सम्यक प्रयास, सचेतनता और एकाग्रता

संक्षिप्त विवरण

हम तीन अभ्यासों के बारे में विचार कर रहे हैं कि अष्टांगी मार्ग की साधना के माध्यम से ये तीनों अभ्यास हमारे रोज़मर्रा के जीवन में किस प्रकार उपयोगी हो सकते हैं। ये तीन अभ्यास हैं:

  • नैतिक आत्मानुशासन
  • एकाग्रता
  • विवेकी सचेतनता

नैतिक आत्मानुशासन विकसित करने के लिए हम सम्यक वाक, कर्म और जीविका का पालन करते हैं। अब हम एकाग्रता की साधना के बारे में चर्चा करेंगे जिसके लिए सम्यक प्रयास, सम्यक सचेतनता और सम्यक एकाग्रता की आवश्यकता होती है।

सम्यक प्रयास से हमारा आशय विनाशकारी विचार श्रृंखलाओं से मुक्ति पाने और ऐसी मनोदशाएं विकसित करने से होता है जो ध्यानसाधना के लिए सहायक हों।

सचेतनता जोड़ने वाले एक ऐसे गोंद के समान होती है जो हमें जोड़े रखता है और हमें भूलने नहीं देता है:

  • हम अपने शरीर, अपनी भावनाओं, चित्त और मानसिक तत्वों की वास्तविक प्रकृति को न भूलें ताकि वे हमारे ध्यान को न भटका सकें
  • अपने विभिन्न नैतिक मार्गदर्शी सिद्धांतों, नियमों, और यदि हमने कुछ प्रतिज्ञाएं ली हों, तो उन्हें न भूलें
  • जिस लक्ष्य पर हमने अपना ध्यान केंद्रित किया हो, उससे अपने ध्यान को न डिगने दें।

जब हम ध्यान साधना कर रहे होते हैं तो हमें सचेतन रहने की आवश्यकता होती है ताकि जिस लक्ष्य पर हम अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हों वह हमसे ओझल न हो। यदि हम किसी से बात कर रहे हों तो हमें उस व्यक्ति और उसके द्वारा कही जा रही बात पर अपना ध्यान बनाए रखने की आवश्यकता होती है।

एकाग्रता का अर्थ ध्यान को किसी लक्ष्य पर केंद्रित करना होता है। इसलिए, जब हम किसी की बात को सुन रहे होते हैं तो हमारा ध्यान उस व्यक्ति द्वारा कही जा रही बात, उस व्यक्ति की वेश-भूषा और उस व्यक्ति द्वारा की जा रही चेष्टाओं आदि पर केंद्रित होता है। सचेतनता एकाग्रता को बनाए रखने में सहायक होती है, किसी मानसिक गोंद की भांति हमारे ध्यान को वहाँ बनाए रखती है, ताकि हम मंद न हो जाएं और हमारा ध्यान भटके नहीं।

प्रयास

अष्टांगी मार्ग का यह पहला तत्व है जिसका उपयोग हम एकाग्रता को विकसित करने के लिए करते हैं। हम भटकाने वाले विचारों और ऐसी मनोदशाओं से अपने आपको मुक्त करने का प्रयास करते हैं जो एकाग्रता को बढ़ाने में सहायक नहीं होते हैं। सामान्य दृष्टि से यदि हम अपने जीवन में कुछ भी हासिल करना चाहते हैं तो हमें उसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता होती है। चीजें अपने आप ही नहीं हो जाती हैं, और कुछ भी आसान नहीं होता है। लेकिन यदि हम दूसरों के साथ अपने व्यवहार, वचन और आचरण की दृष्टि से नैतिक आत्मानुशासन को अपनाते हुए थोड़ा आत्मिक बल विकसित कर लें तो उससे हमें अपनी मानसिक और भावात्मक दशाओं को सुधारने के लिए प्रयास करने की ताकत मिलती है।

गलत दिशा में किया गया प्रयास

हमारे ध्यान को भटकाने वाली और एकाग्रता को असंभव बनाने वाली नुकसानदेह और विनाशकारी विचार श्रृंखलाओं पर अपनी ऊर्जा को लक्षित करना गलत दिशा में किया गया प्रयास होता है। विनाशकारी विचारों के तीन प्रमुख प्रकार होते हैं:

  • लोभपूर्ण विचार करना
  • दुर्भावपूर्ण विचार करना
  • शत्रुता के भाव से विकृत विचार करना

लालचपूर्ण विचार करना

लोभपूर्ण विचार वह है जिसमें दूसरों की उपलब्धियों के प्रति ईर्ष्या या दूसरों द्वारा भोगे जाने वाले आमोद-प्रमोद और भौतिक सुखों के प्रति ईर्ष्या का भाव होता है। आप सोचते हैं, “मैं इस वस्तु को अपने लिए कैसे प्राप्त कर सकता हूँ?” इसकी उत्पत्ति आसक्ति के कारण होती है। चाहे सफलता हो, सुंदर जीवन साथी हो, नई कार या कोई और वस्तु हो – हम यह बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं कि जो कुछ हमारे पास न हो वह किसी दूसरे व्यक्ति के पास हो। हम लगातार उसी के बारे में सोचते रहते हैं, और यह चित्त को बहुत अशांत करने वाली मनोदशा होती है। इससे हमारी एकाग्रता एकदम भंग हो जाती है, होती है न?

