ट्रैफिक की भीड़ में फंसे होने पर शून्यता के सिद्धान्त को कैसे लागू करें

शून्यता का अर्थ अस्तित्वमान होने के असम्भव तरीकों का पूर्ण अभाव होता है। कोई भी चीज़ अपनी ही सत्ता के आधार पर स्वस्थापित होकर, किसी दूसरी चीज़ पर निर्भर हुए बिना अस्तित्वमान नहीं हो सकती है। यह असम्भव है। उदाहरण के लिए, जब हम किसी मूर्ख व्यक्ति के रूप में किसी व्यक्ति के भ्रमकारी आभास को शून्यता के बोध के साथ विखंडित करते हैं, तो हम पाते हैं कि मूर्ख होना पूरी तरह से किसी के मूर्ख होने सम्बंधी लेबल और मूर्ख होने की अवधारणा पर निर्भर है। यह बोध उस समय हमारे क्रोध को नियंत्रित रखने में हमारी सहायता करता है जब कोई व्यक्ति सड़क पर ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजाते हुए हमारे वाहन से आगे निकलने का प्रयास कर रहा हो।

अनभिज्ञता

बुद्ध ने चार आर्य सत्यों के आधार पर अपनी शिक्षाएं दी थीं। ये सत्य ऐसे चार तथ्य हैं जिन्हें कोई भी उच्च सिद्धि प्राप्त सत्व, “आर्य” सत्य मानता है। मूलतः ये सत्य इस प्रकार हैं,

  1. हम सभी जीवन में दुखों का सामना करते हैं,
  2. ये दुख किन्हीं कारणों से उत्पन्न होते हैं,
  3. इन दुखों का इस प्रकार पूरी तरह निरोध करना सम्भव है कि वे फिर लौट कर न आ सकें,
  4. इस निरोध को एक ऐसे बोध को प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है जो दुखों के कारणों को समाप्त कर देता है।

जब हम अपने दुखों के गहनतम कारण की चर्चा करते हैं तो जो निष्कर्ष निकलता है उसका अनुवाद सामान्यतया “अज्ञान” के रूप में किया जाता है। अंग्रेज़ी भाषा में “अनअवेयरनेस” (अनभिज्ञता) का प्रयोग कहीं बेहतर है। अज्ञान का निहितार्थ यह होता है कि आप मूढ़ हैं, इसलिए यह अभिव्यक्ति उपयुक्त नहीं है। अनभिज्ञ होने का अर्थ यह नहीं है कि हम मूर्ख हैं।

अनभिज्ञता के दो अलग-अलग स्वरूप होते हैं। एक स्तर पर हम अपने व्यवहार के कारण और प्रभाव के बारे में अनभिज्ञ होते हैं, कि यदि हम विनाशकारी आचरण करेंगे तो उससे समस्याएं उत्पन्न होंगी। यदि गहराई से देखें तो हम यथार्थ के बारे में अपनी अनभिज्ञता की बात कर रहे होते हैं। होता यह है कि हम यह कल्पना करने के अभ्यस्त होते हैं कि चीज़ें अपने “अन्तर्जात अस्तित्व” स्वरूप में अस्तित्वमान होती हैं जिसे “आत्म-स्थापित अस्तित्व” भी कहा जा सकता है। हमारी यह आदत “अन्तर्जात अस्तित्व को समझने” की आदत होती है। हमारी इस आदत के कारण ही हमारा चित्त हर क्षण चीज़ों के स्वतः ही अन्तर्जात रूप में अस्तित्वमान होने का आभास उत्पन्न करता है। इसका यह मतलब है कि ऐसा आभास होता है कि जैसे चीज़ों में ही कुछ ऐसा होता है जो दूसरी किसी भी बात पर निर्भर हुए बिना अपनी ही सत्ता से चीज़ों के अस्तित्व को उस रूप में स्थापित कर देता है जैसी वे दिखाई देती हैं। हम इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि इस प्रकार का अस्तित्व किसी भी प्रकार से वास्तविक नहीं है, फिर भी हम चीज़ों को इसी प्रकार से अस्तित्वमान मान लेते हैं।

इसे समझना आसान नहीं है। हम इसे एक उदाहरण की सहायता से समझा सकते हैं। मान लीजिए कि हम अपनी कार चलाकर कहीं जा रहे हैं और साथ वाली लेन में कोई व्यक्ति तेज़ आवाज़ में हॉर्न बजाते हुए हमसे आगे निकलने की कोशिश कर रहा है। हमें यह सब कैसा प्रतीत होता है? हमसे आगे निकलने का प्रयास करता हुआ वह व्यक्ति हमें मूर्ख दिखाई देता है। वह व्यक्ति अन्तर्जात रूप में मूर्ख के रूप में अस्तित्वमान दिखाई देता है; वह किसी भी दूसरी चीज़ से स्वतंत्र रहते हुए अपने ही आप मूर्ख सिद्ध होता हुआ दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में, ज़ाहिर है कि इस व्यक्ति में कुछ गड़बड़ी है, जिसके कारण वह ऐसा मूर्ख हो गया है कि तेज़ आवाज़ में हॉर्न बजाते हुए मुझसे आगे निकलने की कोशिश कर रहा है। हम हॉर्न की आवाज़ को सुनते हैं, उस व्यक्ति को देखते हैं, और स्वतः ही सोचते हैं, “अरे मूर्ख!” वह व्यक्ति वैसा दिखाई देता है और हम विश्वास कर लेते हैं कि उसका ऐसा दिखाई देना ही वास्तविकता है: यह व्यक्ति सचमुच मूर्ख है।

वीडियो: गेशे ताशी त्सेहरिंग — हमारे दैनिक जीवन में शून्यता
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शून्यता किसे अमान्य ठहराती है

मूर्ख के रूप में इस व्यक्ति की उपस्थिति के इस वैचारिक बोध का मानसचित्रित लक्ष्य (अन्तर्निहित लक्ष्य) क्या है? इस बोध का मानसचित्रित लक्ष्य एक ऐसा व्यक्ति है जो वास्तव में मूर्ख के रूप में अस्तित्वमान है; कार के भीतर सचमुच एक अन्तर्जात मूर्ख बैठा हुआ है। इस प्रकटन और हमारे चित्त द्वारा उसे इस रूप में ग्रहण किए जाने का यही निहितार्थ है। उदाहरण के लिए, यदि मुझे लगता है कि दूसरे कमरे में कोई है, तो मानसचित्रित लक्ष्य दूसरे कमरे में मौजूद कोई व्यक्ति होगा; यह वह चीज़ है जो वास्तविकता में उसके विचार के अनुरूप होगी। “मानसचित्रित लक्ष्य” माध्यमक (मध्यम मार्ग) के अध्ययन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण तकनीकी अभिव्यक्ति है।

