सांख्य और योग दर्शन के मूल सिद्धांत

उद्भव

भारतीय दर्शनशास्त्र के सांख्य दर्शन के प्रवर्तक थे महर्षि कपिल, जिन्होंने सांख्य सूत्र  की रचना की। परन्तु इस सूत्र को केवल 14वीं शताब्दी में ही संकलित किया गया। यद्यपि सांख्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है, सांख्य कारिका  जिसकी रचना 5वीं शताब्दी में ईश्वरकृष्ण द्वारा की गई थी। इसका भाष्य वाचस्पति ने 9वीं शताब्दी में लिखा था।

योग दर्शन का आरम्भ कुछ समय पश्चात्, 5वीं शताब्दी के अंत में, पतंजलि द्वारा रचित योग सूत्र  से हुआ। इसका भाष्य 6ठी शताब्दी के आरम्भ में व्यास ने लिखा। इस दर्शन में सांख्य के मूल सिद्धांत तो हैं ही, साथ ही यह परमतत्त्व ईश्वर को भी मानता है, जो शिव के समकक्ष हैं। 

प्रधान

सांख्य-योग प्रणाली सभी ज्ञेय तथ्यों को 25 वर्गों में विभाजित करती है।

ज्ञेय तथ्यों के इन 25 वर्गों में से 24 में स्थूल तत्त्वों के सभी रूप समाविष्ट हैं। उन्हें सामूहिक रूप से प्रधान या प्रकृति कहते हैं, जो उन 24 में से एक है।

प्रधान के तीन सार्वभौमिक गुण हैं जो रस्सी की भाँति एक दूसरे के साथ गुँथे हुए हैं। वे प्रधान के घटक हैं, न कि कोई गुण जो प्रधान से पृथक हो। संस्कृत में ये तीन इस प्रकार हैं:

  • सत्व - अलग-अलग सन्दर्भों में प्रकाश, लघिमा, बल, तथा सुख 
  • रजस - गतिविधि, गति, और पीड़ा 
  • तमस - विस्मृति, अंधकार, विषाद, और उदासीनता

तीनों सार्वभौमिक गुण संतुलित होते हैं। अतः समग्र रूप से प्रधान या प्रकृति की ये विशेषताएँ हैं:

  • स्थायी, अर्थात् स्थिर, अपरिवर्तनीय और शाश्वत 
  • सर्वव्यापी
  • परमार्थसत्य धर्म युक्त

पुरुष 

पुरुष, आत्मा या आत्म, बोधकर्ता, या ज्ञाता वह आत्म है जिसका खंडन बौद्ध-धर्मी करते हैं। यह चेतना मात्र का समतुल्य है और पूर्णतः निष्क्रिय भी है। सृष्टि में अनंत पुरुष हैं तथा, निष्क्रिय चेतना के रूप में, प्रत्येक के गुण इस प्रकार हैं: 

  • वह स्थायी, अर्थात् अपरिवर्तनीय, स्थिर और शाश्वत है 
  • वह ब्रह्माण्ड में सर्वव्यापक है 
  • वह निरवयव है, अतः त्रिगुणों, जैसे भौतिक प्रपंच, से युक्त नहीं है
  • वह कर्मफल को भोगने वाला चेतन तत्त्व है 
  • वह कर्मों का कर्ता नहीं है, क्योंकि कर्ता तो शरीर है - आत्मा कुछ भी नहीं कर सकती अन्यथा वह परिवर्तनशील हो जाएगी 
  • वह प्रधान के विकारों का स्रष्टा नहीं है।

प्रधान के विकार

स्थूल तत्त्वों के अन्य 23 वर्ग प्रधान के त्रिगुणों के संतुलन का रूप-परिवर्तन या विकार हैं और वे मायिक भी हैं। वे पारंपरिक या सापेक्ष वास्तविकता हैं। समग्र रूप से देखा जाए तो ये 23 वर्ग शाश्वत हैं, परन्तु ये विकार परिवर्तनशील हैं और कर्म के कर्ता भी। ये ही कर्म करते हैं। इस स्थिति को ऐसे समझिए कि प्रधान एक कपड़े की भाँति है जिसकी न तो सृष्टि हो सकती है और न ही विनाश। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अपनेआप ही विनिमय करता है और अतः सदा परिवर्तनीय रहता है, परन्तु यह परिवर्तन केवल माया है। यहाँ तक कि आकाश और समय भी इस कपड़े रूपी प्रधान के विकार हैं। ऐसा नहीं है कि आकाश और समय प्रधान के बाह्य पात्र हैं।