पूर्णतावादी होने की इच्छा को इस श्रेणी में रखा जा सकता है – हम हमेशा यही सोचते रहते हैं कि हम अपने प्रदर्शन को और अच्छा किस तरह बनाएं। यह दशा लगभग अपने आप से ईर्ष्या करने जैसी होती है।

दुर्भावपूर्ण विचार करना

दुर्भावपूर्ण विचार करने का अर्थ होता है कि हम किसी दूसरे को नुकसान किस तरह से पहुँचाएं, जैसे कि, “यदि इस व्यक्ति ने ऐसा कुछ कहा या किया जो मुझे नापसंद है, तो मैं बदला लूँगा।“ हम यह सोचने लगते हैं कि अगली बार जब हम उस व्यक्ति से मिलेंगे तो उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे या उससे क्या कहेंगे, और हम इस बात का अफसोस करते हैं कि जब उस व्यक्ति ने हमसे कुछ कहा तो हमने उसे पलटकर जवाब क्यों नहीं दिया। हम इसके बारे में इतना अधिक सोचते हैं कि यह भावना हमारे मन से निकलती नहीं है।

शत्रुता के भाव से विकृत विचार करना

शत्रुता के भाव से विकृत विचार तब उत्पन्न होता है जब, उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति अपने आप में सुधार करने या दूसरों की सहायता करने का प्रयास कर रहा हो, तब हम सोचते हैं, “कैसा मूर्ख है – ऐसा करने का कोई लाभ नहीं। किसी की सहायता करना मूर्खता है।“

कुछ लोगों को खेलकूद से लगाव नहीं होता और वे सोचते हैं कि जो लोग खेलकूद पसंद करते हैं और टेलीविजन पर या फुटबॉल का खेल देखते हैं या किसी टीम को खेलते हुए देखने के लिए जाते हैं वे निरे मूर्ख हैं। लेकिन खेलकूद पसंद करने में कोई हानि नहीं है। ऐसा सोचना कि यह मूर्खतापूर्ण है या समय की बरबादी है, एक बहुत ही शत्रुतापूर्ण मनोदशा है।

या, जब कोई व्यक्ति किसी भिखारी को कुछ पैसे देकर उसकी सहायता करने का प्रयास करता है, और आप सोचने लगते हैं, “अरे, आप तो बहुत की मूर्खता का काम कर रहे हैं।“ यदि हम हर समय यही सोचते रहें कि दूसरे लोग कितने मूर्ख हैं और जो कुछ भी वे करते हैं वह कितनी नासमझी का काम है, तो हम कभी भी अपने ध्यान को केंद्रित नहीं कर सकेंगे। ये कुछ ऐसे विचार हैं जिनसे हम मुक्त होना चाहते हैं।

सम्यक प्रयास

सम्यक प्रयास का अर्थ है कि हम अपनी ऊर्जा को हानिकारक, विनाशकारी विचार श्रृंखलाओं से दूर रखें और उसे लाभकारी गुणों को विकसित करने की दिशा की ओर लक्षित करें। इसके लिए हम “चार सम्यक प्रहाणों” की बात करते हैं। संस्कृत और तिब्बती साहित्य में इन्हें “सम्यक मुक्ति की प्राप्ति के चार तत्व” कहा जाता है – दूसरे शब्दों में, हमारे दोषों से मुक्ति के लिए “चार शुद्ध परित्याग”:

  • पहले तो हम ऐसे अकुशल धर्मों की उत्पत्ति को रोकने के लिए प्रयास करते हैं जो अभी तक हमारे भीतर उत्पन्न नहीं हुए हैं। उदाहरण के लिए, यदि हमारा व्यक्तित्व ऐसा हो कि हमें चीज़ों की लत बहुत जल्दी लग जाती हो तो फिर हमारे लिए यही बेहतर होगा कि हम किसी ऑनलाइन मूवी स्ट्रीमिंग सेवा की सदस्यता न लें क्योंकि उस स्थिति में एक के बाद एक धारावाहिक कार्यक्रम देखते हुए पूरा दिन बर्बाद कर देंगे। ऐसा करना बहुत नुकसानदेह साबित होगा और उससे एकाग्रता नष्ट होगी।
  • फिर, हमें अपने आप को ऐसी बुराइयों से मुक्त करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता होती है जो पहले ही हमारे भीतर उत्पन्न हो चुकी हैं। यदि हमें किसी चीज़ की लत हो तो हमें उसके प्रयोग को कम करना ही हमारे हित में होगा। उदाहरण के लिए, हम सभी ऐसे कुछ लोगों को जानते हैं जिन्हें अपने आईपॉड का प्रयोग करने की ऐसी लत होती है कि वे संगीत सुने बिना कहीं जा ही नहीं सकते हैं। उनकी स्थिति लगभग ऐसी होती है जैसे उन्हें शांति से डर लगता हो, कुछ भी सोचने से डर लगता हो, और इसलिए वे लगातार संगीत सुनते रहना चाहते हैं। बेशक, जब आप लम्बी दूरी तक गाड़ी चला कर जा रहे हों तो तेज़ संगीत आपको जगाए रखने की दृष्टि से उपयोगी हो सकता है या व्यायाम करते समय गति को बनाए रखने में सहायक हो सकता है, लेकिन जब आप वार्तालाप करते समय किसी की बात पर ध्यान केंद्रित कर रहे हों तो संगीत निश्चित तौर पर उपोयगी नहीं हो सकता। उल्टे, उससे ध्यान ही बंटता है।
  • इसके बाद हमें नए कुशल धर्म विकसित करने की आवश्यकता होती है।
  • और फिर, हम उन कुशल धर्मों को बनाए रखने और उनकी वृद्धि करने के लिए प्रयास करते हैं जो हमारे भीतर पहले से मौजूद होते हैं।

इनके बारे में विचार करना और इनके व्यावहारिक प्रयोग तलाश करना बहुत दिलचस्प है। मेरी तरफ से इसका एक उदाहरण यह है कि मेरी वैबसाइट के बारे में मेरी एक गलत आदत है। लगभग 110 लोग इस वैबसाइट पर काम करते हैं जो मुझे अपने अनुवादों और सम्पादित फाइलों के बारे में ई-मेल भेजते रहते हैं – हर दिन मुझे बड़ी संख्या में ऐसे ई-मेल प्राप्त होते हैं। मेरी गलत आदत यह थी कि मैं फाइलों को अलग-अलग फोल्डरों में सलीके से रखने बजाए, ताकि मेरे सहायक को उन्हें ढूँढने में सुविधा हो, मैं सभी फाइलों को एक ही फोल्डर में डाउनलोड कर लेता था। यह बड़ी गलत आदत थी क्योंकि मेरी अकुशलता के कारण हम लोग इन फाइलों से सम्बंधित अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते थे और इन्हें तलाशने और व्यवस्थित करने में बहुत समय बर्बाद होता था। तो यहाँ कुशल धर्म क्या होगा? एक ऐसी व्यवस्था तैयार की जाए ताकि जैसे ही कोई फाइल प्राप्त हो उसे तुरन्त अपने सही फोल्डर में पहुँचाया जा सके। ऐसा करने से एक अभ्यास विकसित होता है कि आलस्य के कारण चीज़ों को बेतरतीब ढंग से रखने के बजाए शुरुआत से ही चीजों को उनके नियत स्थान पर रखा जाए।