किसी वैचारिक बोध में कई लक्ष्य शामिल होते हैं। किसी मानसचित्रित लक्ष्य के लिए “झ़ेन-युल” में प्रयुक्त तिब्बती शब्द झ़ेन का प्रयोग “भावनात्मक रूप से निर्भर होने” के लिए क्रिया के रूप में किया जा सकता है, और संज्ञा के रूप में झ़ेन-पा का अर्थ “भावनात्मक निर्भरता” होता है, जैसाकि “चार प्रकार की भावनात्मक निर्भरता से मुक्ति” की शाक्य शिक्षा में प्रयुक्त है। वह इस दृष्टि से चिपकता है कि वह किसी ऐसी चीज़ के साथ जुड़ जाता है जो वास्तव में वैचारिक बोध में प्रतीत होने वाली छवि के अनुरूप हो। जब आत्म-स्थापित, अन्तर्जात अस्तित्व को समझने की बात होती है तो उसमें यह पूर्वधारणा अन्तर्निहित होती है कि कोई चीज़ जिस ढंग से अस्तित्वमान दिखाई देती है, दरअसल वही वास्तविकता है। हमारे उदाहरण में हम यह मानसचित्रण करते हैं कि दूसरी कार में ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजाने वाला व्यक्ति अन्तर्जात रूप में मूर्ख व्यक्ति के रूप में अस्तित्वमान है। मानसचित्रण के कारण हमें यह प्रतीत होता है जैसे वहाँ उस कार में कोई मूर्ख बैठा है, और इसलिए हम मान लेते हैं कि वास्तव में वह मूर्ख है; हम अपनी कल्पना पर यकीन कर लेते हैं। इस बोध और इस आभास का मानसचित्रित लक्ष्य एक वास्तविक मूर्ख व्यक्ति है जो वहाँ उस कार में मौजूद है।

शून्यता एक अभाव है; किसी चीज़ का न होना है। इस मामले में मानसचित्रित लक्ष्य पूरी तरह से अनुपस्थित है। किसी अन्तर्जात वास्तविक मूर्ख का आभास वास्तविकता से मेल नहीं खाता है। हालाँकि वहाँ कोई व्यक्ति मौजूद है जो उस कार को चला रहा है, लेकिन अन्तर्जात रूप में वह किसी मूर्ख के रूप में अस्तित्वमान नहीं है। अन्तर्जात रूप में किसी का भी अस्तित्व मूर्ख के रूप में नहीं हो सकता है क्योंकि मूर्ख के रूप में अन्तर्जात अस्तित्व जैसी कोई चीज़ नहीं होती है। इसलिए उस कार में कोई अन्तर्जात मूर्ख मौजूद नहीं है। यह एक सामान्य विचार है। लेकिन हमें इसमें सुधार करना पड़ेगा क्योंकि यह विचार उतना सटीक नहीं है।

हम एक और अधिक सरल उदाहरण का प्रयोग करेंगे, हालाँकि यह उतना सटीक नहीं है। मान लीजिए कि किसी बच्चे को लगता है कि उसके पलंग के नीचे कोई राक्षस बैठा है। यहाँ मानसचित्रित लक्ष्य पलंग के नीचे बैठा कोई वास्तविक राक्षस होगा। इस बच्चे के डर का किसी वास्तविक चीज़ से सम्बंध नहीं है। इस प्रकार, जब हम शून्यता की बात करते हैं तो उसका मतलब किसी निश्चित चीज़ का पूर्ण अभाव होता है। यह किसी ऐसी चीज़ का अभाव होता जिसका अस्तित्व ही नहीं होता है। उसका होना सर्वथा असम्भव है।

किन्तु शून्यता की दृष्टि से हम राक्षस जैसी किसी ऐसी चीज़ की बात नहीं करते हैं जिसका होना असम्भव है। हम उस प्रकार के अस्तित्व की बात करते हैं जिसका होना असम्भव है। उदाहरण के लिए, पलंग के नीचे कोई बिल्ली हो सकती है जिसे बच्चा राक्षस समझता है, लेकिन वह बिल्ली राक्षस के रूप में अस्तित्वमान नहीं है, क्योंकि “राक्षस के अस्तित्व” जैसा कुछ नहीं होता है। यहाँ शून्यता बिल्ली के अस्तित्व का खंडन नहीं करती है, वह तो राक्षस के रूप में बिल्ली के अस्तित्व का खंडन करती है।

किसी लेबल को मान्य सिद्ध करना

अब हम मूर्ख व्यक्ति वाले अपने उदाहरण को एक बार फिर देखेंगे। परम्परागत दृष्टि से यह व्यक्ति किसी मूर्ख की तरह कार को चला रहा हो सकता है, लेकिन यह कैसे हो सकता है कि हम “मूर्ख” की अपनी संकल्पना की सहायता से उस पर लेबल कैसे लगा सकते हैं और उसे मूर्ख कैसे कह सकते हैं? भारतीय आचार्य चंद्रकीर्ति ने किसी लेबल को मान्य समझने की तीन कसौटियाँ बताई हैं।

पहले तो एक ऐसी स्थापित और स्वीकृत परम्परा होनी चाहिए जो लेबल के अनुरूप हो। जर्मनी में वाहन चलाने के सलीके के कुछ नियम हैं और लगातार दूसरे सभी वाहनों के बराबर से गुजरते हुए हॉर्न बजाते हुए जाने को उचित नहीं माना जाता है। ऐसा करने वाले किसी व्यक्ति को मूर्ख माना जा सकता है। यह स्थिति सापेक्षिक है। भारत में ऐसी ड्राइविंग को सामान्य समझा जाएगा। एक बार मैं अपने एक भारतीय मित्र के साथ यूरोप आया, पश्चिम जगत में यह उनका पहला दौरा था और उन्हें यह देख कर बहुत हैरानी हुई कि लोग तेज़ हॉर्न बजाए बिना ही ड्राइविंग कर रहे थे! चूँकि पश्चिम जगत में यह परम्परा है कि इस प्रकार ड्राइविंग करने वाले व्यक्ति को मूर्ख कहा जाता है, इसलिए इस दृष्टि से ऐसी ड्राइविंग करने वाले व्यक्ति को मूर्ख कहना सही है।

दूसरी कसौटी यह है कि इसका खंडन किसी ऐसे चित्त द्वारा नहीं किया जाना चाहिए जिसे मान्य रूप से सतही या पारम्परिक सत्य का बोध हो। निष्पक्षता से कहा जाए तो महत्वपूर्ण बात यह है कि वह व्यक्ति किसी मूर्ख की भांति ड्राइव कर रहा है या नहीं? क्या मैंने अपना चश्मा ठीक ढंग से पहन रखा है? क्या मैंने अपना श्रवण सहायक यंत्र ठीक ढंग से लगा रखा है? क्या मैं ठीक ढंग से देख और सुन रहा हूँ? आसपास का हर व्यक्ति भी देख रहा है कि यह व्यक्ति हर किसी को पीछे छोड़ने की कोशिश करता हुआ तेज़ हॉर्न बजाता चला जा रहा है, इसलिए दूसरे लोगों के मान्य दृष्टिकोण से भी इस परम्परागत पहलू का खंडन नहीं हो रहा है।

