चार बौद्ध परिषद

जब इतिहासकार "चार बौद्ध परिषदों" जैसी प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं पर विचार करते हैं तो वे प्रासंगिक सामग्री लेते हैं - प्रत्यक्ष दर्शी साक्षियों के विभिन्न अनुभव - और उन्हें सुसंगत रूप से क्रमबद्ध करते हैं। इसी को "इतिहास" कहते हैं। परन्तु बौद्ध-धर्मी संदर्भ में इतिहास बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं के द्वारा मोक्ष प्राप्ति की ओर बढ़ने हेतु अतीत को समझने का एक मार्ग मात्र है; ऐसा नहीं है कि हम चारों बौद्ध परिषदों को किसी अद्वितीय ढंग से अनुभव कर सकते हैं। चार बौद्ध परिषदों को अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया गया है, और सच पूछिए तो कुछ लोग यह भी स्वीकार नहीं करते कि वे चार ही थे। ये सभी व्याख्याएँ उपयोगी हैं, और यदि हम बिना किसी पूर्वग्रह या संस्कारबद्धता की इस सामग्री को व्यापक परिप्रेक्ष्य से समझना चाहते हैं तो हमें प्रत्येक व्याख्या पर विचार करना होगा।

इतिहास क्या है?

इतिहास पूर्ववर्ती सामग्रियों के संयोजन का मार्ग है जिसका उद्देश्य है किसी घटनाक्रम के उत्तरोत्तर विकास को समझना। यदि हम इस उद्धरण को देखते हैं, "यदि इतिहास उपलब्ध है तो मनुष्य ने इसमें भाग लिया है," तो हम इतिहास को अपने ही दम पर अस्तित्वमान मानते हैं - पूर्णतया स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान आलम्बन - और मनुष्य एक प्रेक्षक मात्र था, किसी खेल के आयोजन में दर्शक अथवा खिलाड़ी की तरह। पर बात यह है कि इतिहास किसी "आलम्बन" के रूप में अस्तित्वमान नहीं है। वह किसी विशिष्ट कालखंड की उपलब्ध सामग्री के विभिन्न प्रकरणों को संयोजित करने एवं परखने की विधि मात्र है। बौद्ध शब्दावली के अनुसार ऐतिहासिक सामग्री का यह संयोजन एक "मानसिक सृजन" है।

हम मानसिक सृजन के इस विचार को प्रपंच सूत्र से जोड़ सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम यह पूछ सकते हैं, "क्या रूसी क्रांति वास्तव में घटित हुई थी?" उत्तर भले ही "हाँ" होगा, फिर भी हमें यह पूछना पड़ेगा: तो उस समय वास्तव में क्या हुआ था? उस समय वहाँ कई लोग रहे होंगे और सब का अलग-अलग अनुभव भी रहा होगा, पर क्या उन्होंने "क्रांति" का अनुभव वैसे किया जैसे लोग, उदाहरणार्थ, हाथी को देखते हुए अनुभव करते हैं? यदि नहीं, तो फिर वह क्रांति क्या थी? वास्तव में उस घटना को क्रांति का नाम केवल बाद में ही दिया गया जब इतिहासकारों ने उस समय मौजूद लोगों के विभिन्न अनुभवों को समझने का प्रयास किया। इन इतिहासकारों ने प्रत्यक्ष दर्शियों के वृत्तांतों को एक प्रकार की मनः संहिति - अनुभवों का संयोजन जिसे "इतिहास" कहा जाता है - के द्वारा एकत्रित किया। हम बौद्ध-धर्मी सामग्री के भी इस प्रकार के संयोजन को देख सकते हैं जिसे विभिन्न तरीकों से प्रस्तुत किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए मनोविज्ञान के विषय को ही ले लीजिए, भले ही मनोविज्ञान की कई विचारधाराएँ हैं, पर उसकी वास्तविक विषय-वस्तु क्या है? हम यों कह सकते हैं कि मनोविज्ञान विभिन्न प्रकार के अनेक लोगों के क्षणिक अनुभवों का विशाल पुंज है। मनोविश्लेषण शास्त्री इन तमाम अनुभवों को एक संगठित योजना के अंतर्गत प्रस्तुत करता है और उसे मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों द्वारा प्रतिपादित करता है। इन अनुभवों को केवल एक अकेली योजना के तहत नहीं, अपितु कई प्रणालियों के अनुसार संयोजित करके प्रस्तुत किया जा सकता है।

हम एक दार्शनिक प्रश्न पूछते हैं कि क्या वास्तव में इससे पहले कुछ हुआ था? उसका उत्तर होगा "निस्संदेह कुछ तो हुआ था।" पर, जो भी हुआ, क्या वह केवल मन की उपज है जिसे "इतिहास" की संहिति में संजोया गया है? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि यह हमें चीज़ों को परखने की बौद्ध-धर्मी विश्लेषणात्मक पद्धति से परिचित कराता है - एक ऐसी पद्धति जिसे समझना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है।

तिब्बती बौद्ध-धर्म के अनुयायी भारतीय बौद्ध धर्म के चारों सम्प्रदायों का एक क्रमिक पाठ्यक्रम, अर्थात एक स्तर से दूसरे स्तर की ओर क्रमानुसार वृद्धि,  के रूप में अध्ययन करते हैं, जिसका युगल प्राप्तव्य अपना बोध एवं उत्तरोत्तर गहन अंतर्दृष्टि, तथा मिथ्यादृष्टि का सूक्ष्म विखंडन दोनों ही हैं। यह मोक्ष एवं ज्ञानोदय प्राप्ति - बौद्ध-धर्म के लक्ष्य - के उद्देश्य से सामग्री को संयोजित करने का एक मार्ग है। यदि ये संगठनात्मक योजनाएँ केवल मानसिक संरचनाएँ हैं तो वे मानसिक रूप से किसी व्यक्ति या समूह द्वारा किसी विशेष उद्देश्य के लिए रची गई हैं, जैसे रोगियों की सहायता हेतु विभिन्न मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों को संयोजित किया जाता है। हम बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं की सामग्री को विचारों के तर्कसम्मत विकास के अनुसार संयोजित कर सकते हैं, जहाँ किसी विशेष शिक्षण की आरम्भिक अवधारणा को बढ़ाकर परवर्ती स्तरों पर विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया जाता है - इसी को "बौद्ध धर्म का इतिहास" कहा जाता है।

पश्चिमी चिंतन के अनुसार आलम्बनों के विकास - जिसे "प्रगति" कहा जाता है - की अवधारणा को लेकर हम अत्यंत गंभीर होते हैं। यह रैखिक समय की हमारी अवधारणा पर आधारित है, जो सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट है। पश्चिम-वासी होने के नाते रैखिक समय की अवधारणा हमें इस विषय पर उपयोगी जानकारी देती है कि समय के साथ विचार कैसे विकसित होते हैं, पर तिब्बत और भारत के निवासियों के लिए यह जानकारी अप्रासंगिक है। उनके लिए रैखिक समय पर आधारित इतिहास निरर्थक है। ऐसे में क्या हम यह कह सकते हैं कि पश्चिमी ऐतिहासिक विश्लेषण भारतीय/तिब्बती विश्लेषण की तुलना में अधिक मान्य है? बुद्ध ने सभी विषयों को एक साथ कई क्षेत्रों में सिखाया था, अतः शिक्षाओं को समय के अनुसार विभाजित करना प्रायः अप्रासंगिक है। धर्मचक्र के तीन प्रवर्तनों के तीनों उपदेशों को भले ही विभाजित किया जा सकता हो, पर इन उपदेशों की वास्तविक तिथियाँ महत्त्वहीन हैं।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एक ऐसे दृष्टिकोण को न अपनाना जो दम्भपूर्ण पांडित्यपूर्ण  अवधारणाबद्ध पूर्वग्रह से युक्त हो और जो केवल इतिहास को ही सच मानता हो और यह भी मानता हो कि बाद में आने वाले लोगों ने ही समस्त अवधारणाओं को विकसित किया। यह बौद्ध धर्म नहीं है। बुद्ध ने केवल प्रामाणिक बौद्ध धर्म ही सिखाया था। ऐसे में क्या विचारों के विकास की श्रृंखला का अध्ययन या सृजन करना, या किसी प्रकार का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य अपनाना उपयोगी होगा? किसी विचार के विकास या प्रगति को समझने के लिए क्या किसी निर्धारित कालखंड के दौरान बुद्ध की जो पहचान है, वह पहचान की अवधारणा हमारे काम आएगी?

