले जिसमें दुनिया का अंत हो जाएगा, इस्लाम के अनुयायियों को एकल राजनैतिक राज्य में एकत्रित करेंगे। वे मसीहा के इस्लामी पर्याय हैं। मेहदी की संकल्पना पूर्व अब्बासिद काल में प्रसिद्ध हुई, जिसमें इस उपाधि के तीन दावेदार थे: एक ख़लीफ़ा, मक्का में एक प्रतिद्वन्द्वी, और एक शहीद, जिनकी याद में एक अब्बासिद-विरोधी विद्रोह हुआ। किन्तु, मेहदी की मसीहा के रूप में पूर्ण संकल्पना, 9 वीं शताब्दी ईसापूर्व के अंत तक नहीं की गई थी।
  • नबियों की इस्माइली शिया सूची कालचक्र में पाई गई सूची के समान है, केवल इसमें मानी का उल्लेख नहीं है। केवल इस्माइली वह इस्लामी पंथ है जो मेहदी को नबी मानते हैं।
  • 10 वीं शताब्दी के दूसरे आधे भाग में मुल्तान (वर्तमान उत्तरी सिंध, पाकिस्तान) में इस्माइली शिया इस्लाम का वह आधिकारिक पंथ था जिसका पालन किया जाता था। मुल्तान मिस्र में केंद्रित इस्माइली फ़ातिमिद साम्राज्य का मित्र था और इस्लामी जगत पर अब्बासिदों के प्रभुत्व को चुनौती दे रहा था।

इस सबूत से, हम यह दावा कर सकते हैं कि अभारतीय आक्रांताओं का कालचक्र विवरण गत 10 वीं शताब्दी ईसापूर्व में मुल्तान के इस्माइलियों पर आधारित था, जिनमें गत 8 वीं शताब्दी के मैनिकाईन मुसलमानों के कुछ पहलू मिश्रित थे। इस विवरण के संकलकर्ता संभावित रूप से पूर्वी अफ़्ग़ानिस्तान और ओड्डियान (वर्तमान उत्तरपूर्वी पाकिस्तान की स्वात घाटी) में हिन्दू शाही राज में रहने वाले बौद्ध आचार्य ही रहे होंगे। अफ़्ग़ानिस्तान के काबुल क्षेत्र के सुबहार जैसे बौद्ध मठों में कालचक्र मंडल के समान वास्तुकला के मूलभाव थे। ओड्डियान उन प्रमुख क्षेत्रों में से एक था जहाँ बौद्ध तंत्र विकसित हुआ। इसके अतिरिक्त, ओड्डियान के कश्मीर से निकट सम्बन्ध थे, जहाँ बौद्ध और हिन्दू शैव तंत्र दोनों विकसित हुए। इन दोनों के बीच एक प्रमुख बौद्ध तीर्थ यात्रा मार्ग था। इसलिए, हमें इतिहास और धर्म-युद्धों की शिक्षाओं के सन्दर्भ को समझने के लिए अब्बासिद काल में पूर्वी अफ़्ग़ानिस्तान, ओड्डियान और कश्मीर में बौद्ध-मुस्लिम संबंधों को समझना चाहिए।

एक प्रलयंकारी युद्ध की भविष्यवाणी

पहले कल्कि ने भविष्यवाणी की थी कि किसी दिन भारत पर अ-भारतीय धर्म के अनुयायियों का राज होगा। अपनी राजधानी दिल्ली से, उनका नरेश कृणमति 2424 ईसापूर्व में शम्भल पर विजय पाने का प्रयास करेगा। टीकाकार कहते हैं कि कृणमति को मसीहा मेहदी के रूप में मान्यता मिलेगी। फिर पच्चीसवें कल्कि,रौद्रचक्रिन, भारत पर आक्रमण करके एक महायुद्ध में अ-भारतीयों को परास्त कर देंगे। उनकी विजय से कलियुग  - "विवादों का युग" - का अंत होगा, जिसमें धर्म साधना का पतन होगा। इसके बाद, एक स्वर्ण युग आएगा जिसमें शिक्षाएँ फले-फूलेंगी, विशेषतः कालचक्र की शिक्षाएँ।