तीसरी कसौटी यह है कि इस लेबलिंग का खंडन किसी ऐसे चित्त द्वारा नहीं किया जाना चाहिए जो मान्य रूप से गहनतम सत्य को देखता हो। इसका सम्बंध किसी ऐसे चित्त से है जो मान्य रूप से यह देखता हो कि यह व्यक्ति मूर्ख के रूप में किस प्रकार अस्तित्वमान है। वह मूर्ख कैसे है? क्या वह केवल पारम्परिक दृष्टि से इस आधार पर मूर्ख है कि वह कहाँ और कैसे ड्राइव कर रहा है, या ऐसा है कि हम ही यह कल्पना कर रहे हैं कि यह व्यक्ति अन्तर्जात रूप में मूर्ख के रूप में अस्तित्वमान है? यदि हम ऐसा सोचते हैं कि यह व्यक्ति सचमुच अन्तर्जात रूप में मूर्ख है तो इसका खंडन किसी ऐसे चित्त द्वारा किया जाएगा जिसे यह बोध हो कि चीज़ों के अस्तित्व का वास्तविक आधार क्या है। यह व्यक्ति पारम्परिक दृष्टि से किसी मूर्ख की भांति ड्राइव कर रहा है। यह सही है, यह एक मान्य परम्परा है, एक मान्य लेबल है, और एक मान्य सतही सत्य है। होता यह है कि हम इस बात को बढ़ाचढ़ा कर देखते हैं कि वह मूर्ख के रूप में किस प्रकार अस्तित्वमान है। मूर्ख के रूप में उसका अस्तित्व तो बहुत सी बातों पर निर्भर करता है – विशेष तौर पर मानसिक लेबलिंग पर, जिसके बारे में हम थोड़ी देर बाद चर्चा करेंगे।

हम बाहरी रूप को बढ़ाचढ़ा कर देखते हैं और उसकी कल्पना किसी ऐसे रूप में कर लेते हैं जो होता नहीं है: इस प्रकार अस्तित्व में होना जो वास्तव में होता नहीं है। ऐसा हम जानबूझ कर नहीं करते हैं, यह अनजाने में होता है। वह तो चीज़ों को इस प्रकार से देखने की हमारी आदत के कारण स्वतः ही हो जाता है। बढ़ाना-चढ़ाना यह है कि वह व्यक्ति अन्तर्जात रूप में मूर्ख के रूप में अस्तित्वमान है। मूर्ख के रूप में अन्तर्जात रूप में ऐसे अस्तित्व का किसी वास्तविक चीज़ से सम्बंध नहीं है। यहाँ भी हम हम एक असम्भव प्रकार के अस्तित्व की बात कर रहे हैं, किसी असम्भव लक्ष्य की नहीं।

सहजात और अन्तर्जात के बीच अंतर

अब हम अन्तर्जात अस्तित्व और मानसिक लेबलिंग के अर्थ को थोड़ी गहराई से देखेंगे। हमें सहजात और अन्तर्जात के बीच के अन्तर को समझना होगा।

हमारे भीतर कई सहजात गुण होते हैं। उदाहरण के लिए, हमारे मानसिक सातत्य का एक सहजात शरीर होता है, वाक्शक्ति होती है, और चित्त होता है, बोध होता है, मनोभाव आदि होते हैं जो हमारे सत्व होने का हिस्सा होते हैं। हमारे भीतर बुद्ध-धातु होता है और बुद्ध-धातु के सभी गुण होते हैं। सहजात के लिए प्रयोग किए जाने वाले तिब्बती भाषा के पारिभाषिक पद ल्हान-साइक्स और संस्कृत भाषा के सहजात का अनुवाद कभी-कभी “साथ-साथ उत्पत्ति” के रूप में किया जाता है। इसका मतलब है कि ये चीज़ें हमारे सत्व होने का हिस्सा हैं और इनकी उत्पत्ति चित्त के प्रत्येक क्षण के साथ-साथ होती रहती है। हम जागे हुए हों या सोए हुए हों, अनुभूति के प्रत्येक क्षण में हमारा शरीर होता है, वाक्-शक्ति होती है, और चित्त होता है। सोते समय हम बात भले ही न कर रहे हों, लेकिन हमारे पास सम्प्रेषण की क्षमता होती है। उदाहरण के लिए, दूसरे लोग हमें देख कर समझ सकते हैं कि हम सो रहे हैं। फिर भले ही हम सोते समय खर्राटे न ले रहे हों, हमारे श्वास की एक निश्चित लय होती है और धीमापन होता है जिससे पता चलता है कि हम सो रहे हैं। यह उदाहरण बताता है कि हम किस प्रकार हर समय संप्रेषण करते रहते हैं। हालाँकि इस गुण का अनुवाद अक्सर “वाक्” के रूप में किया जाता है, किन्तु इसे केवल मौखिक वाक् शक्ति तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए। ये सहज कारक हैं।

अन्तर्जात इससे बिल्कुल अलग है। कोई अन्तर्जात गुण, यदि उसका अस्तित्व हो, एक दृष्टि से सहज होगा, लेकिन स्वयं अपनी सत्ता से वह किसी चीज़ को अस्तित्व में ला सकता है और उसे उस रूप में अस्तित्व में ला सकता है जैसी वह दिखाई देती है। कभी-कभी इसका उल्लेख किसी वस्तु में अन्तर्निहित किसी ऐसे विशेष गुण या निर्धारक गुण के रूप में किया जाता है जो उसे उस वस्तु का स्वरूप प्रदान करता है। इस मूर्ख के मामले में, उसमें कुछ न कुछ वास्तव में कुछ गड़बड़ होगी, जिसे उसके भीतर तलाश किया जा सकता है, जो स्थायी तौर पर वहाँ होगी, और जो अपनी ही सामर्थ्य से उसे मूर्ख बनाती है। अक्सर हम ऐसा सोचते हैं: “पड़ोस में रहने वाला यह खराब व्यक्ति हर समय संगीत बजाता रहता है...” या “अभी मैंने जिस व्यक्ति को देखा वह कितना अच्छा है...” जैसे उस व्यक्ति के भीतर सहज तौर पर हमेशा से ही कुछ ऐसा था जो उसे इस तरह से अस्तित्वमान बनाता है। मैंने यहाँ भावनात्मक आवेग वाले उदाहरणों का प्रयोग किया है, लेकिन यही बात दूसरी सभी चीज़ों पर भी लागू होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आपके भीतर अन्तर्जात रूप में कुछ ऐसा है जो आपको अन्तर्जात रूप में मानवीय बनाता है।

उस ड्राइवर को अन्तर्जात रूप में मूर्ख के रूप में अस्तित्वमान बनाने वाला यह गुण उसे अपने ही प्रभाव से बाकी सभी चीज़ों से स्वतंत्र रहते हुए मूर्ख के रूप में अस्तित्वमान बनाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यदि हम वास्तव में जाँच करके देखें तो उस गुण को तलाश कर पाएंगे और दिखा सकेंगे। बेशक, जब हम चीर-फाड़ करके जाँच करते हैं तो हमें उस लक्ष्य में ऐसा कुछ नहीं मिलता है जिसके कारण वह लक्ष्य वैसा बन जाता है जैसाकि वह है। यदि आप कार में बैठे इस व्यक्ति का विश्लेषण करना शुरू करें तो आपको अनगिनत अणु मिलेगें और ऊर्जा क्षेत्र मिलेगें लेकिन आपको उसमें ऐसी कोई मूर्त चीज़ नहीं मिलेगी जिसे दिखा कर आप कह सकें कि इस चीज़ ने उसे मूर्ख बनाया था। यदि हम माइक्रोसेकेंड्स में इस व्यक्ति के कार्यकलापों का विश्लेषण करें तो हमें उसकी उँगलियाँ एक मिलीमीटर एक ओर और फिर एक मिलीमीटर दूसरी ओर चलती हुई दिखाई देंगी, तो फिर वह क्या है जिसके कारण वह व्यक्ति मूर्ख बनता है? आप किसी एक माइक्रोसेकेंड का व्यवहार नहीं दिखा सकते जिसके कारण वह व्यक्ति मूर्ख हो, क्या आप दिखा सकते हैं? इसी प्रकार आप वहाँ बैठे उस लक्ष्य के बारे में कोई ऐसी बात पता नहीं कर सकते हैं जो उसे अपने ही प्रभाव से मूर्ख के रूप में अस्तित्वमान बनाता हो – हालाँकि वह मूर्ख जैसा दिखाई देता है।