समय के अनुक्रम को परिभाषित करने का एक तरीका है विकास या प्रगति की मात्रा को नापना, और दूसरा है अधःपतन की गति को नापना। दोनों ही तरीक़े समान रूप से वैध हैं क्योंकि दोनों एक निश्चित चिंतन पद्धति के संदर्भ में संयोज्य हैं। या तो आप इसे केवल किसी मनगढ़ंत बात के रूप में देख सकते हैं, या फिर व्याख्येय अथवा निर्णायक वैधता प्रदान करने की चेष्टा के रूप में - "बुद्ध के कथन का यही सही तात्पर्य है"।

यदि हम यह पूछें कि इतिहास का उद्देश्य, यानी विचारों के विकास के इतिहास के सृजन का उद्देश्य क्या है तो इस प्रश्न का हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। फिर भी हम इतना तो कह सकते हैं कि हमारी चिंतन पद्धति के लिए, जो रैखिक है, यह इस मायने में उपयोगी है कि यह हमें अपनी अवधारणागत परिधि के भीतर उपलब्ध सामग्री को समझने में सहायता करता है। हमारे लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि हम छिद्रान्वेषी न बनें और, बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण से, यह न कहें कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण को अपनाना सामग्री को संयोजित करने के बौद्ध-धर्मी तरीके से कहीं अधिक वैध है।

यहाँ, जब हम रैखिक समय का उल्लेख करते हैं, तो हम उस समय की बात कर रहे हैं जिसका एक निश्चित आरम्भ है, जिस आरम्भ का सृजन या तो कोई उच्चतर सत्त्व या फिर कोई महा विस्फोट करता है। इस आरम्भ का आगे चलकर या तो ब्रह्माण्ड के विध्वंस या किसी विराट विलय द्वारा अंत होता है, जिसके फलस्वरूप समय समाप्त हो जाता है। यह बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण के ठीक विपरीत है जिसमें न कोई आदि है न अंत। अपितु, अगला महा विस्फोट, महा विलय, या फिर शून्यता प्राप्ति पर्यन्त लगातार विस्तार तक - यह अ-रेखीय रूप से लगातार चलता रहेगा।

रेखीय व अ-रेखीय के विषय में परस्पर भिन्न दृष्टिकोण बौद्ध-धर्म की सामग्री के अध्ययन के लाभ को रेखांकित करते हैं, क्योंकि वह अपनी संस्कृति विनिर्दिष्ट विचार-पद्धति को पहचानने में हमारी सहायता करते हैं। यहाँ "विनिर्दिष्ट" शब्द महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह दर्शाता है कि केवल अपनी संस्कृति के प्रभाव के कारण ही हम इस प्रकार सोचते हैं, पर यथार्थ तो यह है कि ब्रह्माण्ड तथा हमारे अनुभवों को परखने के अनेकानेक अन्य दृष्टिकोण भी हैं। प्रायः ऐसा होता है कि हम अपने ही दृष्टिकोण से पूर्णतया परिचित होते हैं और इस संभाव्यता की ओर ध्यान ही नहीं देते कि ब्रह्माण्ड को परखने का कोई अलग दृष्टिकोण भी हो सकता है, फिर उसके समान रूप से वैध होने की तो बात ही छोड़िए! अतः बौद्ध धर्म जैसी भिन्न चिंतन पद्धति हमें सामग्री को संयोजित करने के मार्गों के प्रक्षेपणों को पहचानने में सहायता करती है। "एकल सत्य," "ऊर्ध्वारोहण," या "क्षरण" की धारणाएँ केवल मन की उपज हैं, समझने के मार्ग हैं - वे अनिवार्य रूप से सार्वभौमिक नहीं हैं और न ही उनका सत्य के रूप में "कहीं पृथक" अस्तित्व है।

चित्तमात्र के दृष्टिकोण के अनुसार, "वह वैसा ही है जैसा हमें प्रतीत होता है।" परिस्थितियाँ प्रत्येक व्यक्ति को उसकी अपनी संस्कृति के आधार पर अलग-अलग प्रतीत होती हैं। उदाहरण के लिए, पारिवारिक उपचार में एक ही परिस्थिति-विशेष माता, पिता, एवं संतानों को अलग-अलग रूप से प्रतीत होती है। जब हम इस बात पर खुले मन से विचार करने के लिए तैयार हो जाएँगे कि विभिन्न उद्देश्यों के लिए सामग्री को संयोजित करने और समझने के विभिन्न तरीके हैं, तो अपनी दैनिक समस्याओं से निपटने के लिए हमारे पास बहुत सारे साधन भी जुट जाएँगे। अर्थात्, अन्य संभावनाओं पर विचार करने पर हमें यह पता चलता है कि हो सकता है कि हम अपनी संस्कृति से अनुकूलित हो गए हों और एक पृथक परिप्रेक्ष्य हमें एक बेहतर समाधान की ओर ले जाने में सहायक हो सके। अथवा यह भी हो सकता है कि हम विभिन्न दृष्टिकोणों के समन्वय के द्वारा एक अन्य मनःसंहिति ही जुटा लें।

हमारी संस्कार-बद्धता हमें एक निश्चित तरीके से सोचने पर विवश करती है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हमें यह सोचकर अपनी संस्कृति के बारे में निर्णयकारी मनोभाव अपना लें कि हमारी संस्कृति उत्कृष्ट है और दूसरों की अपकृष्ट, अथवा स्थिति इससे विपरीत है। हमारा पालन-पोषण सन्दर्भ-विशिष्ट होता है और किसी का भी लालन-पालन सन्दर्भ के बाहर नहीं होता। पर ऐसा भी नहीं है कि हम अपने अनुकूलन तक सीमित होकर रह जाएं, क्योंकि बात यह है कि अलग-अलग विषयों को परखने और समझने के लिए अनेक उपयोगी तरीके होते हैं।

बुद्ध के निधन के बाद

यदि हम इतिहास के पश्चिमी दृष्टिकोण की ओर मुड़ें तो बुद्ध के निधन के बाद उनके शिष्यों को उनके द्वारा सिखाई गई अति विस्तृत सामग्री की विशाल मात्रा से निपटना पड़ा, जिसमें से कुछ भी लिखित रूप में नहीं था। बौद्ध-धर्मी जगत की विभिन्न विचारधाराओं और लेखकों की माने तो इस सामग्री की गति संबंधी अलग-अलग वृत्तांत हैं। अलग-अलग लोग विविध घटनाओं को याद करते हैं और अपनी-अपनी कहानियां या वृत्तांत अपने छात्रों या संतानों आदि को सुनाते हैं। ऐसे में विविध प्रकार की घटनाओं के विभिन्न वृत्तांतों के कारण केवल एक संभावना या "एकल सत्य" मिल पाना असंभव है।