केवल आत्मा और प्रधान ही स्थायी, अर्थात् अपरिवर्तनशील, हैं और ये दोनों ही सर्वव्यापी हैं। बाकी सब सनातन होते हुए भी परिवर्तनशील हैं। सभी घटनाएँ एवं दृश्य प्रपंच सनातन हैं क्योंकि वे अव्यक्त रूपों में सदा अस्तित्वमान रहते हैं, और क्षण-भर के लिए प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार कार्य का परिणाम पहले से ही कारण में विद्यमान रहता है। किसी नई वस्तु की सृष्टि नहीं होती।

प्रधान के विकार कार्य-कारण के यांत्रिक नियमों के अनुसार ही होते हैं। एकमात्र योग दर्शन ही यह मानता है कि ईश्वर इन विकारों के कारण हैं, परन्तु वह भी केवल प्रेरणा के स्रोत के रूप में। इस प्रकार, यद्यपि ईश्वर प्रधान एवं आत्माओं या सत्त्वों के परे हैं, तथापि वे इन दोनों के अस्तित्वमान होने का प्रमुख कारण नहीं हैं, अपितु वे अपनी इच्छानुसार उनकी सृष्टि करते हैं। ईश्वर, प्रधान, तथा आत्मा सभी समान रूप से सनातन हैं।

सांख्य दर्शन किसी परब्रह्म या आदि स्रष्टा के होने का कोई दावा नहीं करता। वह न ही यह कहता है कि प्रधान के विकार सत्त्वों के कारण होते हैं। अपितु उसके अनुसार ये सत्त्वों के विद्यमान होने मात्र से ही उत्पन्न होते हैं। अंततः, विकार ही प्रत्येक सत्त्व को मोक्ष की ओर ले जाता है, परन्तु इसमें प्रधान की ओर से किसी प्रकार की स्वैच्छिक क्रिया का कोई योगदान नहीं होता। अंततः इसके कारण ही सभी सत्त्व मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

महायान बौद्ध धर्म यह कहता है कि सभी सत्त्व मोक्ष तथा ज्ञानोदय प्राप्ति के अधिकारी हैं, परन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि सभी उनकी प्राप्ति कर ही लेंगे। भले ही कोई ब्रह्मांड के सभी बुद्धजनों और बोधिसत्वों से घिरा क्यों न हो, यदि वह व्यक्ति ग्रहणशील नहीं है और उसमें कोई रुचि नहीं है, तो न तो वह बुद्ध की शिक्षाओं का श्रवण करेगा और न ही धर्म का स्मरण या अभ्यास करेगा।

स्थूल तत्त्वों के अन्य 23 वर्ग 

स्थूल तत्त्वों की 23 श्रेणियाँ, जो कि प्रधान के विकार हैं, एक दूसरे के सहारे उद्विकसित होती हैं, और इस प्रकार सभी विकार मूल रूप से तत्त्व एवं ऊर्जा के परिवर्तन का ही परिणाम हैं। ये 23 तत्त्व इस प्रकार हैं:

सचेतनता की भौतिक इन्द्रिय (बुद्धि)

सचेतनता की भौतिक इन्द्रिय, बुद्धि या महत्, वह भौतिक माध्यम है जिससे सत्त्व निष्क्रिय चेतना के रूप में विद्यमान रहता है।

"भौतिक इन्द्रिय" सूक्ष्म पदार्थ या ऊर्जा का एक रूप है। वह मस्तिष्क के किसी भाग की भाँति स्थूल नहीं होता।

अहंकार की भौतिक इन्द्रिय

अहंकार की भौतिक इन्द्रिय की उत्पत्ति बुद्धि या महत् से होती है। यह "मैं" और "मेरा" का भाव लाता है। 

अगले चार समुच्चय अहंकार से उत्पन्न होते हैं:

चित्त की भौतिक इन्द्रिय 

चित्त की भौतिक इन्द्रिय,  मनः इन्द्रिय, अथवा मनस, संवेदी सूचना का चिंतन भी करती है और उसे व्यवस्थित भी। इसका तात्पर्य मस्तिष्क के स्थूल पदार्थ से नहीं है।