पारम्परिक तौर पर वह किसी मूर्ख की तरह व्यवहार कर रहा है। यहाँ हमें इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि हम बाहरी दिखावट की सटीकता और उस व्यक्ति के पारम्परिक दृष्टि से व्यवहार की सटीकता को न नकारें। वह व्यक्ति किसी मूर्ख की तरह व्यवहार कर रहा है; यह बात सही है। समस्या यह है कि वह किसी मूर्ख की तरह अस्तित्वमान कैसे दिखाई दे रहा है। वह अन्य दूसरे कारकों के आधार पर मूर्ख की तरह व्यवहार कर रहा है; यह बात स्वयं उससे अलग दूसरी चीज़ों पर निर्भर है। ऐसा नहीं है कि यह व्यक्ति अपने भीतर की किसी चीज़ के प्रभाव के कारण किसी मूर्ख की तरह व्यवहार कर रहा है। यह व्यक्ति अलग-अलग हिस्सों (उसका हाथ एक विशेष ढंग से हरकत कर रहा है, आदि) के आधार पर और कारणों (वह ट्रैफिक में फंसा हुआ है और जल्दी में है) के आधार पर किसी मूर्ख की तरह व्यवहार कर रहा है। यदि वह अन्तर्जात रूप में मूर्ख होता, तो वह उस समय मूर्ख नहीं होता जब वह ड्राइव न कर रहा होता या जब वह सो रहा होता। इसके अलावा वह अनेक प्रकार के सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, और वैयक्तिक कारणों से भी किसी मूर्ख की तरह व्यवहार कर रहा हो सकता है। इन सब कारणों से ही यह व्यक्ति किसी मूर्ख की तरह ड्राइव करता है।

मानसिक लेबलिंग

इसके अलावा, और भी अधिक आधारभूत स्तर पर हम कह सकते हैं कि मूर्ख की तरह ड्राइव करने वाले व्यक्ति का बोध “मूर्ख” की अवधारणा पर निर्भर करता है। यदि ऐसी कोई अवधारणा ही न होती तो हम यह नहीं कह पाते कि यह व्यक्ति किसी मूर्ख की तरह ड्राइव कर रहा है, क्या हम ऐसा कह पाते? यह चर्चा हमें मानसिक लेबलिंग के दायरे में ले जाती है।

मानसिक लेबलिंग का विषय काफी भ्रामक हो सकता है। जब हम इस व्यक्ति को मूर्ख कहते हैं, तो हमारे कहने भर से वह मूर्ख नहीं हो जाता है, है न? हम छोटे-छोटे बच्चों की बात नहीं कर रहे हैं जो एक-दूसरे को चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं, “तुम मूर्ख हो!” किसी लेबल या नाम में यह शक्ति नहीं होती है कि वह उसे वैसा ही बना दे जैसा नाम हम उसे देते हैं। बहुत से लोग समझते हैं कि हम मानसिक लेबलिंग का मतलब है कि हम शब्दों और अवधारणाओं की सहायता से चीज़ों का निर्माण करते हैं। बौद्ध धर्म में मानसिक लेबलिंग का यह अर्थ निश्चित तौर पर नहीं है।

इसे सोच कर देखिए। हम इस व्यक्ति को मूर्ख के रूप में लेबल करें या न करें, और हम “मूर्ख” के बारे में सोचें या न सोचें, और इस व्यक्ति को ड्राइव करते हुए देखने के लिए सड़क पर कोई दूसरा व्यक्ति मौजूद हो या न हो, क्या तब भी वह किसी मूर्ख की तरह ड्राइव कर रहा होगा? यदि वह सड़क पर अकेला हो और उसे मूर्ख कहने वाला कोई न हो, क्या वह तब भी किसी मूर्ख की तरह ड्राइव कर रहा है?

देखिए, आपको मानना पड़ेगा कि इसका जवाब ऐसे लोगों के समूह के लिए अलग होगा जिनके यहाँ मूर्ख की अवधारणा है, और जिस समूह के यहाँ यह अवधारणा नहीं है, उस समूह के लिए लोगों के लिए इसका जवाब अलग होगा। इसलिए यह बात समूह और उस समूह की अवधारणात्मक संरचना पर निर्भर करती है। आप बस इतना ही कह सकते हैं कि यह व्यक्ति एक निश्चित परम्परा की दृष्टि से किसी मूर्ख की तरह ड्राइव कर रहा है, लेकिन वह पूरी तरह और अन्तर्जात रूप में किसी मूर्ख के रूप में ड्राइव नहीं कर रहा है। यह तो नियमों और परम्पराओं पर निर्भर करता है, फिर भले ही उसे कोई देख रहा हो या न देख रहा हो। यदि हम ऐसा कहते हैं कि यह बात बाकी सभी चीज़ों से पूर्णतः स्वतंत्र है और केवल उस व्यक्ति के ड्राइव करने के ढंग पर आधारित है, तो यह असम्भव है। मानसिक लेबलिंग की दृष्टि से लोग इन बातों को लेकर सबसे अधिक भ्रमित होते हैं।

तब आपके मन में यह प्रश्न उठ सकता है, “तो क्या हम निष्पक्ष तौर पर यह कह सकते हैं कि यह व्यक्ति किस तरह ड्राइव करता है?” इस प्रश्न का विश्लेषण करना ही सबसे अच्छा रहेगा। यही समस्या है, यह बोध हासिल करना कि वास्तव में क्या हो रहा है। क्या वह वास्तव में किसी मूर्ख की तरह ड्राइव कर रहा है या नहीं? जब हम इस विषय के दायरे में प्रवेश करते हैं कि वह वास्तव में क्या है, तो हम अन्तर्जात अस्तित्व के दायरे में होते हैं। यह व्यक्ति “मूर्ख” की अवधारणा, पाश्चात्य रीति-रिवाज़ों आदि के आधार पर किसी मूर्ख की तरह ड्राइव कर रहा है। इसे बढ़ा-चढ़ा कर देखने की बात यह है कि वह वास्तव में मूर्ख है। यही आत्म-सिद्ध अन्तर्जात अस्तित्व है; और यह असम्भव है।

मैं मानता हूँ कि इससे यह संकेत मिलना शुरू होता है कि यह भ्रम कितना गहरा है क्योंकि हममें से अधिकतर लोग दरअसल यह जानना चाहते हैं कि चीजें वास्तव में कैसी हैं और हम सोचते हैं कि ऐसा कोई ढंग है जिस ढंग से वे वास्तविक रूप में अस्तित्वमान होती हैं, है न? हम कहते हैं, “यह मकान वास्तव में बड़ा शानदार है,” या “आज शाम हमने वास्तव में बहुत अच्छा समय बिताया,” मानो इसमें कोई अन्तर्जात चीज़ हो कि हर किसी को उसे उसी रूप में देखना चाहिए। चूँकि हम इसके इतने आदी हो चुके होते हैं कि सब कुछ हमें स्वतः वैसा ही दिखाई देता है और हम उसे वैसे ही समझते हैं। इसे “भ्रामक स्वरूप निर्माण” कहा जाता है, कभी-कभी इसे “द्वैत स्वरूप” कहा जाता है। यहाँ “द्वैत” का मतलब है कि यह स्वरूप बेमेल है, बिल्कुल वैसा ही नहीं है जैसा वास्तविक स्वरूप है। वह स्वरूप जैसा दिखाई देता है वह उसके वास्तविक अस्तित्व से भिन्न है। गेलुग-प्रासंगिक प्रयोग की दृष्टि से द्वैत स्वरूप का यही अर्थ है।