बुद्ध के प्रमुख शिष्यों ने बताया कि जिन लोगों ने शिक्षाओं को लिखित रूप दिया वे सभी अर्हत थे। पर हम इस बात को दृढ़तापूर्वक नहीं कह सकते कि सभी पाँच सौ अर्हत ही थे, अर्थात् सभी जीवनमुक्त सत्त्व थे। कहा जाता है कि ये पाँच सौ अर्हत एक साथ आए और बुद्ध ने जो कुछ भी सिखाया था उसे शब्दशः अपनी स्मरण-शक्ति की सहायता से सुना गए।

यहाँ यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि बुद्ध के निधन के लगभग चार सौ वर्ष तक उनकी शिक्षाओं को लिखित रूप नहीं दिया गया था। सर्वप्रथम थेरवाद सम्प्रदाय की व्याख्या ही लिखी गई थी, वह भी पालि में, और अन्य सम्प्रदायों की व्याख्याओं को उससे भी बाद में लिखित रूप दिया गया। इसीलिए शांतिदेव ने कहा, "हम जिन बातों को अपनी स्मृति से कहते हैं, यदि आप उनकी सटीकता पर प्रश्न उठाते हैं, तो हम आपकी बातों की सटीकता पर भी प्रश्न उठा सकते हैं।" हम यह बात निश्चयपूर्वक तो नहीं कह सकते कि अर्हतों को सारी बातें शब्दशः याद थी क्योंकि शिक्षण सामग्री बृहत् मात्रा में थी। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि पहले मौखिक रूप से प्रेषित की गई सामग्री को बाद में लिखित रूप दिए जाने की यह स्थिति बौद्ध धर्म के लिए कोई निराली बात नहीं है। वस्तुतः विश्व के कई धर्मों में उस धर्म के संस्थापक की शिक्षाओं को पहले पहल लिखा ही नहीं जाता था, अपितु उन्हें याद किया जाता था और कहीं बाद में जाकर लोग अपनी याद्दाश्त के सहारे उन्हें लिखित रूप देते थे।

लिखित भाषा और याद करना 

लिखित भाषा के इतिहास के संदर्भ में, हम यह पूछ सकते हैं कि हम लिखित भाषा का विकास क्यों करने लगे? कई अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, इसे प्रमुखतः सैन्य प्रयोग के लिए विकसित किया गया था, जैसे सेना के किसी अन्य भाग को कुछ आदेश आदि भेजने के लिए, या प्रशासनिक प्रयोजन के लिए। प्रारंभ में, विशेष रूप से भारत में, लिखित भाषा का उपयोग कभी भी दार्शनिक या आध्यात्मिक विषयों के लिए नहीं किया जाता था। इसका उपयोग केवल व्यावहारिक प्रयोजन के लिए ही किया जाता था, जैसे कि व्यापारीगण, जो यह लिखते थे कि उन्होंने क्या बेचा और उसका मूल्य क्या था।

यह जानने के लिए कि क्या लोग उन दिनों वास्तव में इतना अधिक याद कर सकते थे या नहीं हम आजकल के तिब्बतवासियों को ही देख सकते हैं। तिब्बती लोग अपने ग्रंथों के सहस्रों पृष्ठों को कंठस्थ कर लेते हैं और बाद में उसे धड़ल्ले से सुना भी देते हैं। सबसे अच्छा उदाहरण तो स्वयं परम पावन दलाई लामा ही हैं, जिन्होंने विपुल सामग्री कंठस्थ कर ली है, जिसमें से वे किसी भी समय कुछ भी उद्धृत कर सकते हैं। इसलिए, यह कोई बड़ी बात नहीं है कि जब लोगों के पास न पुस्तकें होती थीं और न ही उनकी कोई अवधारणा, तो सीखने का एकमात्र तरीका होता था सब कुछ कंठस्थ कर लेना।

हमारे लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि, कंप्यूटर और इंटरनेट तो दूर, यदि किताबें ही न होतीं और यदि हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली पूर्ण रूप से श्रवण एवं स्मरण - एक तरह से इसका अर्थ है याद करना - पर ही आधारित होती तो क्या होता। कंठस्थ करने की आवश्यकता का तात्पर्य यह है कि इन उपदेशों का पाठ केवल एक बार नहीं बल्कि योजनाबद्ध तरीके से बार-बार किया जाता। यह आवृत्ति कुमार अवस्था के शिष्यों के लिए सहायक सिद्ध होती, क्योंकि शिक्षाओं के बार-बार श्रवण के द्वारा वे उनका अनवरत पाठ और अभ्यास करते और उन्हें सीखते। शिक्षाओं के श्रवण और स्मरण से ही शिष्य उन पर विचार करते और उनके अर्थ को समझने का प्रयास करते।

बौद्ध संस्थानों के तिब्बतियों में आज भी शिक्षा प्रणाली के तहत कंठस्थ करना विद्यमान है। भले ही अब छात्रों के पास पुस्तकें हैं, फिर भी वे उन्हें आज भी पढ़कर रटते रहते हैं। वास्तव में, सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली कुमारावस्था के छात्रों की कंठस्थ करने की असाधारण क्षमता का लाभ उठाने की ओर उन्मुख है। बाल्यावस्था में हम बच्चों की कविता जैसी अनेक चीज़ों को कंठस्थ कर सकते हैं और कई वर्षों बाद भी वे याद रह जाती हैं; जबकि पिछले कल की बात, जैसे टेलीफोन नंबर, को याद रखना बहुत कठिन होता है - दीर्घकालिक स्मरण-शक्ति  हमेशा अल्पकालिक स्मरण-शक्ति से कहीं बेहतर होती है।

तिब्बती शिक्षा प्रणाली ऐसी है कि तेरह साल की उम्र तक छात्रों को कोई बात समझाई नहीं जाती - उन्हें सब कुछ केवल कंठस्थ करना पड़ता है। कुछ पश्चिमी लोगों को ऐसा लग सकता है कि यह असंतोषजनक है और अध्ययन की "मध्यकालीन प्रणाली" है, परन्तु ऐसा भी तर्क दिया जा सकता है कि अध्ययन की मध्यकालीन प्रणाली के भी तो अपने फ़ायदे हैं। पाठ को कंठस्थ कर लेने के बाद छात्र इंटरनेट या पुस्तकालयों पर पूरी तरह से निर्भर नहीं रह जाता। उसे बातें याद रह जाती हैं, और पुस्तकों या इंटरनेट को बार-बार देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

प्रथम बौद्ध परिषद

प्रथम परिषद का आयोजन बुद्ध के स्वर्गारोहण के बाद मगध राज्य के राजगृह में किया गया। ध्यान दें कि ‘काउंसिल’ अर्थात ‘परिषद’ एक पश्चिमी शब्द है जिसका अर्थ है निर्वाचित शासी निकाय। पर यहाँ इस शब्द का अर्थ है एक ऐसा सम्मेलन जिसका उद्देश्य है लोगों का एकत्रित होकर धर्मग्रंथों का पाठ करना तथा यह सुनिश्चित करना कि उसमें किसी प्रकार की अशुद्धियाँ न हों।