बुद्ध के प्राकट्य से कई दशक पूर्व, 6ठी शताब्दी ईसापूर्व में स्थापित हुए ईरानी धर्म (ज़ोरास्ट्रीयनिज़्म) में इस विचार ने जन्म लिया था कि अच्छी और बुरी ताकतों के बीच एक युद्ध होगा जिसका अंत एक मसीहा के नेतृत्व में एक प्रलयंकारी युद्ध द्वारा होगा। फिर यह विचार दूसरी शताब्दी ईसापूर्व और दूसरी शताब्दी ईस्वी के बीच यहूदी धर्म (जुडाइज़्म) में देखने को मिला। इसके पश्चात, यह प्रारम्भिक ईसाई धर्म एवं मैनिकेइज़्म, और उसके बाद इस्लाम धर्म में आ गया।

इस प्रलयंकारी विषय का एक रूप-भेद हिन्दू धर्म में लगभग 4थी शताब्दी ईस्वी की विष्णु पुराण  में भी है। इसमें बताया गया है कि कलियुग के अंत में, कल्कि का अंतिम अवतार बनकर विष्णु ब्राह्मण विष्णु यशस के पुत्र के रूप में शम्भल गाँव में अवतरित होंगे। वे उस समय के विनाशकारी पथ का अनुसरण कर रहे अ-भारतीयों को पराजित करके लोगों के चित्त को पुनर्जागृत करेंगे। फिर, चक्रीय समय की भारतीय धारणा के अनुरूप, एक नया स्वर्ण युग आएगा, न कि अंतिम निर्णय और संसार का अंत जैसा इस विषय के अ-भारतीय संस्करण में बताया गया है। यह तय कर पाना कठिन है कि विष्णु पुराण  का विवरण विदेशी प्रभावों से उद्भूत हुआ और उसे भारतीय मानसिकता के अनुरूप ढाला गया, अथवा यह स्वतंत्र रूप से उभरा।

उनके दर्शकों की जानी-पहचानी शब्दावली और अवधारणाओं से भरी बुद्ध की कुशल शिक्षण पद्धति के अनुरूप, कालचक्र तंत्र  भी विष्णु पुराण  के नाम और बिम्बों का प्रयोग करता है। उसके प्रत्यक्ष दर्शक मुख्यतः शिक्षित ब्राह्मण थे। नामों में शम्भल, कल्कि, कलियुग, विष्णु यशस का एक रूप-भेद, मंजुश्री यशस, के अतिरिक्त विनाश पर तुले हुए अ-भारतीयों के लिए भी वही शब्द, म्लेच्छ, सम्मिलित है। किन्तु, कालचक्र संस्करण में, युद्ध का प्रतीकात्मक अर्थ है।

युद्ध का प्रतीकात्मक अर्थ

संक्षिप्त कालचक्र तंत्र  में, मंजुश्री यशस व्याख्यायित करते हैं कि मक्का के अ-भारतीय लोगों के साथ संघर्ष वास्तविक युद्ध नहीं है, क्योंकि असली युद्ध हमारे शरीर के भीतर है। 15 वीं शताब्दी ईस्वी में गेलुग टीकाकार केद्रुब जे ने प्रकाश डाला कि मंजुश्री यशस के शब्दों का अर्थ अ-भारतीय धर्म के अनुयायियों का वध करने के लिए एक असली अभियान नहीं है। युद्ध के विवरण के पीछे पहले कल्कि का उद्देश्य था अनभिज्ञता और विनाशकारी व्यवहार के विरुद्ध शून्य सम्बन्धी गहन आनंदप्रद सचेतनता के आतंरिक संघर्ष के लिए एक रूपक देना।