बात यह है कि यह व्यक्ति किसी मूर्ख की तरह ड्राइव कर रहा है। पारम्परिक दृष्टि से यह विवरण सटीक है। हमारी राय हमारे भ्रांत चित्त के कारण ऐसी हो सकती है जिससे कोई भी सहमत न हो, या फिर हमारी राय ऐसी हो सकती है जिससे दूसरे लोग सहमत हों। यहाँ जर्मनी में दूसरे लोग इस बात से सहमत होंगे कि यह व्यक्ति किसी मूर्ख की तरह ड्राइव कर रहा है, लेकिन इस कारण से वह कोई वास्तविक मूर्ख नहीं बन जाता है। हमारी यह राय हो सकती है कि कोई कुत्ता ड्राइव कर रहा है, लेकिन कोई इस बात से सहमत नहीं होगा। तो राय निराधार भी हो सकती है और राय मान्य प्रकार की भी हो सकती है।

बात यह है कि चीज़ों की प्रकृति को समझने के लिए मान्य बोध उपलब्ध होते हैं। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। तिब्बती बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में इस अन्तर को स्पष्ट करने वाली अलग-अलग व्याख्याएं हैं। गेलुग पद्धति में सटीक और त्रुटिपूर्ण बाह्य सत्यों की बात की जाती है। किसी चीज़ के बारे में त्रुटिपूर्ण बाह्य सत्य उसके पारम्परिक स्वरूप से मेल नहीं खाता है। किसी चीज़ के पारम्परिक स्वरूप और उसके वास्तविक स्वरूप में अस्तित्व के बीच बड़ा अन्तर होता है।

स्वातंत्रिक और प्रासंगिक की गेलुग चर्चा में मान्य लेबलिंग

हम कैसे निश्चय करते हैं कि कोई राय मान्य है। हम मान्य लेबलिंग का निश्चय करने के लिए चंद्रकीर्ति की तीन कसौटियों का प्रयोग करते हैं। यहाँ गेलुग में स्पष्ट किए गए अनुसार स्वातंत्रिक-माध्यमक और प्रासंगिक-माध्यमक के बीच अन्तर दिखाई देता है। काग्यू में इन दोनों पद्धतियों के बारे में व्याख्या थोड़े अलग ढंग से की गई है। माध्यमक में मुख्य बिंदु यह होता है कि प्रत्येक वस्तु मानसिक लेबलिंग पर अवलम्बित रहते हुए अस्तित्वमान होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि इन चीज़ों की उत्पत्ति मानसिक लेबलिंग से होती है। मानसिक लेबलिंग की माध्यमक प्रस्तुति चित्तमात्र जैसे कम उन्नत भारतीय बौद्ध सिद्धांतों की चित्त और वस्तुओं के बीच के सम्बंधों की व्याख्या का परिमार्जित रूप है। मत सम्प्रदायों के बारे में सही क्रम में अध्ययन करने का एक महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि इससे चित्त और वस्तुओं के बीच के सम्बंध को उत्तरोत्तर उन्नत स्तर पर समझा जा सकता है।

ग्रंथों में किसी व्यक्ति को “राजा” के रूप में लेबल किए जाने के उदाहरण का प्रयोग किया गया है। कोई भी ऐसा व्यक्ति “राजा” शब्द और उसकी अवधारणा के आधार पर राजा के रूप में अस्तित्वमान होता है। ज़ाहिर है कि यदि राजाओं की सामाजिक परम्परा न रही होती तो कोई भी राजा न होता। अब प्रश्न यह है: वह क्या है जो किसी लेबल को मान्य बनाता है? स्वातंत्रिक कहता है कि चीज़ों में कुछ ऐसी तलाशे जाने योग्य अन्तर्जात विशेषता होती है जिसकी सहायता से हम चीज़ों पर उनके स्वरूप के अनुसार सही लेबल लगा सकते हैं। राजा के भीतर कुछ ऐसा होगा जो उसे शाही स्वरूप प्रदान करता है ताकि हम उसे “राजा” के रूप में लेबल कर सकें। यदि ऐसा न रहा होता तो हम किसी कुत्ते को या किसी झाड़ू लगाने वाले को “राजा” के रूप में लेबल कर सकते थे और ऐसा करने से वे राजा हो जाते। हम समझ सकते हैं कि इसके पीछे कुछ राजनैतिक चिंतन है। दरअसल यह कोई मज़ाक नहीं है। यह दर्शन भारत में विकसित हुआ जहाँ विषयों को जाति की दृष्टि से देखना बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए उस व्यक्ति में कोई ऐसी अन्तर्जात विशेषता होती होगी जिसके कारण वह राजसी जाति का सदस्य बन जाता था। यह स्वातंत्रिक है।

प्रासंगिक कहता है नहीं, व्यक्ति के अपने भीतर ऐसा कोई पहचान किए जाने योग्य गुण नहीं है जो राजा बनाता हो। हाँ, पारम्परिक तौर पर इसे परिभाषित करने वाली विशेषताएं अवश्य हैं। राजशाही व्यवस्था के अन्तर्गत किसी देश पर शासन करने वाला व्यक्ति राजा होता है। एक पहचान बताने वाला गुण है जो बताता है कि राजा क्या होता है। यदि किसी भी चीज़ की परिभाषा न होती तो उनके लिए काम करना कठिन होता – लेकिन ये परिभाषाएं केवल पारम्परिक ही होती हैं। ऐसा नहीं है कि निर्धारक विशेषताएं वास्तव में वस्तु के भीतर पहचाने जाने योग्य विशेषता के रूप में विद्यमान रहती हैं, जो अपनी ही सत्ता से किसी व्यक्ति को, उदाहरण के लिए, राजा बना सकती हैं।

हम कैसे निश्चय कर सकते हैं कि लेबल मान्य है? एक बार फिर हम चंद्रकीर्ति की तीन कसौटियों की ओर लौटते हैं। अब चूँकि इन्हें समझना बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए हम इन्हें एक दूसरे उदाहरण की सहायता से स्पष्ट करेंगे। पहली बात तो यह है कि एक स्थापित और सहमति पर आधारित परम्परा होती है। हम घर लौट कर अपने पार्टनर को देखते हैं। चर्चा की सहूलियत के लिए हम मान लेते हैं कि हमारी पार्टनर एक महिला है। उसके चेहरे पर एक निश्चित प्रकार का भाव है: उसकी भृकुटी पर शिकन है, मुँह लटका है, और हमें ऐसा लगता है कि वह परेशान और नाराज़ है। इसकी एक स्थापित परम्परा होनी चाहिए। यह पहली कसौटी है। एक परम्परा है कि मनुष्य, विशेष तौर पर पाश्चात्य संस्कृतियों के लोग, जब परेशान होते हैं तो उनकी भृकुटी में बल पड़ जाता है और उनका मुँह लटक जाता है। कुत्ते गुर्राते हैं, लेकिन मनुष्य अपने परेशान होने की अवस्था को इसी प्रकार से प्रकट करते हैं। हमारी पार्टनर मनुष्यों की अपनी नाराज़गी को प्रकट करने की परम्परा के अनुसार ही व्यवहार कर रही है। बाहरी रूप की मान्यता तय करने का यह एक तरीका है। उसके हाव-भाव उसके पिछले पारम्परिक पैटर्न के अनुरूप हैं या नहीं इसकी जाँच करने के लिए हम इसकी तुलना उन पिछले अवसरों के साथ कर सकते हैं जब वह परेशान और नाराज़ हुई हो।