पहली परिषद में पाँच सौ अर्हतों ने भाग लिया। इन पाँच सौ में से तीन उत्कृष्टतम ने बुद्ध की शिक्षाओं के तीन प्रमुख भागों में से एक भाग का पाठ किया। आनंद, बुद्ध के चचेरे भाई (परिवार के रिश्तेदार का होना उस समय भी एक प्रथा थी और आज भी यह तिब्बती परंपरा में पाई जाती है) की ऐसी तीक्ष्ण स्मरणशक्ति थी कि उनके मन में बातें चित्र के समान अंकित हो जाती थी, अतः उन्होंने सभी सूत्रों को कंठस्थ कर लिया था। ईर्ष्या के कारण महाकश्यप, एक प्रौढ़ पर अपेक्षाकृत नवीन भिक्षु (श्रामणेर), यह नहीं चाहते थे कि आनंद वहाँ उपस्थित हों, परन्तु आनंद की ऐसी तीक्षण स्मृति के कारण अन्य अर्हतों ने उन्हें सूत्र पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सूत्र साधना के प्रधान विचार होते हैं, और वे विशेष रूप से एकाग्रता से सम्बन्धित होते हैं।  

एक वृत्तांत के अनुसार महाकाश्यप ने जिसका पाठ किया था वह अभिधर्म शिक्षाओं का भाग था। अन्य परंपराओं का मानना है कि महाकश्यप ने परिषद की केवल अध्यक्षता की थी और बुद्ध द्वारा सिखाई गई अभिधर्म शिक्षाओं का पाठ उस परिषद में नहीं किया गया, बल्कि सम्मेलन में उपस्थित विभिन्न अर्हतों ने मिलकर बाद में उनका संकलन किया था। यहाँ अभिधर्म का अनुवाद "ज्ञान के विशेष विषयों" के रूप में किया गया है और वह तत्त्वमीमांसा से संबंधित है - ब्रह्मांड का ज्ञान, ब्रह्मांड की बनावट, उसमें रहने वाले विभिन्न प्रकार के सत्त्व, जीव-विज्ञान का विषय, इत्यादि। अध्ययन का यह क्षेत्र हमें अपनी "प्रज्ञा" (सविवेकी सचेतनता) का विकास करने में सहायता करता है ताकि हम अपने अनुभवों के विभिन्न कारकों को समझ सकें।

भिक्षु उपालि ने मठीय समुदाय हेतु अनुशासन के नियमों (विनय) का पाठ किया था। दोनों भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए संवर हैं, और श्रामणेर/श्रमणेरिकाओं, नवसाधक एवं पूर्णतः अभिषिक्त भिक्षु/भिक्षुणियों इत्यादि की श्रेणियाँ भी हैं। बुद्ध द्वारा के नियम बनाने का तात्पर्य था समुदाय में अप्रिय घटनाओं या समस्याओं को हल करना, न कि "आज्ञाकारिता" को लागू करना। ईसाई मठवाद के प्रमुख संवरों में से एक है आज्ञाकारिता - यह बौद्ध मठीय प्रणाली में नहीं है। बाइबिल या प्राचीन यूनान के दैवी या शाही क़ानून और पश्चिमी न्यायिक विधि प्रणाली में विधायिकाएँ होती हैं जिनका अनुकरण और अनुपालन किया जाना अनिवार्य है। इन संदर्भों में आज्ञापालन "अच्छा होने" का पर्याय है जबकि अवज्ञा दंडनीय है। जब हम पश्चिमी "न्यायिक" - न्याय प्रशासन - प्रणाली को देखते हैं, तो हम यह पाते हैं कि "न्याय" जैसी कोई अवधारणा है ही नहीं। क़ानून का पालन करने वाला अच्छा होता है; यदि वह अवज्ञा करे तो "दोषी"। अतः अपराध बोध की अवधारणा पूर्णतया पश्चिमी दृष्टिकोण है।

इसके विपरीत, बौद्ध-धर्मी नैतिक शास्त्र समस्या को समझने पर आधारित है, न कि आज्ञापालन पर। जब कोई समस्या या कठिनाई उत्पन्न होती है, तो समस्या को दोबारा होने और अधिक कठिनाइयाँ पैदा करने से रोकने में सहायता करने के लिए किसी प्रकार का समाधान या नियम बनाया जाता है। यह विधि आजकल किसी भी संगठन या समाज के लिए प्रासंगिक है जहाँ तथाकथित कानून या नियम होते हैं जिनका नागरिकों को सख्ती के साथ पालन करना पड़ता है। पर सच तो यह है कि यदि लोग इन नियमों के पीछे का कारण या मंशा समझ लेते तो पुलिस की कोई आवश्यकता ही न होती और समाज सुचारू रूप से कार्य करता।

पहली परिषद की अध्यक्षता मगध के एक प्रतिष्ठित और वयोवृद्ध ब्राह्मण महाकश्यप ने की थी। वे वृद्धावस्था को प्राप्त होने के बाद ही भिक्षु बने थे। अपने निधन से पहले बुद्ध ने महाकाश्यप को अपना चीवर देकर बदले में उस ब्राह्मण का नया चीवर ले लिया था। बाद में इस कृत्य को बुद्ध द्वारा अपने शिक्षण क्रम के प्राधिकार को महाकाश्यप को हस्तांतरित करने के संकेत के रूप में मान लिया गया, और इसलिए उन्हें लगा कि उन्हीं का संप्रभुत्व है।

परन्तु बुद्ध की यही मंशा सदा से रही है कि शिक्षाओं के प्राधिकार को समतामूलक रखा जाए, यानी कोई एक व्यक्ति प्रभारी न रहे। फिर भी पूरे बौद्ध धर्म के इतिहास में इन दो मतों के बीच निरंतर द्वंद्व रहा है, जिसमें एक ओर है एक केंद्रीय आप्त व्यक्ति जो शिक्षाओं को एक सुनियोजित रुप देता है और जिसके पास एक निश्चित अधिकार होता है, और दूसरी ओर है एक लोकतांत्रिक, समतामूलक मठीय समुदाय जिसके नेताओं को मतदान द्वारा चुना जाता है और जहाँ निर्णय मिलजुल कर लिए जाते हैं। यह आजकल तिब्बती मठीय समुदाय में भिक्षुणियों की पूर्ण दीक्षा (उपसम्पदा) के सन्दर्भ में सुस्पष्ट है। इस प्रकार के संवरों की परम्परा तो भंग हो गई है पर उन्हें पुनःस्थापित करने की दिशा में एक सुदृढ़ आंदोलन चल रहा है। परन्तु परम पवन दलाई लामा उसे इतनी सरलता से पुनःसंस्थापित नहीं कर सकते। बुद्ध की शर्त यह थी कि इस प्रकार के निर्णय किसी केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा नहीं लिए जा सकते, बल्कि वरिष्ठ सदस्यों की एक परिषद द्वारा लिए जाने चाहिए और उस निर्णय से सभी को सहमत भी होना चाहिए। बौद्ध मठीय समुदाय में सर्वसम्मति से पारित किए गए एक महत्त्वपूर्ण निर्णय को व्यवहार में लाना वास्तव में कठिन है, और वह विषय आज भी प्रासंगिक है, उदाहरण के रूप में यूरोपीय संघ। बौद्ध-धर्मी समुदाय में बुद्ध ने पितृ सत्ताधारियों के बावजूद स्वतंत्र चिंतन को प्रोत्साहित किया, और चूँकि कई रीति-रिवाजों का प्रवर्तन सख़्ती से नहीं किया गया, विभिन्न क्षेत्रों में अनेक व्याख्याएँ विकसित हुईं।