मंजुश्री यशस स्पष्टतः गुह्य प्रतीकार्थ का विश्लेषण करते हैं। रौद्रचक्रिन प्रतीक हैं "चित्त-वज्र" का, नामतः, निर्मल सूक्ष्म चित्त।  शम्भल परमानंद की वह अवस्था है जिसमें निर्मल सूक्ष्म चित्त का वास होता है। कल्कि होने का अर्थ है कि चित्त-वज्र की गहन अभिज्ञता का उत्तम स्तर, नामतः सहज शून्यता और परमानंद। रौद्रचक्रिन के दो सेनापति, रूद्र और हनुमान, प्रतीक हैं बुद्धजनों और श्रावकों की दो सहायक प्रकृति के गहन बोध का। जो बारह हिन्दू देवता युद्ध जीतने में सहायता करते हैं वे प्रतीक हैं प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वादश निदान और कार्मिक श्वास के बारह दैनिक परिवर्तनों के समापन का। ये निदान और परिवर्तन दोनों संसार को चलायमान रखने वाले तंत्र को व्याख्यायित करते हैं। रौद्रचक्रिन की सेना के चार प्रभाग प्रेम, करुणा, हर्ष, और समचित्तता की चार अथाह मनोवृत्तियों के निर्मलतम स्तरों के प्रतीक हैं। जिन अ-भारतीय शक्तियों को रौद्रचक्रिन और उनकी सेना के प्रभाग पराजित करते हैं वे प्रतीक हैं नकारात्मक कार्मिक शक्तियों के चित्त का जिनकी सहायता करते हैं घृणा, वैमनस्य, आक्रोश, और दुर्भावना। इनपर विजय का अर्थ है विमुक्ति और ज्ञानोदय के मार्ग की प्राप्ति।

बौद्ध उपदेशात्मक विधि

एक वास्तविक धर्म-युद्ध के आह्वान के शाब्दिक अस्वीकरण के बावजूद, यह निहितार्थ, कि इस्लाम एक क्रूर धर्म है जिसके मुख्य लक्षण हैं घृणा, वैमनस्य, और विनाशकारी व्यवहार, सरलता से इस तथ्य के प्रमाण के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है कि बौद्ध-धर्म मुस्लिम-विरोधी है। यद्यपि कुछ भूतपूर्व बौद्ध लोगों में यह पक्षपात की भावना रही होगी और हो सकता है कि कुछ वर्तमान बौद्ध लोग भी यह साम्प्रदायिक दृष्टिकोण रखते हों, फिर भी हम महायान बौद्ध उपदेशात्मक विधियों के सन्दर्भ में एक अलग निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

उदाहरण के लिए, महायान ग्रन्थ कुछ ऐसे दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं जो हीनयान बौद्ध धर्म की विशेषताएँ बताते हैं, जैसे दूसरों की सहायता की चिंता किए बिना केवल अपनी विमुक्ति के लिए स्वार्थपूर्वक प्रयत्न करना। जो भी हो, हीनयान साधकों का घोषित लक्ष्य आत्म-विमुक्ति है, न कि दूसरों के लाभार्थ के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति। यद्यपि हीनयान के ऐसे विवरण से प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, तथापि थेरवाद जैसी हीनयान विचारधारा के शिक्षित वस्तुनिष्ठ अध्ययन से प्रेम और करुणा में ध्यान-साधना की मुख्य भूमिका उभरकर आती है। हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि महायान वास्तविक हीनयान शिक्षाओं से वास्तव में अनभिज्ञ था। वैकल्पिक रूप से, हम यह भी सोच सकते हैं कि महायान यहाँ उस बौद्ध-धर्मी तर्क का प्रयोग कर रहा है जिसमें दृष्टिकोण को उसके असंगत निष्कर्ष तक ले जाया जाए ताकि लोग अतिवादी दृष्टिकोण से बच सकें। इस प्रासंगिक  विधि का उद्देश्य है साधकों को स्वार्थपरक अतिवाद से बचने के लिए आगाह करना।