इंद्रिय बोध की पाँच भौतिक इन्द्रियाँ

इंद्रिय बोध की पाँच भौतिक इन्द्रियों, अर्थात् बुद्धीन्द्रियों, के द्वारा पाँच क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, यथा: 

  • देखने के लिए चक्षु 
  • सुनने के लिए कर्णेन्द्रिय या श्रोत्र
  • सूँघने के लिए नासिका
  • स्वाद के लिए जिह्वा
  • स्पर्श के लिए त्वचा

इन पाँच बुद्धीन्द्रियों का तात्पर्य आँख इत्यादि स्थूल पदार्थों से नहीं है, अपितु पदार्थ या ऊर्जा के सूक्ष्म रूपों से है जिनके द्वारा स्थूल इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य करती हैं।

कर्म करने की पाँच भौतिक इन्द्रियाँ

कर्म करने की पाँच भौतिक इन्द्रियों के द्वारा निम्नलिखित कायिक कर्म किए जाते हैं, यथा: 

  • बोलने (वाक्) के लिए रसना 
  • धरने के लिए हाथ (पाणि) 
  • चलने के लिए पैर (पाद) 
  • मूत्र-विसर्जन एवं यौन क्रिया के लिए मूत्रद्वार (उपस्थेन्द्रिय)
  • मल विसर्जन के लिए मलद्वार (पायु) 

इन पाँच कर्मेन्द्रियों का तात्पर्य हाथ इत्यादि स्थूल अंगों से नहीं है, अपितु पदार्थ या ऊर्जा के सूक्ष्म रूपों से है जिनके द्वारा स्थूल कर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य करती हैं।

संवेदी सूचना की पाँच सूक्ष्म इन्द्रियाँ 

संवेदी सूचना की पाँच सूक्ष्म इन्द्रियाँ, अर्थात्, पञ्च-तन्मात्राएँ, निम्नलिखित के सूक्ष्म तत्त्व हैं, यथा:

  • देखने के लिए रूप-तन्मात्रा 
  • सुनाने के लिए शब्द-तन्मात्रा
  • सूंघने के लिए गंध-तन्मात्रा
  • रस लेने के लिए रस-तन्मात्रा
  • स्पर्श करने के लिए स्पर्श-तन्मात्रा 

ये पाँच तन्मात्राएँ बहिरंग रूप, शब्द इत्यादि को संदर्भित नहीं करतीं, अपितु उन सूक्ष्म पदार्थ एवं ऊर्जा को संदर्भित करती हैं जिनके द्वारा चाक्षुष इत्यादि सूचना को ग्रहण किया जाता है।

ये विभिन्न तन्मात्राएँ निम्नलिखित के तात्कालिक कारण हैं:

पञ्च महत्तत्व 

ये पञ्च महत्तत्व या महाभूत इस प्रकार हैं, यथा: 

  • पृथ्वी 
  • पानी या अप 
  • अग्नि या तेज
  • हवा या वायु
  • आकाश

इन पाँच महत्तत्वों में से प्रत्येक महत्तत्व सांत परमाणुओं, अत्यंत लघुतम कणों, से बना है।

ये पाँच महत्तत्व इस प्रकार पञ्च तन्मात्राओं के तात्कालिक कारण बनते हैं, यथा: 

  • स्थूल आकाश का तात्कालिक कारण शब्द की तन्मात्रा है 
  • स्थूल वायु के तात्कालिक कारण शब्द तथा स्पर्श की तन्मात्राएँ हैं 
  • स्थूल अग्नि के तात्कालिक कारण शब्द, स्पर्श, एवं रूप की तन्मात्राएँ हैं 
  • स्थूल जल (अप) के तात्कालिक कारण शब्द, स्पर्श, रूप, एवं रस की तन्मात्राएँ हैं  
  • स्थूल पृथ्वी के तात्कालिक कारण शब्द, स्पर्श, रूप, रस, एवं गंध की तन्मात्राएँ हैं