बुद्ध के निधन के बाद महाकश्यप ने कार्यभार संभाला और बुद्ध की शिक्षाओं की समीक्षा करने और उन्हें संहिताबद्ध करने के लिए परिषद की स्थापना की। पहली परिषद की शुरुआत में आनंद ने मगध के प्रधान मंत्री से भेंट की और लोकतांत्रिक समतावादी व्यवस्था को स्थापित करने के बुद्ध के उद्देश्य के बारे में उन्हें अवगत किया, परन्तु प्रधान मंत्री मगध के पश्चिम में स्थित अवंती राज्य पर आक्रमण करने की तैयारी में व्यस्त थे।

यदि अनुमान लगाया जाए तो ऐसा लगता है कि महाकश्यप एक शक्तिशाली नेता थे और शिक्षाओं को संहिताबद्ध करने की उनकी पहल ने संभवतः उस अशांति भरे काल में बौद्ध-धर्मी व्यवस्था के अस्तित्व को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। महाकाश्यप के बाद पितृ-सत्ताधारियों का एक ताँता - एक वंश परंपरा - बन गया और ये कुलपति सम्पूर्ण बौद्ध-धर्मी समुदाय के प्रभारी बन गए। तिब्बती लोग सात पितृ-सत्ताधारिओं की परंपरा को मानते हैं, जबकि ज़ेन (जापानी) परंपरा में इनकी गिनती 28 है जिसमें वे बोधिधर्म को अंतिम कुलपति मानते हैं जिन्होंने ज़ेन को चीन में लाकर चीनी चान परंपरा की शुरुआत की थी। बाद में, इन परंपराओं की शाखाओं ने कोरिया, जापान आदि देशों की यात्रा की। यहाँ दक्षिण-पूर्वी एशिया के थेरवाद देशों में राष्ट्रीय कुलपतियों ने उत्तराधिकारिता की परम्परा शुरू कर दी, जैसे "थाईलैंड के भव्य कुलपति", आदि। तिब्बत में दलाई लामा संस्था से कुलपति के एक समरूप पद की स्थापना हुई। परन्तु कुलपति और दलाई लामा दोनों में से किसी को भी पोप की तरह नहीं माना गया - अर्थात् वे भ्रमातीत हों तथा बुद्ध से सीधी तौर पर जुड़े हुए हों और जिनका मठीय व्यवस्था पर क़ानूनी रूप से पूर्ण अधिकार हों। इसके स्थान पर उनका यह उत्तरदायित्व रहा है कि वे समूचे समुदाय को एक बनाए रखें और मठीय एवं गृहस्थ समुदायों की देखभाल करें।

बुद्ध की शिक्षाओं के ऐतिहासिक विकास में एक रोचक बात यह हुई कि हीनयान परम्परा के विभिन्न सम्प्रदाय तितर-बितर हो गए। इन सम्प्रदायों में अभिधर्म की व्याख्याओं में थोड़ा-थोड़ा अंतर है, साथ ही विनय को भी उन्होंने अपने प्रयोजन के अनुसार रूपांतरित या परिवर्तित किया है। बड़ी बात यह है कि यह रूपांतरण भी एक लोकतांत्रिक तरीके से समुदाय के बड़े-बूढ़ों के द्वारा तय किया गया था न कि स्वेच्छाचारी ढंग से। बौद्ध धर्म के इन प्रधानों ने जैनियों के रिवाज को अपनाया था। जैन धार्मिक/दार्शनिक प्रणाली का आरम्भ बुद्ध से पचास वर्ष पहले हुआ था और बुद्ध ने इससे कई विचार ग्रहण किए थे। जैन मुनि अपने संवरों का हर दो सप्ताह पश्चात पाठ कर लेते थे क्योंकि वे लिखे नहीं जाते थे।

भिक्षुओं की सभा में विभिन्न शिक्षाओं का स्मृति से पाठ करने की यह प्रथा पहली परिषद के बाद ही बनी थी जहाँ भिक्षुओं ने मौखिक संचरण से उपदेशों के सही शब्दों को पहली बार सुना (उस समय उन शिक्षाओं को समझने की कोई आवश्यकता नहीं थी!) और सही ढंग से कंठस्थ किया। तिब्बती मठों में मौखिक संचरण आज भी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। सम्पूर्ण एशिया के पारंपरिक बौद्ध मठों में सूत्रों का सामूहिक पाठ करना एक मुख्य प्रथा है।

द्वितीय बौद्ध-धर्मी परिषद 

पहली परिषद के लगभग सौ साल बाद - समय के निर्धारण में अलग-अलग मत हैं कि वह या तो 386 ईसा पूर्व था या 376 ईसा पूर्व - वज्जी गणराज्य स्थित वैशाली में दूसरी परिषद आयोजित की गई थी।

दूसरी परिषद के मुख्य उद्देश्य, नामतः उप-समुदायों का बनना, सम्बन्धी अनेक व्याख्याएँ हैं। ध्यान दें कि "उप-समुदायों के बनने " का अर्थ यह नहीं है कि समुदाय में फूट पड़ गई, जैसे देवदत्त ने बुद्ध के साथ किया था। ऐसा नहीं था कि लोग एक दूसरे से इतनी घृणा करने लगे कि एक दूसरे को जान से मारने की नौबत आ गई; यह केवल प्रथाओं को लेकर असहमति थी। एक व्याख्या यह थी कि विचाराधीन दस विवादास्पद विषयों में से मुख्य विषय यह था कि क्या भिक्षु/भिक्षुणियों को मठीय नियमानुसार स्वर्ण (धन) संभालने की अनुमति थी या नहीं, इस पर अलग-अलग विचार थे।

जिस समूह की यह उक्ति थी कि बुद्ध यह चाहते थे कि भिक्षु/भिक्षुणी स्वर्ण को छुए ही नहीं, वह था थेरवाद। वे अत्यंत कठोर और अनुदार थे। थेरवाद का अर्थ है "श्रेष्ठजनों के अनुसार प्रतिपादनकर्ता"। थेरवाद परंपरा में आज भी भिक्षु/भिक्षुणियों को धन संभालने या ले जाने की अनुमति नहीं है, वित्तीय मामलों के लिए उन्हें परिचारकों या नवागतों को ही रखना होगा। इस बात को लेकर महासंघिका, जिसका अर्थ है "बहुसंख्यक समुदाय", अलग हो गई और कहा कि भिक्षु/भिक्षुणियों का स्वर्ण संभालना पूर्णतया उचित है।

सोने को संभालने की बात इसलिए विवादास्पद है क्योंकि कुछ भिक्षुओं ने धन संचित करना शुरू कर दिया था जिससे समतावादी माने जाने वाले समुदाय में समस्याएँ पैदा होने लगी थीं। यह आजकल विभिन्न मठीय समुदायों में भी एक समस्या है। उदाहरण के लिए थाईलैंड थेरवाद परंपरा में धन का लेन-देन बहुत कड़ी निगरानी में किया जाता है और भिक्षु इसे छू भी नहीं सकते। थेरवाद देशों में भिक्षु और भिक्षुणियाँ किसी भी वस्तु के लिए भुगतान नहीं करते। उन्हें भिक्षा मांगकर ही अपना जीवन यापन करना पड़ता है, और उन्हें जो भी भोजन मिल जाए उसे स्वीकार कर लेना होता है। वे गृहस्थ जो मठीय समुदाय की सेवा करते हैं, अपना भोजन भिक्षापात्रों में रखकर पुण्य कमाते हैं। तिब्बत में जहाँ बहुत ठंड होती है यह स्थिति अलग है, और वहाँ लोग भिक्षार्जन हेतु अधिक दूर नंगे पाँव नहीं चल सकते, विशेष रूप से सर्दियों में। इसलिए पारंपरिक तिब्बती प्रणाली में लोग मठों में भोजन ले जाते हैं, जिसके बाद वह भोजन भिक्षु/भिक्षुणियों में वितरित किया जाता है। ऐतिहासिक क्रम में अलग-अलग देशों में इसके नियम अलग-अलग प्रकार से विकसित हुए हैं।