इस उदाहरण में हमें एक अकुशल धर्म, एक बहुत ही अनुत्पादक आदत के बारे में और एक कुशल धर्म के बारे में जानकारी मिली। हमने अकुशल धर्म से बचने के लिए प्रयास किया और एक उचित फाइल व्यवस्था तैयार की ताकि अकुशल धर्म को जारी रहने से रोका जा सके। साधना के एक बहुत ही सामान्य स्तर पर हम इसी बात का अध्ययन करते हैं।

एकाग्रता के मार्ग की पाँच बाधाओं पर विजय प्राप्त करना

सम्यक प्रयास में एकाग्रता विकसित करने के मार्ग की पाँच बाधाओं को दूर करने के लिए प्रयत्न करना भी शामिल होता है, ये पाँच बाधाएं इस प्रकार हैं:

पाँच प्रकार के अभीष्ट इंद्रिय अनुभवों में से किसी भी अनुभव का अनुशीलन करने का संकल्प

सुंदर दृश्य, ध्वनियाँ, सुगंध, स्वाद और भौतिक इन्द्रियबोध पाँच अभीष्ट संवेदी उद्देश्य हैं। यह बाधा, जिस पर हम विजय पाने के लिए प्रयत्न करते हैं, तब उत्पन्न होती है जब हम किसी चीज़ पर अपना ध्यान केंद्रित करने का प्रयास कर रहे होते हैं, जैसे हम अपने काम पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयत्न करते हैं लेकिन हमारी एकाग्रता “मैं फिल्म देखना चाहता हूँ” या “मैं फ्रिज तक जाकर कुछ खाना चाहता हूँ” जैसे विचारों से भंग हो जाती है। यहाँ हम खाने की इच्छा, संगीत सुनने की इच्छा आदि संवेदी आमोद-प्रमोद या इच्छाओं की बात कर रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि जब भी इस प्रकार के भाव जाग्रत हों तो हम इन इंद्रिय अनुभवों का अनुशीलन न करने की दिशा में प्रयास करें ताकि हमारी एकाग्रता बनी रहे।

द्वेषपूर्ण विचार

इसका सम्बंध किसी व्यक्ति को कष्ट पहुँचाने के बारे में विचार करने से है। यदि हम हमेशा इसी प्रकार के द्वेषपूर्ण विचार करते रहें कि “इस व्यक्ति ने मुझे चोट पहुँचाई थी, मुझे यह व्यक्ति पसंद नहीं है, मैं इससे बदला कैसे लूँ?” – ऐसे विचार एकाग्रता के मार्ग में एक बड़ी बाधा हैं। हमें प्रयास करना चाहिए कि हम न केवल दूसरों के बारे में अप्रिय और नुकसान पहुँचाने वाले विचार रखने से बचें, बल्कि हमें अपने बारे में भी ऐसे विचार नहीं रखने चाहिए।

मानसिक उलझाव और सुस्ती

यह वह स्थिति होती है जहाँ हमारे चित्त में अस्पष्टता होती है, हम अपने आप को दिग्भ्रमित महसूस करते हैं और स्पष्ट तरीके से सोच नहीं पाते हैं। निष्चेष्टता की स्थिति वह स्थिति होती है जिसमें हम अपने आप को उनींदा अनुभव करते हैं। हमें प्रयास करके इस स्थिति का मुकाबला करना चाहिए। चाहे आप यह मुकाबला कॉफी की सहायता से करें या ताज़ी हवा लेकर करें, लेकिन हमें कोशिश करनी होती है कि हम इस स्थिति के सामने पराजय को स्वीकार न करें। लेकिन, यदि ध्यान केंद्रित करना बहुत अधिक मुश्किल हो जाए, तो हमें एक सीमा तय करनी होगी। यदि आप घर पर काम कर रहे हों तो, “मैं बीस मिनट की नींद लूँगा या काम से छुट्टी लूँगा।“ यदि आप अपने दफ्तर में हों तो, “मैं कॉफी पीने के लिए दस मिनट का अवकाश लूँगा।“ एक सीमा तय करें और फिर उसके बाद अपने काम पर लौट जाएं।

चित्त की स्वेच्छाचारिता और पछतावा

चित्त की स्वेच्छाचारिता से आशय उस स्थिति से है जब हमारा चित्त अचानक फेसबुक, या यूट्यूब या किसी और चीज़ की ओर चला जाता है। पश्चाताप होना उस स्थिति को कहा जाता है जब हमारा चित्त अपराध बोध की ओर भटक जाता है, “मुझे इस बात का बहुत अफसोस है कि मैंने ऐसा किया या वैसा किया।“ ऐसे भाव ध्यान को भंग करने वाले होते हैं और हमारी एकाग्रता के मार्ग में बाधक होते हैं।

अस्थिरचित्त के कारण मन का डांवाडोल होना और संदेह

अंतिम बाधा जिस पर हमें विजय प्राप्त करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता होती है वह है अस्थिरमति के कारण हिचकिचाहट होना और संदेह होना। “मुझे क्या करना चाहिए?” “दोपहर के भोजन में मैं क्या खाऊँ? मुझे यह लेना चाहिए। या शायद मुझे वह खाना चाहिए?” निर्णय न कर पाने के कारण बहुत सारा समय बर्बाद होता है। यदि हमारे मन में अनिश्चय और संदेह हो तो हम न तो अपने ध्यान को केंद्रित नहीं कर पाते हैं और न ही अपने काम को कर पाते हैं। इसलिए हमें इस स्थिति को ठीक करने के लिए प्रयास करना चाहिए।

संक्षेप में कहा जाए तो सम्यक प्रयास का अर्थ है कि निम्नलिखित के लिए प्रयास किया जाए:

  • अशांतकारी और विनाशकारी विचारों से दूर रहना
  • अपने भीतर की बुरी आदतों और कमियों से स्वयं को मुक्त करना
  • अपने भीतर के सद्गुणों को विकसित करना और उन गुणों को भी अधिक विकसित करना जो हमारे भीतर पर्याप्त परिमाण में नहीं हैं
  • एकाग्रता के मार्ग में बाधक दोषों से अपने आपको मुक्त करना।

सचेतनता

एकाग्रता से जुड़ा अष्टांगी मार्ग का अगला पहलू यथार्थ सचेतनता है:

  • सचेतनता की मूल प्रकृति किसी मानसिक गोंद के समान है। जब आप ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं तब आपका चित्त किसी उद्देश्य या प्रयोजन का अनुसरण कर रहा होता है। सचेतनता इसी दृढ़ता को छूटने से बचाती है।
  • इसके साथ-साथ सतर्कता भी होती है जो आपको इस बात के प्रति चौकन्ना रखती है कि आपका ध्यान भटक तो नहीं रहा है, या कहीं आप उनींदे या सुस्त तो नहीं हो रहे हैं।
  • इसके बाद हम अपने ध्यान का प्रयोग करते हैं, और इस प्रकार हम अपने ध्यान के केंद्र को महत्व देते हैं।

यहाँ हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि हम अपने शरीर, भावनाओं, चित्त और विभिन्न मानसिक तत्वों के प्रति क्या दृष्टिकोण रखते हैं। हम चाहते हैं कि हम अपने शरीर और भावनाओं के प्रति त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण को ही पकड़ कर न बैठे रहें, क्योंकि जब हम इन त्रुटिपूर्ण विचारों से मुक्त नहीं होते हैं तो हमारा ध्यान भटकता है और हम एकाग्रचित्त नहीं हो पाते हैं। इसलिए अब हम सचेतनता के सही और गलत रूपों की चर्चा करेंगे।

अपने शरीर के प्रति दृष्टिकोण

जब हम शरीर की बात करते हैं, तो सामान्य दृष्टि से हमारा आशय हमारे स्थूल शरीर और हमारे शरीर से जुड़े विभिन्न प्रकार के इन्द्रियबोध से होता है। शरीर के बारे में गलत दृष्टिकोण यह होगा कि हमारे शरीर का यह गुण है कि वह सुखदायक है, या बहुत स्वच्छ और सुंदर है। हम अपना बहुत सारा समय और ध्यान इस बात पर लगाते हैं कि हम कैसे दिखाई देते हैं – हमारे बाल, हमारी साज-सज्जा कैसी है, हमारे वस्त्र कैसे हैं आदि। बेशक अपने आप को साफ-स्वच्छ और आकर्षक बनाकर रखना अच्छी बात है, लेकिन जब हम इस तरह के विचारों को सोचने की अति कर देते हैं कि हमारे शरीर का सुंदर दिखाई देना सुख का साधन है और शरीर को हमेशा सुंदर दिखाई देना चाहिए ताकि हम दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर सकें, उस स्थिति में किसी दूसरे अधिक सार्थक विषय पर ध्यान केंद्रित करने के लिए ज़्यादा समय नहीं मिल पाता है।

हमें अपने शरीर को एक व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखना चाहिए। यदि आप एक ही स्थान पर बहुत लम्बे समय तक बैठे रहें तो आपको असुविधा होने लगती है और आपको उठकर चलना फिरना पड़ता है। यदि आप लेटे हों तो एक ही स्थिति में लेटे रहना तकलीफदेह हो जाता है, और करवट बदलने के बाद भी वैसी ही स्थिति हो जाती है। हम बीमार होते हैं; यह शरीर बूढ़ा होता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम व्यायाम और उचित खान-पान के माध्यम से अपने स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखकर शरीर का खयाल रखें, लेकिन ध्यान को शरीर पर अत्यधिक केंद्रित रखना – यह सोचना कि शरीर स्थायी सुख का साधन बनेगा – यह एक समस्या है।

हमें अपने आप को ऐसी त्रुटिपूर्ण सचेतनता से मुक्त करने की आवश्यकता है। हमें ऐसे विचारों से मुक्त होना होगा कि हमारे बाल ही हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं, या फिर हमेशा रंगों का सही संयोजन करके वस्त्रादि पहनने से स्थायी सुख की प्राप्ति होगी। हम इस प्रकार के दृष्टिकोण का त्याग कर देते हैं और यथार्थ सचेतनता को विकसित करते हैं जो इस प्रकार है “मेरे बाल या कपड़े वास्तविक सुख का साधन नहीं है। इनके बारे में बहुत अधिक सोचने से मेरा समय बर्बाद होता है और मैं किसी अधिक सार्थक विचार पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता हूँ।“

अपनी भावनाओं के प्रति दृष्टिकोण

यहाँ हम दुख या सुख की भावनाओं के विषय में चर्चा कर रहे हैं जो अन्ततः दुख के मूल से जुड़ी होती हैं। जब हम दुखी होते हैं तब हमें एक प्रकार की ‘प्यास’ होती है कि हमारे दुख के कारण का अन्त हो जाए। इसी प्रकार जब हमें थोड़ी खुशी होती है, तो आपको और अधिक खुशी पाने की प्यास होती है। मूलतः यही समस्याओं की जड़ है।

जब हम दुख को दुनिया की सबसे बुरी चीज़ समझ लेते हैं तो फिर उसके कारण ध्यान केंद्रित करने में समस्या होती है। कैसे? “मैं थोड़ा कष्ट में हूँ,” या “आज मेरा मूड अच्छा नहीं है,” या “मैं दुखी हूँ,” ठीक है, तो क्या हुआ? आप जो कार्य कर रहे हैं उसे करते रहिए। यदि आप सचमुच यह मान बैठें कि आपका खराब मूड ही दुनिया की सबसे बुरी बात है और यदि आप उसी के बारे में सोचते रहें तो फिर जो भी काम आप कर रहे हों उस पर ध्यान केंद्रित करने में बड़ी गम्भीर बाधा उत्पन्न होगी।

