कार्य सहायक बौद्ध-धर्मी तर्क-शास्त्र

बुद्ध ने कहा था कि उनके कथनों को केवल आस्था के आधार पर स्वीकार न करें, बल्कि जैसे सोने को कसौटी पर कसा जाता है, वैसे उसे परीक्षण और तर्क-शास्त्र से परखें |

बौद्ध-धर्म में दो प्रकार के तर्क-शास्त्र का प्रयोग किया जाता है | एक है तर्कणा के आधार पर यह प्रतिपाद्य प्रमाणित या स्थापित करना कि कोई विशिष्ट गुण-धर्म किसी बात पर लागू होता है अथवा नहीं | उदाहरण के लिए, मैं जिस प्रतिपाद्य, जिस परियोजना पर कार्य कर रहा हूँ, वह अस्थायी है (वह बदल जाएगी), क्योंकि मेरे शरीर की भाँति वह कारणों और परिस्थितियों से प्रभावित होती है | दूसरी विधि है किसी धर्म की प्रासंगिकता के प्रतिपाद्य का यह दिखाकर खंडन करना कि यदि उसपर गुण-धर्म को लागू किया जाए तो उसके निष्कर्ष असंगत होंगे। उदाहरण के लिए, यह प्रतिपाद्य: मैं जिस परियोजना पर कार्य कर रहा हूँ, वह स्थायी है (स्थिर है ,वह कभी नहीं बदलेगी) | दोनों प्रकार के तर्क-शास्त्र का उद्देश्य है तर्क पर आधारित यथार्थपरक रणनीति का प्रयोग करके असफलता पर विजय पाना और सफलता सुनिश्चित करना |

पहला: मैं जिस परियोजना पर कार्य कर रहा हूँ वह अस्थायी है (वह बदल जाएगी), क्योंकि वह मेरे शरीर की भाँति कारणों और परिस्थितियों से प्रभावित होती है | प्रतिपाद्य को साबित करने के लिए वैध कारण के तीन लक्षणों का सिद्ध होना अनिवार्य है। यहाँ कारण है "क्योंकि वह मेरे शरीर की भाँति कारणों और परिस्थितियों से प्रभावित होती है।"

  • कारण का प्रतिपाद्य विषय पर लागू होना अनिवार्य है  – क्या कार्यस्थल पर मेरी समस्या कारणों तथा परिस्थितियों से प्रभावित होती है? हाँ, यदि वित्तीय परिस्थिति बदलती है, परियोजना से जुड़े कुछ कर्मकार बीमार हो जाते हैं, यदि मैं बीमार हो जाता हूँ, तो इसका परियोजना पर प्रभाव पड़ेगा।
  • यह कारण उन सभी दृश्य-प्रपंचों के समरूप वर्ग पर लागू होना चाहिए जो उन गुण-धर्म को सांझा कर रहे हैं जिन्हें साबित किया जाना हो – हाँ, मेरे शरीर की भाँति जो भी दृश्य-प्रपंच बदलते हैं उनपर कारणों और परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। मेरा शरीर एक समरूप उदाहरण है। तो आप अन्य उदाहरण भी सोचते हैं, जैसे मेरे साथी के साथ, मेरे माता-पिता के साथ, मेरे बच्चों के साथ मेरा सम्बन्ध - ये सब बदलते हैं और इन सब पर वयोवृद्ध होने की भाँति कारणों तथा परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। फिर आपको हर प्रकार के अपवाद को अलग करने की आवश्यकता है।
  • यह कारण उन सभी दृश्य-प्रपंचों के प्रतिरोधी वर्ग पर लागू नहीं होना चाहिए जिनमें साबित किए जाने वाला गुण-धर्म न हो  – हाँ, वे सभी दृश्य-प्रपंच जो स्थायी हैं और कभी नहीं बदलते, उनपर कारणों और परिस्थितियों का प्रभाव नहीं पड़ता, उदाहरण के लिए ये तथ्य जैसे यहाँ पृथ्वी पर एक दिन में केवल 24 घंटे होते हैं। ये तथ्य प्रतिरोधी उदाहरण हैं और इनपर किसी भी बात का प्रभाव नहीं पड़ता - चाहे हम कितने भी कर्मकारों को काम पर रख लें, फिर भी दिन में केवल 24 घंटे ही रहेंगे जिनमें काम किया जा सकता है।

इस तर्क-पद्धति की वैधता के आधार पर, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जिस परियोजना पर मैं कार्य कर रहा हूँ, वह अस्थायी है क्योंकि उसपर कारणों और परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है, और इसलिए वह परिवर्तित होगी। इससे हमें एक रणनीति मिलती है। जैसे परिस्थितियाँ बदलती हैं, उदाहरण के लिए उपयोगकर्ता परीक्षण दर्शाता है कि हमें सफलता नहीं मिल रही, जिसका परियोजना पर प्रभाव पड़ रहा है, तो हम उसके अनुसार परिवर्तन कर सकते हैं।

दूसरे प्रकार के बौद्ध-धर्मी तर्कशास्त्र के द्वारा हम यह दर्शाते हैं कि जिस परियोजना में मैं काम कर रहा हूँ यदि वह स्थायी हो - स्थिर हो और कभी न बदल सकती हो - तो किस प्रकार के असंगत निष्कर्ष निकलेंगे? यदि ऐसा होता तो पहले तो वह विद्यमान ही न होता क्योंकि यदि वह कारणों और परिस्थितियों से अप्रभावित होता तो ऐसी कोई आवश्यकता न होती जिसे वह पूरा कर सकता। इसके अतिरिक्त चाहे कुछ भी हो, जैसे कर्मकार काम छोड़ दें और उनके स्थान पर दूसरों को रखना पड़े, तब भी इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस प्रकार विश्लेषण करने से हम अपने इस विसंगत विचार से मुक्त हो जाते हैं कि हमारी परियोजना स्थिर है और उसमें किसी प्रकार का बदलाव संभव नहीं है तथा उसे बदलती परिस्थितियों के अनुसार ढाला नहीं जा सकता, क्योंकि परिस्थितियाँ तो अपरिहार्य रूप से बदलेंगी ही।

Top