एक अन्य व्याख्यानुसार, दूसरी परिषद में अर्हतों, अर्थात मोक्ष प्राप्त सत्त्वों, के सम्बन्ध में चर्चा की गई थी। ये सत्त्व सर्वज्ञ नहीं थे। जैसे, यदि वे सड़क पर अपना रास्ता भटक जाते तो उन्हें सही मार्ग पूछना ही पड़ता। तथापि, इस सीमित ज्ञान के पश्चात भी थेरवादियों ने इस बात को स्वीकार किया कि वे लोग धर्म के बारे में पूर्ण ज्ञानी थे; यानी वे दूसरों को शिक्षा देना जानते थे एवं उन शिक्षाओं का अर्थ भी जानते थे। थेरवादियों का दृढ़ विश्वास था कि अर्हत, बुद्ध के समान, कामना जैसे क्लेशों से पूर्णतया मुक्त थे।

परन्तु महासंघिकों के समूह ने, निस्संदेह अपने अनुभव के आधार पर, यह कहा कि अर्हतों को उनके सपनों में निश्चत रूप से प्रलुब्ध किया जा सकता है। उन्हें भी कामोद्दीपक सपने आ सकते हैं और नैशिक उत्सर्जन हो सकता है। उन्होंने इस तथ्य पर सवाल उठाया कि यदि अर्हतों को कामोद्दीपक सपने प्रभावित कर सकते हैं तो क्या वे तब भी अर्हत हो सकते हैं। यह एक अत्यंत व्यावहारिक विषय था क्योंकि यह साधकों के अनुभवों से उत्पन्न हुआ था। महासंघिकों ने कहा कि बुद्ध स्वप्नों से पूर्णतया अप्रभावित थे। इस कथन के परिणामस्वरूप बुद्ध और अर्हतों के बीच के अंतर और अधिक रेखांकित हुआ। थेरवादियों के लिए अर्हत और बुद्ध के बीच कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं था। उनके लिए यह अंतर केवल इतना ही था कि बुद्ध ने व्यापक श्रोताओं को शिक्षा दी, जबकि अर्हतों के श्रोताओं की संख्या सीमित थी।

यदि हम महासंघिक समूह के ऐतिहासिक विकास को देखें, तो महासंघिकों का एक भाग मध्य भारत से उत्तर पश्चिम की ओर चला गया, जो अभी उत्तरी पाकिस्तान में है। एक अन्य समूह भारत के पश्चिमी तट के आधे रास्ते दक्षिण की ओर गया, जो आज का आंध्र प्रदेश है। विशेष रूप से आंध्र के इसी क्षेत्र में पहली बार महायान का उदय हुआ, और बाद में तंत्र का विकास भी वहाँ और पाकिस्तान दोनों जगहों में हुआ। ऐतिहासिक रूप से बुद्धजन की सर्वज्ञता की अवधारणा क्रमशः बढ़ती गई; अर्थात् यह मत कि बुद्धजन को प्रत्येक विषय का एक ही समय में सम्यक् ज्ञान रहता है और वे अनंत रूपों में एक साथ प्रकट होकर सभी भाषाओं में पढ़ा सकते हैं और सभी भाषाओं को समझ भी पाते हैं। इस तरह बुद्ध की इस अवधारणा का लगातार विकास होते-होते वह महायान के दृष्टिकोण तक पहुँच गया जिसके अनुसार बुद्धजन बुद्ध के लगभग सभी गुणों से युक्त होते हैं।

तृतीय बौद्ध परिषद 

कुछ स्रोतों ने तो तीसरी बैठक को परिषद के रूप में दर्ज ही नहीं किया। जिन स्रोतों ने इसका वर्णन किया है वे कहते हैं कि यह तीसरी परिषद दूसरी परिषद के लगभग एक सौ पचास वर्षों के बाद आयोजित हुई थी। विभिन्न मतों के अनुसार तीसरी परिषद की तिथि 237 ईसापूर्व या फिर 247 ईसापूर्व के लगभग थी।

इसके अस्सी वर्ष पूर्व उत्तरी भारत में मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई थी, और इस प्रकार तीसरी परिषद के समय प्रसिद्ध सम्राट अशोक का शासन काल था। यह सम्राट बड़ा ही क्रूर था और पहले पहल तो उसने कई युद्धों का नेतृत्व किया जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए। परन्तु बाद में जब उसने बौद्ध शिक्षाओं को सुना तो उसे पश्चाताप हुआ और वह बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं का एक प्रबल अनुयायी और समर्थक बन गया, और अपने साम्राज्य और आस-पास के क्षेत्रों में बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं के प्रचार हेतु विभिन्न प्रचारकों को भेजा। अशोक के शासन-काल में ही बौद्ध धर्म पहली बार श्रीलंका के साथ-साथ वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान, कश्मीर, म्यान्मार आदि में भी पहुँचा।

एक विवरण के अनुसार तीसरी परिषद का मुख्य ध्यान थेरवादी शिक्षाओं की शुद्धता को बनाए रखने पर केंद्रित था क्योंकि विभिन्न समूह अलग-अलग विचारों के साथ एकत्र हुए थे। इसलिए, परिषद के शीर्ष भिक्षु ने उन सभी अलग-अलग प्रचलित विचारों पर विश्लेषणात्मक खंडन लिखा जिन्हें वे बौद्ध शिक्षाओं की अशुद्ध व्याख्या मानते थे। अभिधर्म पर जिनका पृथक बोध या दृष्टिकोण था - अतीत, वर्तमान और भविष्य (सैद्धांतिक विषय) में वस्तुएँ किस प्रकार विद्यमान होती हैं - उन सबने एक अलग सम्प्रदाय, "सर्वास्तिवाद परंपरा," का गठन किया और थेरवादियों से अलग हो गए।

सर्वास्तिवादियों के अनुसार सभी पदार्थ कणों या परमाणुओं से (यहाँ हम इन शब्दों का उनके ग़ैर-पश्चिमी अर्थ में प्रयोग कर रहे है) गठित हैं, और इसलिए हम यह कहते हैं कि सब कुछ विद्यमान रहता है - "सर्वस्ति" संस्कृत शब्द है जिसका का अर्थ है सर्व-विद्यमान। उनका दृढ़ मत है कि ब्रह्मांड में पदार्थ (कण) मूल रूप से अतीत, वर्तमान, और भविष्य में समान रूप से विद्यामान रहते हैं; केवल उनका विन्यास बदल जाता है। उदाहरण के लिए, शरीर के परमाणु माता-पिता के शुक्राणु और अंडाणु के परमाणुओं से आते हैं। ये परमाणु वही रहते हैं जो शरीर को दफ़न करने पर पृथ्वी में लीन हो जाते हैं या शरीर का दहन करने पर राख बन जाते हैं। तो यही है उस अवधारणा का आधार कि आलम्बन भूत, वर्तमान, और भविष्य में भी विद्यमान रहते हैं। आजकल यह विषय आधुनिक विज्ञान में भी प्रासंगिक हो गया है। हम अब दो बातें हैं कि क्या ब्रह्मांड में पदार्थ और ऊर्जा की कोई निश्चित मात्रा अपने रूप बदल-बदलकर सदा बनी रहती है, या फिर क्या नए पदार्थ और ऊर्जा का पुनः-पुनः निर्माण होता जाता है।