जब हम खुश हों तब हमें यह इच्छा करते हुए नहीं भटकना चाहिए कि हमारी खुशी बढ़े और हमेशा कायम रहे। यह स्थिति उस समय भी उत्पन्न हो सकती है जब ध्यान साधना करते हुए आपको बहुत अच्छा महसूस होने लगता है और आपका ध्यान इसी बात से भटक जाता है कि यह अनुभूति बहुत अद्भुत है। या, यदि आप अपने किसी पसंदीदा व्यक्ति के साथ हों, या कुछ ऐसा खा रहे हों जो बहुत स्वादिष्ट हो तो गलत सचेतनता आपको उस भाव के साथ चिपके रहने के लिए प्रेरित करती है “यह तो बहुत अच्छा है,” और आपका ध्यान भटक जाता है। जो कुछ भी हो, आप उसका सुख तो भोगें, लेकिन उसकी अति न करें।

अपने चित्त के प्रति दृष्टिकोण

यदि हम अपने चित्त के बारे में ऐसा सोचें कि गलती या दोष हमारे चित्त की प्रकृति में अन्तर्निहित है और इसलिए हमारा चित्त क्रोध या मूढ़ता या अज्ञान जैसे दोषों से भरा है, तो फिर ध्यान को केंद्रित करने में बड़ी कठिनाई होगी। हम अक्सर कोई प्रयास किए बिना ही अपने आप को अयोग्य समझ लेते हैं: “मैं ऐसा नहीं हूँ। मेरे भीतर वह गुण नहीं है। मैं किसी काबिल नहीं हूँ।“ या “मुझे कुछ समझ नहीं आता।“ यदि हम इन्हीं विचारों को पकड़े रहें तो स्थिति बहुत निराशाजनक है। लेकिन यदि हमारी सचेतनता उचित प्रकार की हो जहाँ हम इस प्रकार से विचार करते हैं, “ठीक है, हो सकता है कि कुछ समय के लिए मैं इसे न समझ सकूँ, कुछ समय के लिए मैं भ्रमित हो सकता हूँ, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यही मेरे चित्त की स्थायी प्रकृति है।“ इस तरह विचार करने से हमें एकाग्रता की सहायता से उस स्थिति से उबरने का विश्वास मिलता है।

अपने मानसिक तत्वों के प्रति दृष्टिकोण

चौथा पहलू बुद्धि, दयालुता, धैर्य आदि जैसे हमारे मानसिक तत्वों से सम्बंधित है। त्रुटिपूर्ण सचेतनता वह है जहाँ हम सोचते हैं कि ये तत्व नित्य हैं और “मैं तो ऐसा ही हूँ और सभी को इसे स्वीकार करना चाहिए। मैं अपने आप को बदलने या इन तत्वों को विकसित करने के लिए कुछ नहीं कर सकता हूँ।“ उचित सचेतनता वह होती है जब हमें इस बात का बोध होता है कि ये तत्व एक स्तर पर स्थिर नहीं हैं, बल्कि इस संदर्भ में इन्हें एकाग्रता को बढ़ाने के लिए सीखा जा सकता है और विकसित किया जा सकता है।

अपने ऊपर नियंत्रण हासिल करना

यह आश्चर्य की बात है कि जब हम यह जानने के लिए आत्मविश्लेषण करते हैं कि जब हम खिन्न होते हैं या जब अपराध बोध से ग्रस्त होते हैं तो उस मनोदशा को नियंत्रित करने के लिए हम क्या करते हैं। हम पाते हैं कि हम उसी मनोदशा से चिपके रहते हैं। या अपराध बोध के मामले में, हम अपनी भूल के बारे में ही सोचते रहते हैं। हम इंसान हैं और हम सभी से गलतियाँ होती रहती हैं। त्रुटिपूर्ण सचेतनता वह होती है जब हम उसी भाव से चिपके रहते हैं और उसे छोड़ते नहीं हैं, और हम अपने आपको कोसते रहते हैं कि हम कितने बुरे हैं। इस बात का बोध होना ही सही सचेतनता है कि हमारी चित्तवृत्तियाँ बदलती रहती हैं, क्योंकि वे कारणों और परिस्थितियों से उत्पन्न होती हैं जो स्वयं सदैव परिवर्तनशील होते हैं; कुछ भी सदा एक जैसा नहीं रहता है।

बौद्ध शिक्षाओं में एक मूलभूत उपयोगी शिक्षा यह है कि हम “अपने आप पर नियंत्रण स्थापित करें।“ यह स्थिति वैसे ही होती है जैसी सुबह उठने के बाद होती है, जब आप बिस्तर पर लेटे हुए होते हैं और बिस्तर से उठना नहीं चाहते हैं क्योंकि लेटे रहना आपको बड़ा आरामदायक लगता है और आपको नींद आ रही होती है। फिर आप अपने आप को नियंत्रित करते हैं और बिस्तर से उठ जाते हैं, है न? हमारे भीतर ऐसा करने की क्षमता है, ऐसा न होता तो हममें से आधे लोग सुबह बिस्तर से ही न उठते! जब हमारा चित्त खिन्न होता है या जब हम थोड़े उदास होते हैं तब भी यही स्थिति होती है। हम अपने आप को नियंत्रित कर सकते हैं – “चलो उठो, कर डालो!” – हम उस भावना से हारते नहीं हैं, बल्कि उठ कर वह करने लगते हैं जो हमें करना चाहिए।

सचेतनता के अन्य पहलू

सामान्य दृष्टि से देखा जाए तो सचेतनता सचमुच बहुत महत्वपूर्ण है। यह हमें भूलने नहीं देती कि हमें क्या करना है। यदि हमें कुछ कार्य करना होता है तो उचित सचेतनता हमें उस पर अपना ध्यान केंद्रित करने में सहायता करती है। सचेतनता का सम्बंध याद रखने से है, ताकि आपको याद रहे कि टेलीविजन पर आपका पसंदीदा कार्यक्रम आज रात प्रसारित किया जाने वाला है। लेकिन यह तो किसी ऐसी बात से चिपके रहने की है जो इतनी अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, और यह आपको ऐसी बातों को भुला देती है जो आपके लिए अधिक महत्वपूर्ण हैं।

यदि हम किसी प्रकार का अभ्यास कर रहे हों तो उचित सचेतनता हमें उस कार्य को करते रहने में सहायता करती है। यदि हम व्यायाम करने का अभ्यास करते हों तो हमें प्रतिदिन व्यायाम करते रहने की आवश्यकता होती है। यदि हम अपने आहार को नियंत्रित कर रहे हों, तो हमें सचेतनता की आवश्यकता होती है ताकि जब हमें केक खाने के लिए दिया जाए तो हम अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उस पर टूट कर न पड़ें।