मध्यकालीन हिन्दू और जैन दर्शनों की छः विचारधाराओं की महायान प्रस्तुतियों पर भी यही विश्लेषण लागू होता है। यह प्रत्येक तिब्बती बौद्ध परम्परा के एक-दूसरे के दृष्टिकोणों और मूल तिब्बती बॉन परम्परा के दृष्टिकोणों की प्रस्तुतियों पर भी लागू होता है। इसमें से कोई भी प्रस्तुति सटीक अंकन नहीं करती। विभिन्न मुद्दों को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक दूसरे की कुछ विशेषताओं को बढ़ा-चढ़ाकर विकृत करती है। इस्लाम की क्रूरता और उसके संभावित संकटों के विषय में कालचक्र के दावों का भी ऐसा ही हाल है। यद्यपि बौद्ध आचार्य यह दावा करते हैं कि आध्यात्मिक संकट को स्पष्ट करने के लिए इस्लाम के प्रयोग की प्रासंगिक विधि एक कुशल साधन है, तथापि हम यह तर्क दे सकते हैं कि इसमें कूटनीति की भारी कमी है, विशेषतः आधुनिक युग में।

किन्तु, यद्यपि विनाशकारी धमकाने वाली शक्तियों द्वारा इस्लाम का प्रयोग सहज ही समझा जा सकता है, यदि इसे पूर्वी अफ़्ग़ानिस्तान के काबुल क्षेत्र में आरंभिक अब्बासिद काल के सन्दर्भ में देखा जाए।

अब्बासिद काल में बौद्ध-इस्लामी सम्बन्ध

इस काल के आरम्भ में, अब्बासिद बैक्ट्रिया (उत्तरी अफ़्ग़ानिस्तान) पर राज करते थे, जहाँ वे एक व्यक्ति-कर के बदले स्थानीय बौद्ध लोगों, हिन्दुओं, और पारसियों को अपने धर्म का पालन करने देते थे। किन्तु, कई लोग स्वेच्छा से इस्लाम धर्म अपना लेते थे, विशेषतः भूस्वामी और शिक्षित उच्च शहरी वर्ग। उनकी समृद्ध संस्कृति उनके अपने धर्म की तुलना में अधिक सुगम्य थी और वे भारी कर देने से बच सकते थे। तिब्बतियों से सम्बद्ध तुर्की शाही काबुल पर राज करते थे, जहाँ बौद्ध-धर्म और हिन्दू धर्म पनप रहे थे। बौद्ध शासकों और आध्यात्मिक गुरुओं को यह चिंता हुई होगी कि कहीं ऐसी ही संघटना, सुविधा के लिए धर्म-परिवर्तन, उनके क्षेत्र में न हो जाए।

तुर्की शाहियों ने इस क्षेत्र पर 870 ईस्वी तक राज किया, केवल 815 और 819 के बीच वे इसका नियंत्रण खो बैठे। उन चार वर्षों में, अब्बासिद ख़लीफ़ा अल-मा'मुन ने काबुल पर हमला किया और वहाँ के शासक शाह को समर्पण और इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर किया। इस समर्पण के चिह्न के रूप में, काबुल के शाह ने, भेंटस्वरूप, सुबहार मठ की एक स्वर्ण बुद्ध प्रतिमा ख़लीफ़ा को दी। इस्लाम धर्म की जीत के प्रतीकस्वरूप ख़लीफ़ा अल-मा'मुन ने यह भीमकाय मूर्ति, उसके चांदी के सिंहासन और जड़ाऊ मुकुट सहित, मक्का भेज दी जहाँ काबा में दो वर्षों तक उसका प्रदर्शन हुआ। ऐसा करके ख़लीफ़ा गृहयुद्ध में अपने भाई को पराजित करके पूरे इस्लामी जगत पर अपने राज के प्रभुत्व का प्रदर्शन कर रहे थे। किन्तु, उन्होंने काबुल के बौद्ध-धर्मियों को धर्म-परिवर्तन के लिए मजबूर नहीं किया, और न ही उन्होंने मठों को हानि पहुँचाई। काबुल के शाह द्वारा भेंट की गई बुद्ध की प्रतिमा को, मूर्ति होने के बावजूद, उन्होंने चकनाचूर नहीं किया, बल्कि लूट के माल के रूप में उसे मक्का भेज दिया। राज्य के अन्य भागों में स्वायत्तता के लिए हो रहे आन्दोलनों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए जब अब्बासिद सेना पीछे हट गई, तब बौद्ध मठ पुनः सक्रिय हो गए।