दूसरी कसौटी यह है कि उसका खंडन किसी ऐसे चित्त द्वारा न किया गया हो जो बाह्य सत्यों को मान्य समझता है। हम अपना चश्मा पहनते हैं, बत्ती जलाते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि हम हाव-भाव को ठीक ढंग से देख सकें। यहाँ ऐसा नहीं है कि अंधेरा था, हमने ठीक से नहीं देखा, या हमने अपना चश्मा नहीं पहन रखा था। यह कसौटी बहुत ही व्यावहारिक है।

हालाँकि ग्रंथों में इसका स्पष्ट तौर पर उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन हम इस दूसरे बिन्दु से सम्बंधित दूसरी कसौटियों, जैसे किसी चीज़ की प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता, की जाँच कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब हमने उसे “हैलो” कहा तो उसने पलट कर हमें कोई जवाब नहीं दिया। यह एक और प्रमाण है कि उसके परेशान होने के हाव-भाव का आभास सटीक है। उसके दूसरे व्यवहार से इस बात की पुष्टि हो गई कि वह परेशान है, क्योंकि जब वह परेशान होती है तो वह किसी को हैलो नहीं कहती है। दूसरे शब्दों में, क्रोध ने अपना सामान्य प्रभाव उत्पन्न किया है। यदि हम सचमुच और जाँच करना चाहेँ तो हम उससे पूछ सकते हैं कि क्या वह परेशान है।

यदि हम बात को यहीं छोड़ दें और बस यह कहें, “हाँ, वह परेशान और नाराज़ है क्योंकि शायद आज कोई बहुत अप्रिय घटना घटित हुई है, यह बात बहुत से कारणों पर निर्भर है,” तो हमारा बोध पूरी तरह से मान्य है। इसका खंडन किसी ऐसे चित्त द्वारा नहीं किया जाएगा चो मान्य रूप से गहनतम स्तर को देखता है, कि चीज़ें किस प्रकार अस्तित्वमान होती हैं, हमारा पार्टनर किस प्रकार क्रोधित होते हुए अस्तित्वमान है।

यदि हमें लगता है कि हमारी पार्टनर केवल किसी कारण से नाराज़ नहीं है, बल्कि यदि हम सोचते हैं कि “हे भगवान, यह फिर नाराज़ हो गई। यह बहुत क्रोधी स्वभाव की है, हमेशा किसी न किसी बात पर नाराज़ होती है। मैं इसका कुछ नहीं कर सकता!” तो इसका खंडन ऐसे चित्त द्वारा होता है जो मान्य ढंग से गहतनतम सत्य को देख सकता है। अन्तर्जात रूप से किसी का भी ऐसा अस्तित्व नहीं होता है।

इस प्रकार हम इस व्यक्ति के उसकी अपनी ओर से अन्तर्जात रूप में क्रोधी होने तथा किसी बात के न होते हुए भी परेशान या क्रोधित होने के लेबल को मान्य करते हैं। जब हम शून्यता की बात करते हैं, तब हम उस स्थिति की बात कर रहे होते हैं जब हम समझते हैं कि वह एक बुरी व्यक्ति है। शून्यता उस प्रकार से अस्तित्वमान होने के ढंग का पूर्ण अभाव है; उस व्यक्ति में किसी ऐसी खराबी के वास्तव में मौजूद होने का पूर्ण अभाव जिसके कारण उसके साथ रहना वास्तव में तकलीफदेह है। जब हम इस बात पर विश्वास करते हैं कि वह वास्तव में इस रूप में अस्तित्वमानन है, तो हम अशांतकारी ढंग से प्रतिक्रिया करते हैं। हम उससे नाराज़ और अधीर हो जाते हैं।

आप यह प्रश्न पूछ सकते हैं, “क्या इस स्थिति से समझदारी और शांतिपूर्वक निपटना इस बात को समझने पर भी निर्भर नहीं करता है कि हमारी पार्टनर की नाराज़गी का क्या कारण है?” देखिए, यदि हम यह समझ भी न पाएं कि वह क्यों नाराज़ है, तब भी हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि उसकी नाराज़गी की वजहें होंगी, कारण होगें; ऐसा तो है नहीं कि वह अन्तर्जात रूप में हमेशा ही नाराज़ रहती है। इससे हमें यह समझने में सहायता मिलती है कि शायद इस स्थिति को किसी तरह से बदला जा सकता है। लेकिन, यह कहना सही होगा, “मेरी पार्टनर नाराज़ और परेशान है।“ यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। यदि हम इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि हमारी पार्टनर पारम्परिक दृष्टि से परेशान है, तो फिर हमारे पास उसके प्रति करुणा का भाव रखने और उसकी सहायता करने का क्या आधार होगा? जब हम उसे हितकारी ढंग से समझते हैं तो हम शून्यवाद की चरम स्थिति तक पहुँच जाते हैं।

बाह्य सत्य को सटीक ढंग से पहचानने पर इस प्रकार से बल दिए जाने से शून्यता और करुणा के बीच एक बहुत घनिष्ठ सम्बंध स्थापित होता है। यदि ऐसा न हो तो हम दूसरों को इतनी गम्भीरता से नहीं ले पाते हैं और इससे दूसरों की समस्याओं के साथ जुड़ने और उनकी सहायता करने में बाधा उत्पन्न होती है। यह बात बहुत गूढ़ है, लेकिन मुझे लगता है कि यह बहुत महत्वपूर्ण है।

अवलंबित उत्पत्ति (प्रतीत्यसमुत्पाद) और कर्म

यदि आप प्रतीत्यसमुत्पाद को समझते हैं तो आपको इस बात की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि सकारात्मक और नकारात्मक कृत्य सचमुच सकारात्मक और नकारात्मक होते हैं। यह बात बिल्कुल सच है। सापेक्षता की बात करते समय हम चीज़ों को उस सीमा तक नहीं ले जाते हैं कि किसी भी चीज़ का मतलब कुछ भी समझा जा सके। भले ही उसके पीछे की प्रेरणा कुछ भी हो, हत्या करना विनाशकारी कृत्य ही होता है। यदि हम बहुत प्रबल करुणा भाव के कारण भी हत्या करते हैं, जैसा कि बुद्ध ने उस नाविक की हत्या करके किया था जो एक नाव पर सवार 499 व्यापारियों की हत्या करने वाला था, तब भी वह हत्या करने का विनाशकारी कृत्य ही कहलाएगा। उसका विपाक दुख की अनुभूति के रूप में हुआ: बुद्ध के पाँव में एक कांटा चुभ गया। इसका दुख, नकारात्मक परिणाम बहुत छोटे थे क्योंकि करुणा की प्रेरणा प्रबल थी, लेकिन फिर भी वह एक विनाशकारी कृत्य था और यहाँ भी कर्म का नियम लागू होता है: कोई भी विनाशकारी कृत्य दुख का कारण बनता है। नकारात्मक कृत्य की प्रबलता सापेक्ष होती है, लेकिन वह पूर्णतः सापेक्ष नहीं होती है – कोई विनाशकारी कृत्य सकारात्मक नहीं बन सकता है। बौद्ध धर्म इस बात से सहमत है कि जगत एक व्यवस्था के अनुसार चलता है।