सचेतनता वह है जब हम अपने काम पर ध्यान को केंद्रित रखते हैं और गौण या कम महत्व की चीज़ों से अपने ध्यान को भटकने नहीं देते हैं।

जब हम अपने परिजनों के साथ हो तब सचेतनता को बनाए रखना

बहुत से लोगों को अपने परिवार के लोगों के साथ होने के समय नैतिक आचरण करना मित्रों और अपरिचित लोगों के साथ होने के समय की तुलना में ज़्यादा कठिन लगता है। यदि हम अपने आप को इस स्थिति में पाते हैं तो एक सामान्य सलाह यह है कि शुरुआत में ही एक दृढ़ लक्ष्य निर्धारित किया जाए। यदि आप अपने किसी रिश्तेदार से मिलने वाले हों तो आप यह निश्चय कर सकते हैं, “मैं अपने क्रोध पर नियंत्रण रखने का प्रयास करूँगा। मैं यह याद रखने का प्रयास करूँगा कि इस व्यक्ति ने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया है। वह मेरा घनिष्ठ है, और मैं उसके साथ जैसा व्यवहार करूँगा उससे उसकी भावनाएं प्रभावित होंगी।“ शुरुआत में ऐसा करना बहुत महत्वपूर्ण है।

हमें अपने आपको इस बात का भी स्मरण कराना चाहिए कि वे लोग भी इंसान हैं। हमें उन्हें केवल माता, पिता, बहन, भाई या हमारा उनके साथ जो भी सम्बंध हो, की भूमिका में ही नहीं देखना चाहिए। यदि आप उन्हें एक निश्चित भूमिका में ही देखते रहेंगे तो फिर हम एक पिता या माता के बारे में अपनी राय या उनसे हमारी जो भी अपेक्षाएं रही हैं या उन्होंने जहाँ भी हमें निराश किया है, उन्हीं बातों की दृष्टि से उनके द्वारा किए गए कार्यों पर अपनी प्रतिक्रिया देते रहेंगे। बेहतर तो यही है कि हम उन्हें उसी दृष्टि से देखें जैसे एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को देखता है। यदि वे इस बात के प्रति सचेत न हों और फिर भी यदि हमारे साथ किसी बच्चे के जैसा व्यवहार करें तो फिर हम किसी बच्चे जैसा व्यवहार करने की आदत में नहीं पड़ते हैं। हम याद रखते हैं कि वह व्यक्ति भी एक इंसान है और हम बच्चों वाले खेल के चक्कर में नहीं पड़ते; आखिर ताली दोनों हाथों से ही तो बजती है।

कुछ समय पहले मेरी बड़ी बहन एक सप्ताह मेरे पास रहने के लिए आई थीं। वह रात को काफी जल्दी सोने की तैयारी कर लेती थीं और जैसे वे मेरी माँ हों, मुझसे कहतीं, “अब तुम सो जाओ।“ लेकिन यदि मैं किसी बच्चे की तरह प्रतिक्रिया करते हुए उनसे कहता कि, “नहीं, अभी तो बहुत जल्दी है, मैं अभी नहीं सोना चाहता, मैं जागना चाहता हूँ आप मुझे सोने के लिए क्यों कह रही हैं?” तो यह वही खेल हो जाता। और फिर हम दोनों ही नाराज़ होते। इसलिए मैं अपने आप को बार-बार याद दिलाता था कि वे मुझे यह सलाह इसलिए दे रही थीं क्योंकि उन्हें मेरी फिक्र है, इसलिए नहीं कि वे मुझे गुस्सा दिलाना चाहती हैं। उन्हें लगता है कि जल्दी सो जाना मेरे हित में है। इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम अपने मन में कल्पनाएं करने के बजाए अपने आस-पास की स्थितियों के बारे में और अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाएं।

इसलिए अपने परिवार के सदस्यों से मिलने से पहले हमें अपनी प्रेरणा के प्रति सचेत रहना चाहिए, यानी:

  • हमारा लक्ष्य : लक्ष्य यह है कि मेरे परिवार, जिसकी मैं परवाह करता हूँ और जो मेरी परवाह करता है, के साथ परस्पर व्यवहार अच्छा हो।
  • सहयोगी मनोभाव : मनुष्य के रूप में अपने परिवार का खयाल रखना।

इस स्थिति को देखने का दूसरा नज़रिया यह है कि इसे एक भयंकर कठिन अनुभव के रूप में देखने के बजाए एक चुनौती और स्वयं को विकसित करने के अवसर के रूप में देखा जाए: “क्या मैं अपने परिवार के साथ रात्रि भोज के इस कार्यक्रम को गुस्सा किए बिना बिता सकता हूँ?”

और जब आपके परिवार के सदस्य आपके दोष ढूँढना शुरू करते हैं, जैसाकि माता-पिता अक्सर करते हैं, “तुम शादी क्यों नहीं कर लेते? कोई बेहतर नौकरी क्यों नहीं तलाश कर लेते? अभी तक तुम्हारे बच्चे क्यों नहीं हैं? (मेरी बहन ने मुझे देख कर पहली बात यह कही थी, “तुम्हें बाल कटवा लेने चाहिए!”) तब हम समझ जाते हैं कि वे यह सब इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि उन्हें हमारी परवाह है, और हम उन्हें यह नहीं कह सकते, “चिंता जताने के लिए शुक्रिया!”

हम इस बात पर भी विचार कर सकते हैं कि ऐसे सवालों के पीछे की वजहें क्या हो सकती हैं जो ऐसी होती हैं जैसे उनके बहुत से परिचित और मित्र उनसे पूछते होंगे, “आपका बेटा क्या काम करता है? आपकी बेटी क्या करना चाहती है?” और उन्हें अपने मित्रों के साथ सामाजिक मेल-मिलाप करना पड़ता है। वे किसी दुर्भावना से यह नहीं पूछ रहे होते हैं कि आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की है, बल्कि इसलिए पूछते हैं क्योंकि उन्हें आपकी खुशियों की परवाह है। यहाँ पहला कदम यह होना चाहिए कि हम इस बात को स्वीकार करें और उनकी परवाह को समझें। और यदि आप चाहें, तो आप शांत मन से उन्हें कारण भी बता सकते हैं कि आपने विवाह क्यों नहीं किया है!