काबुल क्षेत्र में इस्लाम के राज का अगला अध्याय भी लघु अवधि का था, 870 और 879 ईस्वी के बीच में। इसपर स्वायत्त सैन्य राज्य के सफ़्फ़ारिद शासकों ने विजय प्राप्त की, जो अपनी कठोर रवैये और स्थानीय संस्कृति के विनाश के लिए प्रसिद्ध थे। विजेताओं ने कई बौद्ध "मूर्तियाँ" युद्ध की लूट के रूप में अब्बासिद ख़लीफ़ा को भेजीं। जब तुर्की शाहियों के बाद हिन्दू शाहियों ने दोबारा इस क्षेत्र की बागडोर संभाली, तब बौद्ध धर्म और मठों का पूर्व वैभव पुनः लौट आया।

976 ईस्वी में तुर्की ग़ज़नविदियों ने हिन्दू शाहियों से पूर्वी अफ़्ग़ानिस्तान जीत लिया, परन्तु उन्होंने वहाँ के बौद्ध मठों को ध्वस्त नहीं किया। अब्बासिदियों के दास होने के कारण, ग़ज़नविदी भी सुन्नी इस्लाम धर्म के कट्टर अनुयायी थे। यद्यपि वे पूर्वी अफ़्ग़ानिस्तान में बौद्ध और हिन्दू धर्म को सहन करते थे, परन्तु उनके दूसरे शासक, महमूद ग़ज़नवी, ने मुल्तान के इस्माइली राज्य, अपने अब्बासिद प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध एक जंग छेड़ दी। 1008 ईसापूर्व में महमूद ने मुल्तान पर विजय प्राप्त कर ली, और रास्ते में गांधार और ओड्डियान से हिन्दू शाहियों को खदेड़ दिया। हिन्दू शाहियों ने मुल्तान के साथ गठबंधन कर लिया। महमूद ने जहाँ भी विजय पाई, वह वहाँ के हिन्दू मंदिरों और बौद्ध मठों की सम्पदा लूटकर अपनी सत्ता को सुदृढ़ करता चला गया।

मुल्तान में मिली विजय, और निस्संदेह और अधिक राज्य एवं धन के लोभ में, महमूद पूर्व दिशा में चढ़ाई करता चला गया। उसने वर्तमान भारतीय पंजाब पर विजय पा ली, जिसे उन दिनों में "दिल्ली" कहा जाता था। किन्तु, जब ग़ज़नविद सेना, 1015 या 1021 में बचे-खुचे हिन्दू शाहियों को खदेड़ती हुई दिल्ली से उत्तर में कश्मीर की तलहटी की ओर बढ़ी, तब जैसा कि दावा किया जाता है, उसे मन्त्रों के प्रयोग से परास्त किया गया। यह पहली बार किसी भी मुस्लिम सेना द्वारा कश्मीर पर हमले की कोशिश थी। फिर, दिल्ली पर आगामी आक्रमण और उसकी अ-भारतीय सेना की पराजय का कालचक्र विवरण संभवतः कश्मीर को ग़ज़नविदियों की ओर से तथा अब्बासिदों और ग़ज़नविदियों को मुल्तानियों की ओर से आशंका का सम्मिश्रण है।