थेरवादी सर्वास्तिवादियों के इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे। इसके विपरीत उन्होंने केवल वर्तमान पर बल दिया और कहा कि एकमात्र वर्तमान दृश्य-प्रपंच का ही अस्तित्व है। उनके दृष्टिकोण से पूर्वकालीन घटनाएँ वह हैं जो अभी अनिर्णीत हैं, जैसे कि पति-पत्नी के बीच का विवाद जो अतीत में हुआ था पर आज भी जीवंत है क्योंकि वह अभी भी उनके विवाह-विच्छेद का कारण बन सकता है।

तीसरी परिषद के बाद कई शताब्दियों के दौरान कई सम्प्रदाय, अपनी समझ-बूझ की भिन्नता के कारण, एक के बाद एक अलग होते चले गए: कुछ तो थेरवाद, कुछ महासंघिक, और कुछ सर्वास्तिवाद सम्प्रदायों से। लगभग पचास वर्ष बाद धर्मगुप्तक सम्प्रदाय भी अलग हो गया। इस सम्प्रदाय में बुद्धजनों के पद को उन्नत किया गया, इस बात पर बल दिया कि चढ़ावे को पहले स्तूपों को - अर्थात वे स्मारक भवन जिनमें बुद्ध या फिर किसी उच्च सिद्धि प्राप्त सत्त्व के अवशेष रखे गए हैं - अर्पित किया जाना चाहिए, उसके बाद बुद्धजनों को, और अंत में मठवासियों को, जिन्हें सबसे निम्न स्तर का माना गया है। इस तरह यहाँ भक्ति के पक्ष को केंद्रीय महत्त्व प्राप्त हो गया।

धर्मगुप्तक सम्प्रदाय गांधार - वर्तमान उत्तरी पकिस्तान एवं पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान क्षेत्र - का मुख्य हीनयान बौद्ध-धर्मी सम्प्रदाय था। इसी क्षेत्र में पहली शताब्दी ईसा पूर्व में बौद्ध शिक्षाओं को पहले पहल लिखित रूप दिया गया, जो गांधारी भाषा में थीं।

उस समय के मुख्य विषयों में से एक था "बुद्ध कौन थे या क्या थे?" हम यह समझ सकते हैं कि जैसे-जैसे शताब्दियाँ बीतती जाती हैं वैसे-वैसे किसी भी समुदाय (या "पंथ") के संस्थापक का अधिकाधिक महिमा मंडन होता जाता है। अन्य हीनयान परंपराओं (जो कुल मिलाकर अठारह हैं) को ही देख लीजिए, ईसा पूर्व की शताब्दियों में उनके विकास के दौरान बुद्ध इतने अतिमानवीय हो गए थे कि वे अनेक शक्तियों एवं सर्वज्ञ माने जाने लगे। इसलिए किसी अर्हत और बुद्ध के बीच का अंतर अधिक होता चला गया। यहाँ यह बात स्पष्ट है कि बुद्ध ने विभिन्न श्रोताओं को बड़ी कुशलतापूर्वक उस समय की आवश्यकताओं के अनुकूल भक्ति-युक्त धार्मिक साधना हेतु शिक्षा दी जो तत्कालीन ग़ैर-बौद्ध-धर्मी वांग्मय में स्पष्ट था। बुद्ध के अधिकाधिक उन्नत सत्त्व होने तथा बुद्ध एवं अन्य महान विभूतियों के स्तूपों, अवशेषों, और संस्मारकों की भक्ति पर अधिक ध्यान केंद्रित होना एक भक्तिपरक व्यक्तित्व की आवश्यकता की पूर्ती कर रहा था।

भक्ति के इस आयाम की प्रतिक्रिया के रूप में महायान ग्रंथों या सूत्रों ने पाठ और अध्ययन से प्राप्त होने वाले बड़े-बड़े लाभ, पुण्य, पर बल दिया। ऐतिहासिक रूप से महायान ग्रंथ सबसे पहले दक्षिण भारत के पूर्वी भाग, वर्तमान आंध्र प्रदेश क्षेत्र, में पहली और चौथी ईस्वी के बीच प्रकट हुए। यह वह क्षेत्र है जहाँ हीनयान के महासंघिक सम्प्रदाय का स्थानांतरण हुआ, और बुद्ध एक अतिमानवी व्यक्ति के रूप में स्थापित हुए जिसके फलस्वरूप बुद्ध तथा अर्हतों की सिद्धियों के बीच की खाई और चौड़ी हो गई। प्रारंभिक महायान सूत्रों में प्रज्ञापारमिता सूत्र  मुख्य हैं जो सभी दृश्य-प्रपंचों की शून्यता - धर्मचक्र का द्वितीय प्रवर्तन - पर है और जिस विषय पर बुद्ध ने गृद्धकूट पर प्रवचन दिया था।

महायान सूत्रों का ध्यान अतिरंजित भक्ति पर नहीं है जहाँ लोग स्मारकों पर केवल अगरबत्ती और मोमबत्तियां आदि जलाया करते हैं, इसके विपरीत वे ग्रंथों के अध्ययन और पठन की आवश्यकता पर अधिक बल देते हैं। इन सूत्रों में अध्ययन के लाभों को उल्लिखित संख्याओं के अनुसार लगातार दोहराया जाता है, जैसे कि किसी स्तूप पर को प्रसाद चढ़ाने की तुलना में ग्रन्थ का पठन और अध्ययन करने से तीन करोड़ साठ लाख गुणा अधिक पुण्य प्राप्त होता है। पर आठवीं शताब्दी ईस्वी के महान भारतीय बौद्ध-धर्मी गुरु, शान्तिदेव, ने कहा कि चढ़ावा चढ़ाना भी कोई व्यर्थ काम नहीं है।

भक्ति का यह आयाम धर्मगुप्तक सम्प्रदाय में भी है, जो सम्प्रदाय मध्य एशिया में अधिक विकसित हुआ। इस सम्प्रदाय के अनुयायियों ने "धारणियों" की रचना की। धारणी मूल रूप से एक लघु वाक्य या सूत्र है जिसका लगातार पाठ किया जाता है ताकि किसी विशेष शिक्षण पर अपना ध्यान केंद्रित रह सके - यह एक प्रकार की भक्ति है। धारणियों का प्रयोग उस समय विकसित हुआ जब हिंदू धर्म में भक्ति मार्ग का विकास हो रहा था। यह कहना मुश्किल है कि हिंदू धर्म ने बौद्ध धर्म को प्रभावित किया था या सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। हिंदुओं का हरे कृष्ण जैसे मंत्र का जाप और बौद्ध धर्मियों का धारणी का जाप दोनों एक ही समय में शुरू हुआ।