पारम्परिक दृष्टि से हत्या करना एक विनाशकारी कृत्य है। लेकिन वह कौन सा तत्व है जो इसे विनाशकारी बनाता है? हम यही कह सकते हैं कि इसमें पहचाने जाने योग्य ऐसा कुछ नहीं है जो अपने ही दम पर इसे विनाशकारी कृत्य बनाता हो। यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई ऐसा हो जो हत्या करने वाला हो, कोई हो जिसकी हत्या की जाए, और एक मानसिक सातत्य हो जो इस कृत्य से प्रभावित होता है और परिणामतः दुख भोगता है। उस कृत्य का कार्मिक बल कर्ता के मानसिक सातत्य के साथ तब तक चलता रहता है जब तक कि हत्या करने वाला कर्ता अपने कृत्य के परिणामस्वरूप दुख नहीं भोग लेता है। हम किसी कृत्य के बारे में यह नहीं कह सकते हैं कि वह कारण और प्रभाव से स्वतंत्र रहते हुए “विनाशकारी” है। वह किसी आधार के बिना ही विनाशकारी नहीं हो सकता है। विनाशकारी होने का मतलब होता है कोई ऐसा कृत्य जिसका विपाक कर्ता के लिए दुख भोगने के रूप में होता है।

तो फिर वह क्या है जो हत्या के कृत्य को विनाशकारी बनाता है? वह कृत्य स्वयं अपने से अलग कुछ कारकों के आधार पर विनाशकारी है – इस मामले में कृत्य के कार्मिक प्रभाव पर आधारित है। ऐसा नहीं है कि वह कृत्य अपने आप में ही विनाशकारी हो, अपने ही भीतर के किसी निर्धारक गुण के कारण वैसा हो।

हम एक और उदाहरण देखते हैं जो दिन-प्रतिदिन के जीवन की स्थितियों के ज्यादा करीब है। हमारा कुत्ता रसोई के फर्श को खराब कर देता है और हम क्रोधित होकर चिल्लाने लगते हैं, “घटिया कुत्ते! तुमने फर्श गंदा कर दिया! तुमने यह बुरा काम किया है! मानो वह कृत्य अपने आप में सब चीज़ों से स्वतंत्र रहते हुए अपने आप में बुरा हो। इस उदाहरण में कृत्य के “मानव-निर्मित” परिणाम की कल्पना करना उस कार्मिक प्रभाव की कल्पना करने की तुलना में ज्यादा आसान है जिसे उस कुत्ते को भोगना होगा। कृपया इस बात को ध्यान में रखें कि किसी कार्मिक प्रभाव और मानव-निर्मित प्रभाव के बीच फर्क होता है। इस मामले में कृत्य का मानव-निर्मित, या यूँ कहें कि कुत्ते द्वारा निर्मित प्रभाव यह है कि कुत्ते ने फर्श गंदा कर दिया है और हमें उसे साफ करना पड़ेगा। इस कसौटी के आधार पर कुत्ते ने जो किया वह अच्छा नहीं था।

प्रतीत्यसमुत्पाद और विकल्प

मान्य लेबलिंग और मान्यता के बारे में इस चर्चा के आलोक में सही निर्णय लेने की दृष्टि से हम क्या सुझाव दे सकते हैं? किसी भी निर्णय को लेने में बहुत सारे कारकों की भूमिका होती है। यह बात सिर्फ किसी एक या दूसरे विकल्प को समस्या के उत्तर या समाधान के रूप में चिह्नित करने भर की नहीं होती है। यह तय करने के लिए कि पारम्परिक दृष्टि से कौन सा निर्णय सबसे उपयुक्त रहेगा, हमें परिणाम को प्रभावित करने वाले ज्यादा से ज्यादा सम्भावित कारकों को ध्यान में रखने की आवश्यकता होगी। जो कुछ भी घटित होता है वह केवल किसी एक ही कारण से नहीं होता है। यहाँ यह महत्वपूर्ण होता है कि हम अपने कृत्यों और हमें क्या करना चाहिए इसके बारे में अपने निर्णयों के महत्व को आवश्यकता से अधिक बढ़ा-चढ़ा कर न देखें। यदि हम कोई बात कहते हैं और कोई दूसरा व्यक्ति उससे नाराज़ हो जाता है, तो उस व्यक्ति के नाराज़ होने के पीछे हमारे द्वारा कही गई बात के अलावा और भी कई कारक होते हैं।

बड़ी आसानी से यह कह दिया जाता है, “यदि हमारी नीयत अच्छी है तो फिर हम जो कुछ भी करने का फैसला करें वह ठीक है,” लेकिन अंग्रेज़ी में एक कहावत है: “केवल भला करने की मंशा ही काफी नहीं है, भला करके भी दिखाना चाहिए।“ इसके अलावा, हमारे द्वारा चुनी जा सकने वाली प्रत्येक वैकल्पिक कार्य योजना के पीछे अनेक प्रकार की मंशाएं और प्रेरणाएं होती हैं, इसलिए यह सब बहुत ही जटिल है।

कुछ लोग कहते हैं, “स्वाभाविक रूप से व्यवहार करो,” लेकिन अक्सर स्वाभाविक होने का मतलब विक्षिप्तों जैसा व्यवहार करना होता है। यदि हमारा बच्चा रो रहा हो तो पहला विचार हमारे मन में यह आता है कि बच्चे को एक थप्पड़ जड़ दें, तब हम यह नहीं कह सकते हैं कि यही सबसे अच्छा निर्णय था क्योंकि यह स्वाभाविक विचार था। हमें निर्णय लेने से पहले अधिक से अधिक विकल्पों पर विचार करने का प्रयास करना चाहिए, खास तौर पर किसी रिश्ते को खत्म करने का फैसला करने से पहले या किसी नौकरी को बदलने का निर्णय लेने के बारे में। हमें स्पष्ट होना चाहिए कि मेरी क्या करने की इच्छा हो रही है, मैं क्या करना चाहता हूँ, मुझे क्या करना चाहिए, और मेरी सहज प्रवृत्ति क्या कहती है। ये चारों बातें अलग-अलग हो सकती हैं।

उदाहरण के लिए, मैं वज़न घटाने के लिए अपने आहार को नियंत्रित करना चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि मैं अपने आहार पर नियंत्रण को बनाए रखूँ, लेकिन मेरी इच्छा थोड़ा सा केक खाने की हो रही है। मेरी सहज प्रवृत्ति मुझसे कहती है कि बाद में मुझे अपराध बोध होगा। हमें अपने निर्णय के इन चारों पहलुओं का विश्लेषण करना चाहिए, और प्रत्येक पहलू के कारणों का भी विश्लेषण करना चाहिए। हो सकता है कि केक के लोभ के कारण हमारी खाने की इच्छा हो रही हो। हम वज़न क्यों घटाना चाहते हैं? क्या स्वास्थ्य कारणों से, या फिर मिथ्याभिमान के लिए, या कोई साथी तलाश करने की दृष्टि से अधिक आकर्षक लगने के लिए? हमें अपने कृत्यों के परिणामों की जाँच कर लेनी चाहिए और फिर सभी विभिन्न कारकों की भी इस दृष्टि से जाँच कर लेनी चाहिए कि इनमें से कौन से कारक मान्य हैं और कौन से कारक मान्य नहीं हैं। उदाहरण के लिए, “मैं अभी खाना नहीं खाना चाहता हूँ, मेरी खाने की इच्छा नहीं है, लेकिन यदि मैं अभी नहीं खाऊँगा तो फिर मुझे दिन भर खाने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए मुझे इस समय कुछ खा लेना चाहिए।“