भविष्यवाणियों और इतिहास का पारस्परिक सम्बन्ध

पहले कल्कि की ऐतिहासिक भविष्यवाणियाँ स्पष्टतः उपर्युक्त काल के लिए सटीक थीं, परन्तु पाठों को दर्शाने के लिए घटनाओं को ढाला गया है। किन्तु, जैसा 13 वीं शताब्दी ईस्वी के शाक्य टीकाकार बुटोन इतिहास की कालचक्र प्रस्तुति के विषय में कहते हैं, "विगत ऐतिहासिक घटनाओं की संवीक्षा निरर्थक है।" फिर भी, केद्रुब जे समझाते हैं कि शम्भल और अ-भारतीय शक्तियों के बीच का पूर्वानुमानित युद्ध भावी ऐतिहासिक यथार्थ से पृथक केवल एक रूपक नहीं है। यदि ऐसा होता, तब जब कालचक्र तंत्र  ग्रहों और तारामंडलों के लिए आतंरिक उपमाओं का प्रयोग करते हैं, तब यह असंगत निष्कर्ष निकलता है कि खगोलीय पिंड केवल रूपक के रूप में विद्यमान हैं और उनका कोई बाह्य सन्दर्भ नहीं है।

केद्रुब जे भी इस अतिरिक्त कालचक्र भविष्यवाणी पर अक्षरशः विश्वास करने के प्रति सचेत करते हैं कि यह अ-भारतीय धर्म अंततः सभी बारह महाद्वीपों में फैल जाएगा और वहाँ भी रौद्रचक्रिन की शिक्षाओं की इसपर विजय होगी। इस भविष्यवाणी का सम्बन्ध पहले व्याख्यायित किए गए निर्दिष्ट अ-भारतीय लोगों से, या उनके धार्मिक मतों अथवा प्रथाओं से नहीं है। यहाँ म्लेच्छ  का अर्थ है केवल अधार्मिक शक्तियाँ और आस्थाएँ हैं जो बुद्ध की शिक्षाओं का खंडन करती हैं।

इसलिए, भविष्यवाणी यह है कि आध्यात्मिक प्रथा विरोधी विनाशकारी शक्तियाँ - विशेष रूप से मुस्लिम सेना नहीं - भविष्य में आक्रमण करेंगी, और उनके विरुद्ध एक बाह्य "धर्म-युद्ध" आवश्यक होगा। अन्तर्निहित सन्देश यह है कि, यदि शांतिपूर्ण उपाय विफल हो जाएँ और धर्म-युद्ध लड़ना अनिवार्य हो जाए, तब संघर्ष सदैव करुणा और यथार्थ की गहन सचेतनता के बौद्ध सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। यह इस तथ्य के बावजूद सत्य है कि व्यवहार में इसका अनुसरण करना अत्यंत कठिन है जब ऐसे सैनिकों को प्रशिक्षित किया जा रहा हो जो बोधिसत्त्व नहीं हैं। किन्तु, यदि युद्ध घृणा, द्वेष, रोष, और पक्षपात के अ-भारतीय मूल्यों के कारण किया जाए, तो भावी पीढ़ियाँ अपने पूर्वजों के तौर-तरीकों और अ-भारतीय शक्तियों के बीच कोई भेद नहीं करेंगी। परिमाणतः, वे आसानी से अ-भारतीय परम्पराएं अपना लेंगी।

जिहाद की इस्लामी संकल्पना

क्या जिहाद की इस्लामी संकल्पना आक्रांताओं के ढंग में से एक है? यदि हाँ, तो क्या कालचक्र जिहाद को सही प्रकार व्याख्यायित कर रहा है, अथवा क्या वह शम्भल के अ-भारतीय आक्रमण का केवल एक प्रतीक के रूप में प्रयोग कर रहा है जिससे बचना चाहिए? अंतर्धर्मी ग़लतफ़हमियों से बचने के लिए, यह आवश्यक है कि इन प्रश्नों पर चिंतन किया जाए।