धर्मगुप्तक आंदोलन का यह भक्ति पक्ष चीनी बौद्ध धर्म में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जहाँ अनुयायी मंदिरों में लगातार धारणियों का पाठ करते हुए प्रवेश करते हैं और धूप और मोमबत्तियाँ जलाते हैं। चीन के अधिकांश बौद्ध-धर्मी सम्प्रदायों में अध्ययन पर प्रायः अधिक बल नहीं दिया जाता। इन धारणियों का न केवल बौद्ध धर्म के भक्ति पक्ष पर अपितु तंत्र के विकास पर भी प्रभाव पड़ा। इसलिए, उत्तरकालीन बौद्ध-धर्मी इतिहास में मंत्रों का पाठ, जो प्रायः धारणियों की तुलना में बहुत छोटे होते हैं, तांत्रिक साधना में लगातार दोहराया जाता है ताकि साधक को सम्बद्ध शिक्षण का अर्थ स्मरण रहे।

धर्मगुप्तक सम्प्रदाय के विकास से न केवल भक्ति पक्ष पर ध्यान बढ़ा, अपितु भिक्षु एवं भिक्षुणियों के मठीय संवरों की एक पृथक व्याख्या की रचना भी हो गई। यह परंपरा मध्य एशिया का भ्रमण करते हुए चीन तक पहुँची। चौथी और पाँचवीं शताब्दी में सर्वास्तिवाद से एक और समूह अलग हो गया, जिसे मूलसर्वास्तिवाद के नाम से जाना जाता है, और जिसके अनुशासन के मठीय नियमों का पालन आज तिब्बतवासी कर रहे हैं। इस तरह वर्तमान काल में मठीय उपसम्पदा की तीन मुख्य परम्पराएँ हो गई हैं: पहली, दक्षिण पूर्वी एशिया का थेरवाद; दूसरी, मूलसर्वास्तिवाद जो तिब्बत से होकर मंगोलिया और उसके आसपास के क्षेत्रों में गई; और तीसरी, धर्मगुप्तक, जो चीन और वहाँ से कोरिया, जापान से होती हुई वियतनाम पहुँची।

चौथी बौद्ध परिषद

दो अलग-अलग परिषदों को इकट्ठे "चौथी बौद्ध परिषद" कहा जाता है। पहली परिषद श्रीलंका में पहली शताब्दी ईसा पूर्व के अंत में थेरवाद परंपरा के अनुसार आयोजित की गई थी। उस समय भयंकर अकाल पड़ा था और कई भिक्षुओं की भूख से मृत्यु हो गई। इसलिए, उस समय तक मौखिक परंपरा से प्रेषित हो रही शिक्षाओं को संरक्षित करने के लिए लिखित रूप दिया गया। ये शिक्षाएँ पालि भाषा में लिखी गई जो थेरवाद की शिक्षाएं को प्रेषित करने वाली भाषा थी।

चौथी बौद्ध परिषद के दूसरे सम्मलेन की जहाँ तक बात है, कश्मीर और उत्तरी भारत में पहली शताब्दी ईस्वी के अंत में सर्वास्तिवाद सम्प्रदाय के कुमारलता ने सर्वास्तिवाद सूत्रों पर पूर्ण विश्वास स्थापित करने के लिए अभिधर्म ग्रंथों के अधिकार को अस्वीकार कर दिया। उनसे चली आ रही परंपरा को "सौत्रांतिक" कहा जाता है। साथ ही इसी कालखंड, अर्थात् पहली शताब्दी ईस्वी, में मध्य एशिया के कुषाणों ने गांधार, कश्मीर और उत्तरी भारत को अपने अधीन कर कुषाण वंश की स्थापना की। कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल में इस दूसरे सम्मलेन को "चौथी परिषद" का नाम देकर विमलमित्र की देख-रेख में आयोजित किया गया। उस सम्मलेन में परिषद के सदस्यों ने सौत्रांतिक के अभिकथनों को अस्वीकार कर दिया और महाविभास सूत्र  में सर्वास्तिवाद अभिधर्म शिक्षाओं को संहिताबद्ध किया। यह सर्वास्तिवाद के वैभाषिक प्रभाग का आधार बना। भारत में मठीय विश्वविद्यालयों में दोनों वैभाषिक और सौत्रांतिक उपदेश पढ़ाए जाते थे और यह आज भी तिब्बती मठों में पढ़ाए जा रहे हैं। एक केंद्रीय सत्ता के न होने के कारण अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से अलग-अलग व्याख्याएँ और मत उभर कर आए और इस प्रकार बौद्ध धर्म का विकास हुआ।

सारांश

बौद्ध शिक्षाओं के स्तरों के आधार पर तिब्बती/भारतीय लोग इतिहास को ग़ैर-रैखिक मानते हैं, जबकि पश्चिमी लोग इतिहास को रैखिक मानते हैं और ऐतिहासिक सामग्री को तिथियों और तथ्यों के आधार पर तार्किक रूप से व्यवस्थित करते हैं। इतिहास के पश्चिमी दृष्टिकोण से बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं को बुद्ध के सिखाने के बाद कई शताब्दियों तक लिखा नहीं गया, बल्कि उन्हें मौखिक रूप से प्रेषित किया जाता था, वे लगातार सुनाई एवं कंठस्थ की जाती थी - आज भी यह प्रथा प्रचलित है। सभी बौद्ध सम्प्रदायों के अनुयायियों के लिए शिक्षाओं का एक साथ पाठ करने और संभावित दोषों को पहचानने के लिए परिषदों की स्थापना की गई। पहली परिषद में पाँच सौ अर्हतों ने भाग लिया, जिनमें से प्रत्येक अर्हत ने बुद्ध की शिक्षाओं के प्रमुख भागों में से एक-एक भाग का पाठ किया। मठीय समुदाय के समतामूलक बने रहने के बुद्ध के संकल्प के बावजूद महाकश्यप ने इस परिषद का कार्यभार संभाला। महाकश्यप के अधिकार के अधीन शिक्षाओं को संहिताबद्ध किया गया और पितृ-सत्ताधारियों की वंश-परंपरा आरम्भ हुई।

द्वितीय परिषद का गठन दो विषयों पर विचार करने के लिए किया गया था। पहला विषय था कि मठवासियों को सोना संभालना चाहिए या नहीं। दूसरा विषय अर्हतों की कामना सम्बन्धी स्थिति के बारे में था। भिक्षुओं के बीच मतभेद के कारण मठीय समुदाय का थेरवाद और महासंगिक परंपराओं में बँटवारा हुआ।

सम्राट अशोक के शासन-काल में तीसरी परिषद की स्थापना करने का उद्देश्य था बौद्ध धर्म का विभिन्न सम्प्रदायों में विघटन एवं उनकी समृद्धि को देखते हुए शिक्षाओं की शुद्धता की जाँच करना और विभिन्न व्याख्याओं में सामंजस्य स्थापित करना। शिक्षाओं की व्याख्या में और अधिक मतभेदों के परिणाम स्वरूप सर्वास्तिवाद थेरवाद से अलग हो गया।

श्रीलंका में चौथी परिषद बौद्ध शिक्षाओं को लिखित रूप देने के लिए आयोजित की गई थी। कश्मीर में चौथी परिषद को आयोजित करने का उद्देश्य था सौत्रांतिक व्याख्याओं का परित्याग करते हुए सर्वास्तिवाद की वैभाषिक सिद्धांत प्रणाली का आधार बनी शिक्षाओं को संकलित करना।

इस प्रकार एक केंद्रीय सत्ता के अभाव में भिन्न-भिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ और मत प्रकट हुए और इस प्रकार बौद्ध धर्म का विकास हुआ।

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