सचेतनता से हम ऐसी बातों को दूर रख सकते हैं जो बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं। कोई बहुत पुरानी बात हो सकती है, जैसे “दस साल पहले तुमने वैसा क्यों किया था?” या “तुमने तीस साल पहले वैसा कहा था।“ हम उन्हीं बातों से चिपके रहते हैं और दूसरों को मौका ही नहीं देते, जिसके कारण हम अपना ध्यान इस बात पर केंद्रित नहीं कर पाते कि वह व्यक्ति अभी किस हाल में है। हम उस पूर्वधारण के साथ ही चिपके रहते हैं कि “यह बहुत मुश्किल होने वाला है, मेरे माता-पिता आ रहे हैं,” जहाँ हम पहले ही तय कर चुके होते हैं कि उनका आना बहुत खराब होगा। नतीजा यह होता है कि हम रात्रि भोज से पहले ही बड़े तनाव में आ जाते हैं! इसलिए हम इस स्थिति को यह सोच कर उचित सचेतनता से बदल देते हैं कि यह उनके हालचाल जानने का एक मौका है, और अपने व्यवहार को किसी तरह की पूर्वधारणाओं के बिना परिस्थिति के अनुरूप ढाल लेते हैं।

सचेतनता को बनाए रखने के लिए व्यावहारिक सलाह

कठिन परिस्थितियों में हम अपनी सचेतनता को कैसे कायम रखें? हमें निम्नलिखित को विकसित करना चाहिए:

  • लक्ष्य – यह दृढ़ निश्चय कि हम बातों को न भूलने का प्रयास करेंगे
  • परिचय – एक ही प्रक्रिया को तब तक बार-बार दोहराना जब तक कि वह हमें स्वतः ही याद न हो जाए
  • सतर्कता – ऐसी सचेत करने वाली व्यवस्था जो यह पता लगा सके कि हमारी सचेतनता खत्म हो रही है।

यह सारी प्रक्रिया एक फिक्रमंदी के दृष्टिकोण पर आधारित है जहाँ आप इस बात का खयाल रखते हैं कि आपके व्यवहार का स्वयं आपके ऊपर और दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यदि आप अपने व्यवहार की परवाह नहीं करेंगे तो सचेतनता नहीं बनी रह सकेगी क्योंकि आपके प्रयास में अनुशासन नहीं होगा। हमें परवाह करने की क्या आवश्यकता है? क्योंकि हम एक इंसान हैं। आपके माता-पिता भी इंसान हैं। और हम सभी सुख चाहते हैं। कोई भी दुख नहीं चाहता। हम दूसरों के साथ जैसा व्यवहार करते हैं या जैसे वचन कहते हैं उससे उनकी भावनाएं प्रभावित होती हैं, इसलिए हमें इस बात का खयाल रखना चाहिए कि हम कैसा व्यवहार करते हैं।

हमें स्वयं अपना और अपनी प्रेरणा का विश्लेषण करना चाहिए। यदि हम केवल इसलिए अच्छे बनना चाहते हैं ताकि दूसरे लोग हमें पसंद करें, तो यह थोड़ी बचकानी बात होगी। थोड़ी नादानी होगी। सचेत रहने और सचेतनता बनाए रखने का सबसे उपयुक्त कारण यह है कि हम फिक्रमंदी का दृष्टिकोण अपनाते हुए दूसरों का खयाल रखते हैं।

एकाग्रता

एकाग्रता के लिए हम अष्टांग मार्ग के जिस पहलू का उपयोग करते हैं उसे सम्यक एकाग्रता (जी हाँ, एकाग्रता ही) कहा जाता है। एकाग्रता का अर्थ किसी उद्देश्य पर मन को स्थिर करना होता है। एक बार जब हम चित्त को उस उद्देश्य पर स्थापित कर लेते हैं तो सचेतनता उसे वहीं स्थिर बनाए रखती है ताकि हम उससे भटकें नहीं। लेकिन हम उस उद्देश्य तक पहुँच सकें यही तो एकाग्रता है।

किसी उद्देश्य पर एकाग्र होने के लिए हम अपने ध्यान का उपयोग करते हैं। बीते समय की तुलना में आजकल होता यह है कि हमने अपने ध्यान को बांट लिया है, इसलिए हम किसी भी चीज़ पर पूरी तरह एकाग्रचित्त नहीं हो पाते हैं। जब आप टेलीविजन पर समाचार देखते हैं तो स्क्रीन के बीचोंबीच एक व्यक्ति समाचार पढ़ रहा होता है, और उसके नीचे दूसरी लिखी हुई खबरें चलती रहती हैं, और स्क्रीन के कोनों में किसी और प्रकार की जानकारी हो सकती है। हम उनमें से किसी भी बात पर पूरी तरह से ध्यान नहीं दे पाते हैं और न ही एकाग्रचित्त होकर उसे देख पाते हैं। यदि हम यह भी मान लें कि हम एक समय में बहुत से कार्य कर सकते हैं, तब भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है – जब तक कि वह स्वयं बुद्ध न हो – जो एक ही समय पर किए जा रहे सभी कार्यों पर शत-प्रतिशत ध्यान लगा सके।

कई बार ऐसा होता है कि हम किसी व्यक्ति के साथ होते हैं और वह व्यक्ति हमसे बात कर रहा होता है, लेकिन हमारा ध्यान अपने सैल-फोन पर होता है। चित्त को स्थिर करने का यह गलत तरीका है क्योंकि वह व्यक्ति हमसे बात कर रहा है और हम उसकी बात पर ध्यान भी नहीं दे रहे हैं। यदि हम किसी चीज़ पर अपने चित्त को स्थिर कर भी लें तब भी चित्त को उसी ध्येय पर टिकाए रखना बहुत कठिन होता है। हम चीज़ों के इतने जल्दी-जल्दी बदलने, और एक के बाद एक चीजों के बदलने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि हमें बहुत जल्दी ऊब होने लगती है। यदि हमारी एकाग्रता ऐसी हो – कुछ पल के लिए किसी एक चीज़ पर, कुछ पल बाद किसी और चीज़ पर – तो यह एक बाधा है। यह त्रुटिपूर्ण एकाग्रता है। उचित ढंग से एकाग्रचित्त हो पाने की क्षमता का अर्थ है कि हम ऊबे बगैर और रुचि खत्म हो जाने के कारण किसी दूसरी चीज़ में रुचि दिखाए बिना जितने समय तक आवश्यक हो, अपने आप को एकाग्रचित्त रख सकें।