अरबी शब्द जिहाद  का अर्थ है एक ऐसा संघर्ष जिसमें व्यक्ति को कष्ट और कठिनाइयाँ झेलनी पड़ें, जैसे उपवास के पावन महीने रमादान में भूख और प्यास सहना। जो इस संघर्ष में भाग लेते हैं उन्हें मुजाहिद्दीन  कहा जाता है। यह हमें याद दिलाता है बोधिसत्त्वों के लिए धैर्य सम्बन्धी बौद्ध शिक्षाओं की, जिनमें ज्ञानोदय के मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों को झेलने की बात कही गई है।

इस्लाम का सुन्नी पंथ पाँच प्रकार के जिहाद की बात करता है:

  1. एक सामरिक जिहाद जो इस्लाम को हानि पहुँचाने की चेष्टा करने वाले आक्रांताओं के विरुद्ध एक आत्मरक्षक अभियान होता है। यह दूसरों को बलपूर्वक इस्लाम में धर्मान्तरित कराने वाला कोई घातक आक्रमण नहीं है।
  2. संसाधनों द्वारा जिहाद जहाँ दरिद्रों एवं अभावग्रस्तों को वित्तीय और भौतिक सहायता देना निहित है।
  3. कार्मिक जिहाद जहाँ स्वयं अपना तथा अपने परिवारजनों का न्यायोचित ढंग से भरण-पोषण करना होता है।
  4. अध्ययन द्वारा जिहाद जो ज्ञानार्जन के लिए होता है।
  5. अपने विरुद्ध जिहाद जिसमें मुस्लिम शिक्षाओं की विरोधी जो भी इच्छाएँ एवं विचार हैं उनपर नियंत्रण पाने के लिए एक आंतरिक संघर्ष होता है।

इस्लाम के शिया सम्प्रदाय वाले पहले प्रकार के जिहाद पर बल देते हैं, और वे इस्लामी राज्य पर हुए आक्रमण को इस्लाम धर्म पर आक्रमण मान लेते हैं। कई शिया सम्प्रदाय वाले पाँचवे प्रकार, अर्थात आंतरिक आध्यात्मिक जिहाद, को भी मानते हैं।

बौद्ध धर्मं तथा इस्लाम के बीच समानताएँ

पौराणिक शम्भल युद्ध की कालचक्र प्रस्तुति और जिहाद की इस्लामी चर्चा के बीच उल्लेखनीय समानताएँ दिखाई पड़ती हैं। बौद्ध एवं इस्लामी धर्म युद्ध बाह्य विरोधी शक्तियों के आक्रमणों को रोकने की आत्मरक्षक रणनीतियाँ हैं, न कि दूसरों को धर्मान्तरित करने का कोई आक्रामक अभियान। दोनों में प्रयोजन के आंतरिक आध्यात्मिक स्तर हैं, जहाँ संघर्ष नकारात्मक विचारों और विनाशकारी भावनाओं के विरुद्ध होता है। दोनों को नैतिक सिद्धांतों के आधार पर ही संघर्ष छेड़ना होता है, न कि द्वेष एवं घृणा के आधार पर। अतः, शम्भल के ग़ैर-भारतीय आक्रमण को पूर्णतः नकारात्मक रूप से प्रस्तुत करके, कालचक्र साहित्य ने जिस स्थिति से बचना है उसे सचित्र स्पष्ट करने के लिए प्रासंगिक शैली में जिहाद की अवधारणा को जिस प्रकार से तार्किक अतिवाद के रूप में प्रस्तुत किया है, वह वास्तव में जिहाद की अवधारणा की एक भ्रांत व्याख्या है।