विज्ञान (बोध), अंतःकरण, एवं सूक्ष्म शरीर

किसी भी वस्तु के बोध हेतु  मनः इन्द्रियाँ उस वस्तु के रूप अथवा आयाम का मानसिक प्रतिरूप ग्रणह कर लेती है। यह बौद्ध-धर्म के अनुत्तरयोग तंत्र में सूक्ष्मतम वायु की क्रियापद्धति जैसा है। ये निरूपण मानसिक होलोग्राम की भाँति हैं और उस भौतिक  मनः इन्द्रिय की वृत्ति हैं। यह है विज्ञान (बोध) का निर्वैचारिक (अकल्पित) चरण।

 मनः इन्द्रिय इस मानसिक होलोग्राम की व्याख्या वैचारिक (कल्पित) रूप से करती है और अहंकार उसका अनुभव करता है। फिर, बुध्दि यह निश्चय करती है कि इस निरूपण के लिए कौन-सी प्रतिक्रियात्मक क्रिया करनी चाहिए।

इन तीन भौतिक इन्द्रियों - बुद्धि, अहंकार, और मनस - के संयोजन को "अंत:करण" कहा जाता है।

अंतःकरण के ठीक विपरीत, सत्त्व या आत्मा वह चैतन्य है जो निष्क्रिय है। यद्यपि यह न तो वस्तुओं के मानसिक प्रतिरूपण का अनुभवकर्ता है और न ही उस प्रतिरूपण के प्रतिक्रियात्मक कर्मों का कर्ता, तथापि उन इन्द्रियों के कर्मफल को भोगता है जो इन्द्रिय अपनेआप में चेतन नहीं है। इस प्रकार सत्त्व या आत्मा परात्पर आत्म की भाँति है।

समझने की बात यह है कि सत्त्व या आत्मा एक जीवनकाल से दूसरे जीवनकाल में नहीं जाती क्योंकि वह न तो परिवर्तनशील है और न ही कोई कर्म कर सकती है। जो इस प्रकार गतिशील है वह है सूक्ष्म शरीर या लिंगशरीर । सूक्ष्म शरीर निम्नलिखित का संयोजन है:

  • बुद्धि 
  • अहंकार 
  • मानस 
  • पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ 
  • पाँच कर्मेन्द्रियाँ 
  • पञ्च-तन्मात्राएँ 

प्रत्येक जीवनकाल में स्थूल शरीर पाँच महत्तत्त्वों के विभिन्न संयोजनों से बना होता है, और ये तत्त्व मृत्यु के पश्चात अन्य तत्त्वों में रूपांतरित हो जाते हैं।

मोक्ष

प्रत्येक सत्व या आत्मा बार-बार पुनर्जन्म यासंसार  के दुःख को भोगता है क्योंकि वह अज्ञानता या अविद्या  के कारण इस बात से अनभिज्ञ रहता है कि वह सत्त्व या आत्मा है, न कि शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धि - वह भौतिक माध्यम जिसके द्वारा सत्व अस्तित्वमान होता है। इस अविद्या का कारण अनभिज्ञता है, न कि भूल धारणा या विपर्यय। इसका दोषी अपर्याप्त ज्ञान है, न कि भ्रम। 

मोक्ष तब होता है जब आत्मा को इस बात का पूर्ण ज्ञान और बोध हो जाता है कि यह शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धि नहीं है। मोक्ष प्राप्ति से सत्व या आत्मा प्रधान और उसके विकारों से पूरी तरह विमुक्त और पृथक (केवल ) हो जाती है, अर्थात् कैवल्य को प्राप्त कर लेती है। चूँकि कोई सत्त्व दुःख, सुख, या कर्मफल का अनुभव केवल इसलिए करता है क्योंकि वह शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धि में उलझा रहता है, मोक्ष प्राप्त विमुक्त सत्त्व शुद्ध चेतनता होता है जिसका कोई विषय या आलम्बन नहीं होता।

ध्यान दें कि सांख्य का पक्ष निम्नलिखित वादों से महत्त्वपूर्ण ढंग से पृथक है, यथा:

  • जैन-धर्म का दावा कि विमुक्त, विरक्त आत्मा सर्वज्ञ होती है
  • न्याय-वैशेषिक पक्ष कि वह अचेत होती है
  • अद्वैत वेदांत पक्ष कि वह उस अवस्था से परे है जहाँ वह पूर्ण रूप से सचेत है या पूर्ण रूप से अचेत होती है।
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