एक बड़ी बाधा यह है कि हम सुख-सुविधाओं में प्रवृत्त रहना चाहते हैं। ऐसा त्रुटिपूर्ण सचेतनता, इस सोच के कारण होता है कि क्षणिक आमोद-प्रमोद हमारी तृष्णा को बढ़ाने के बजाए हमें संतोष देगा। समाजविज्ञानियों ने पाया है कि हमारे पास मनोरंजन आदि के जितने अधिक विकल्प होते हैं – और इंटरनेट पर ऐसा है, अनगिनत विकल्प हैं – हमें उतनी ही अधिक ऊब होती है, तनाव और थकान का अनुभव होता है। जब आप कुछ देख रहे होते हैं, उस समय आप सोच रहे होते हैं कि हो सकता है कि कोई दूसरा कार्यक्रम इससे भी अधिक मनोरंजक हो और आपको फिक्र हो जाती है कि कहीं वह आपसे छूट न जाए। इस तरह आप एक से दूसरी चीज़ पर जाते रहते हैं और किसी भी एक चीज़ पर अपने आप को केंद्रित नहीं कर पाते हैं। हालाँकि ऐसा कर पाना कठिन है, लेकिन बेहतर यही है कि आप अपने जीवन को सरल बनाएं, ताकि ऐसा न हो कि एक ही समय में बहुत सारी चीज़ें एक साथ चल रही हों। जैसे-जैसे आपकी एकाग्रता बढ़ेगी, आप तय कर पाएंगे कि आप एक बार में कितने काम संभाल सकते हैं।

यदि आपकी एकाग्रता मज़बूत हो तो आप किसी एक काम पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, और फिर किसी दूसरे काम पर; लेकिन एक बार में एक ही काम पर ध्यान दे सकेंगे और आपकी एकाग्रता भंग नहीं होगी। यह किसी डॉक्टर के काम के जैसा है जो एक बार में एक ही मरीज़ का इलाज करता है और अपने ध्यान को पूरी तरह उसी मरीज़ पर केंद्रित रखता है, अपने पिछले या बाद वाले मरीज़ों के बारे में नहीं सोचता है। हालाँकि एक डॉक्टर दिन भर में कई मरीज़ों को देखता है, लेकिन उसका ध्यान हमेशा एक बार में एक मरीज़ पर ही पूरी तरह से केंद्रित रहता है। एकाग्रता विकसित करने के लिए ऐसा करना बेहतर है।

लेकिन फिर भी यह काम बहुत चुनौती भरा है। जहाँ तक मेरी अपनी बात है, मैं वैबसाइट के सिलसिले में कई तरह के काम देखता हूँ और अलग-अलग भाषाओं से जड़े कार्यों को देखता हूँ। ऐसी स्थिति में किसी एक चीज़ पर अपने ध्यान को केंद्रित रखना सचमुच बड़ा कठिन होता है। इतनी सारी चीज़ें एक ही समय पर एक साथ आ जाती हैं। जटिलताओं से भरे व्यवसायों को करने वाले किसी भी व्यक्ति को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। लेकिन, एकाग्रता को चरणबद्ध तरीके से विकसित किया जा सकता है।

सारांश

अपने आप को एकाग्रता के मार्ग की बाधाओं से मुक्त करने का कार्य बड़ा व्यापक है। इसका एक सरल तरीका यह हो सकता है कि काम करते समय सैलफोन को ऑफ कर दिया जाए, या दिन में एक या दो बार ई-मेल देखने का समय निर्धारित कर लिया जाए ताकि हम पूरी तरह एकाग्रचित्त हो कर अपने काम को कर सकें।

यह वैसे ही है जैसे किसी डॉक्टर या प्रोफेसर से मिलने का समय निश्चित होता है; ऐसा नहीं है कि आप कभी भी आ सकते हों, उनसे मिलने का समय निश्चित होता है। हम भी ऐसा कर सकते हैं और हमें ऐसा करना भी चाहिए, क्योंकि इससे हमें अपनी एकाग्रता को विकसित करने में सहायता मिलेगी।

यहाँ सामाजिक विकास के बारे में चर्चा करना दिलचस्प होगा। पुराने समय में हमारी अपनी मनोदशाएं – मानसिक भटकाव, दिवास्वप्न देखना आदि – ही एकाग्रता में प्रमुख बाधाएं हुआ करती थीं। आजकल कितना कुछ और जुड़ गया है, और इनमें से अधिकांश व्यवधान सैल-फोन, फेसबुक और ई-मेल जैसे बाहरी स्रोतों से उत्पन्न होते हैं। दरअसल इन सब के प्रभाव से पराजित होने से बचने के लिए काफी प्रयास करने की आवश्यकता होती है, और ऐसा करने के लिए सक्षम होने की दृष्टि से हमें इन मीडिया साधनों के नुकसानदेह प्रभावों को समझना होगा। एक सबसे ज़ाहिर दुष्प्रभाव, जिसे बहुत से लोगों ने अनुभव किया होगा, यह है कि ध्यान को केंद्रित रखने की अवधि घटती जा रही है। ट्विटर संदेशों में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या सीमित है और फेसबुक फीड लगातार अपडेट होता रहता है। तेज़ी से होने वाले इन बदलावों के कारण एक ऐसी खराब आदत विकसित होती है जो एकाग्रता के लिए नुकसानदेह है, क्योंकि आप किसी भी चीज़ पर अपने ध्यान को केंद्रित नहीं रख पाते हैं; सब कुछ लगातार परिवर्तनशील है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसके प्रति हमें सचेत रहने की आवश्यकता है।

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