इसके अतिरिक्त जिस प्रकार कई नेताओं ने सत्ता हड़पने के लिए जिहाद की अवधारणा को विकृत कर अनुचित लाभ उठाया है, उसी प्रकार शम्भल और विनाशकारी विदेशी शक्तियों के विरुद्ध युद्ध की चर्चा की भी वही दशा हुई है। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में तेरहवें दलाई लामा के रूसी बुरात मंगोल सहायक शिक्षक, अगवन दोरजिएफ़, ने घोषणा की कि रूस ही शम्भल था और वहाँ का ज़ार एक कल्कि था। इस प्रकार उन्होंने तेरहवें दलाई लामा को मध्य एशिया के नियंत्रण के संघर्ष में "म्लेच्छ" अंग्रेज़ों के विरुद्ध रूस के साथ गठबंधन करने के लिए मनाने की चेष्टा की।

मंगोलों ने परंपरागत रूप से शंभल के राजा सुचंद्र और चंगेज़ ख़ान दोनों को ही वज्रपाणि के अवतार के रूप में समझा है। तो शम्भल के लिए युद्ध करना, चंगेज़ ख़ान की कीर्ति तथा मंगोलिया के लिए युद्ध करने के समान है। इस प्रकार, श्वेत रूसी और जापानियों द्वारा समर्थित बैरन वॉन उँगर्न-स्टर्नबर्ग के अत्यंत कठोर शासन के विरुद्ध 1921 के मंगोलियाई कम्युनिस्ट क्रांतिकारी नेता, सुखे बाटुर, ने कलियुग को समाप्त करने के युद्ध सम्बन्धी कालचक्र के वृत्तांत से अपने सैनिकों को प्रेरित किया। उन्होंने अपने सैनिकों को शम्भल के राजा के सैनिकों के रूप में पुनर्जन्म प्राप्त करने का भरोसा दिलाया, यद्यपि कालचक्र साहित्य में उनके इस आश्वासन-सम्बन्धी कोई शाब्दिक आधार नहीं है। 1930 के दशक में आंतर मंगोलिया पर जापानी आक्रमण के दौरान, जापानी अधिपतियों ने एक ऐसा प्रचार अभियान प्रस्तुत किया कि जापान ही शम्भल है ताकि उन्हें मंगोलियाई निष्ठा और सैन्य समर्थन प्राप्त हो सकें।

संक्षिप्त विवरण

जिस प्रकार बौद्ध धर्म के आलोचक कालचक्र के आतंरिक स्तर के संग्राम की उपेक्षा कर बाह्य स्तर के आध्यात्मिक युद्ध के दुरुपयोग पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो कि समग्र रूप से बौद्ध धर्म के लिए अन्यायपूर्ण है; जिहाद के मुस्लिम विरोधी आलोचकों के बारे में भी यह बात सच है। आध्यात्मिक गुरु के संबंध में बौद्ध तंत्र का परामर्श यहाँ उपयोगी हो सकता है। लगभग हर आध्यात्मिक गुरु में अच्छे और बुरे दोनों ही गुण होते हैं। यद्यपि एक शिष्य को अपने गुरु के नकारात्मक गुणों को अनदेखा नहीं करना चाहिए, तथापि केवल उन पर ही ध्यान लगाए रखना क्रोध और अवसाद का कारण बन जाता है। इसके स्थान पर, जब कोई शिष्य अपने गुरु के गुणों पर ध्यान केंद्रित करता है, तब उसे आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।

धर्म युद्धों के संबंध में बौद्ध और इस्लामी शिक्षाओं के बारे में भी यही कहा जा सकता है। दोनों धर्मों ने बाह्य युद्ध के अपने आह्वान का दुरुपयोग देखा है जब विनाशकारी शक्तियाँ धार्मिक अभ्यासों पर आक्रामक रूप से दबाव डालती हैं। इन दुरुपयोगों को नकारे या उन पर ध्यान दिए बिना, किसी भी पंथ में आभ्यन्तरिक धर्म-युद्ध छेड़ने के गुणों पर ध्यान केंद्रित करके हम प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।

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