इस तरह हम सभी कारकों के प्रति यथासम्भव ढंग से संवेदनशील रहते हुए निर्णय लेने का प्रयास करते हैं। मुश्किल निर्णय लेते हुए यह बात खास तौर पर महत्वपूर्ण होती है। जब इस तरह का निर्णय लेना हो कि मैं काली कमीज़ पहनूँ या फिर नीली, या फिर रेस्तराँ के मेन्यू में से खाने के लिए क्या चुनूँ – ऐसी स्थिति में हम कुछ भी चुन सकते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यहाँ हम बहुत ज़्यादा विश्लेषण नहीं करना चाहते हैं। निर्णय लेना कोई आसान काम नहीं है।

यह जानना बहुत दिलचस्प है कि अनिर्णय की स्थिति में दुविधा में होना छह मूल अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों में से एक है जहाँ हम फैसला नहीं कर पाते हैं। चित्त को कमज़ोर करने वाली इस चित्तावस्था से उबरने के लिए हम धर्म में बताए गए उन कारकों के विश्लेषण का सहारा ले सकते हैं जो हमें किसी कार्य को करने के लिए प्रवृत्त करते हैं। कर्म तथा चित्त की प्रक्रियाओं सम्बंधी शिक्षाओं से हमें इन कारकों की उत्पत्ति के बारे में बहुत उन्नत जानकारी मिल सकती है। उस दायरे के भीतर हम विश्लेषण करके देख सकते हैं कि तिब्बती बौद्ध धर्म के विभिन्न मतों के अनुसार कौन से कारक मान्य हैं और कौन से कारक अमान्य हैं।

तो, हम यह निश्चय कैसे करें कि हमने सही निर्णय लिया है? जब तक कि हम स्वयं बुद्ध न बन जाएं, हम कभी यह नहीं जान सकते हैं कि हमने सही निर्णय लिया है या नहीं। हमें अपने कृत्यों के परिणामों की जानकारी नहीं है। इसके अलावा, हमें स्म्भावित बदलावों के बारे में और अधिक व्यापक और उदार दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है, खास तौर पर किसी सम्बंध को खत्म करने सम्बंधी निर्णयों को लेने में। यह सचमुच कठिन है। अधिक से अधिक सम्भव कारकों को देख लेने के बाद हमें उस दूसरे व्यक्ति के साथ चर्चा करके देखना चाहिए कि बात किस दिशा में आगे बढ़ती है।

यहाँ इस संदर्भ में शून्यता के बारे में हमारी चर्चा में शून्यता का मतलब किसी स्थिति विशेष में किसी ऐसी चीज़ का अभाव होगा जो अपने ही दम पर उस निर्णय को सही बनाती हो। उसका अस्तित्व इस प्रकार का नहीं होता है; वह निर्णय बहुत सी दूसरी चीज़ों पर निर्भर होता है। ऐसा नहीं है कि कोई एक चीज़ जो हम तय करते हैं या कहते हैं, वह अपने आप से ही घटित होने वाले किसी प्रभाव को उत्पन्न कर सकती है। जो घटित होता है, वह केवल हमारे द्वारा किए जाने वाले किसी कार्य से ही नहीं, बल्कि लाखों प्रकार के विभिन्न कारणों से घटित होता है।

हमें ऐसा लग सकता है कि हमारे द्वावा किए गए किसी कार्य के कारण सब कुछ गड़बड़ हो गया और इसलिए हम दोषी हैं, जैसे हमारे कृत्य में ही कुछ ऐसा था जिसने सब कुछ बिगाड़ दिया। हमें ऐसा ही लगता है और हम उस पर विश्वास कर लेते हैं और स्वयं को दोषी मान लेते हैं। पारम्परिक दृष्टि से हो सकता है कि हम गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार हों, लेकिन निश्चित तौर पर जो हमने किया वह स्वयं दूसरी सभी चीज़ों से स्वतंत्र रहते हुए अपने आप में ही गड़बड़ी को उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार नहीं है। उसके कई कारण थे। बुद्ध ने कहा था कि पानी की बाल्टी पहली या आखिरी बूँद के कारण नहीं भरती है; वह तो सभी बूँदों के संग्रह से भरती है। किसी प्रभाव को उत्पन्न करने वाले हज़ारों कारण होते हैं जो घटित होने वाली घटनाओं के लिए जिम्मेदार होते हैं।

उत्तरदायित्व और अपराध बोध

उदाहरण के लिए, मैंने पानी का गिलास लुढ़का कर फर्श को गंदा कर दिया। यह केवल मेरे गिलास को लुढ़का देने के कारण ही नहीं हुआ, बल्कि उस व्यक्ति के कारण भी हुआ जिसने गिलास को मेज़ के किनारे रखा था, उस व्यक्ति के कारण हुआ जिसने मेज़ को बनाया था, इसलिए हुआ क्योंकि वह एक निश्चित ऊँचाई पर रखा था और प्रकाश की स्थिति ऐसी थी कि मुझे दिखाई नहीं दिया – इसके लाखों कारण थे।

अब निश्चित तौर पर हम यह नहीं कह सकते हैं कि इस गड़बड़ी के लिए मेज़ को बनाने वाला या गिलास को किनारे पर रखने वाला व्यक्ति जिम्मेदार है। हम उत्तरदायी हैं, लेकिन फिर भी हम दोषी नहीं हैं। गिलास मैंने ही लुढ़काया लेकिन इससे मैं अन्तर्जात रूप में ऐसा बेढंगा मूर्ख नहीं बन जाता हूँ जो चीज़ों को फैला देगा और इसलिए आप मुझे अपने साथ कहीं ले जा न सकें। लोग ऐसी चीज़ों को अपनी पहचान मान लेते हैं: “मैं बेढंगा हूँ” या “मैं लाइट बल्ब को तोड़े बिना उसे बदल नहीं सकता हूँ, इसलिए मेरी मदद कीजिए।“ इस तरह के विचार बहुत आम होते हैं। हम सभी इस तरह से सोचते हैं। यहाँ हम किसी जटिल दार्शनिक विषय की चर्चा नहीं कर रहे हैं; यहाँ हम सामान्य दैनिक जीवन की बात कर रहे हैं।

इसलिए “अपराध बोध” का मतलब होता है कि हमारे भीतर अन्तर्जात रूप में कुछ ऐसा है जिसके कारण हम बुरे व्यक्ति हैं और हम जो करते हैं वह अन्तर्जात रूप में बुरा है। जब हम कुछ करते हैं तो उसे अन्तर्जात रूप में बुरा समझ लेते हैं और अपने आप को भी बुरा व्यक्ति मान लेते हैं, और फिर उस पहचान के साथ चिपके रहते हैं और उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं। शून्यता के बोध के साथ हम यह समझ पाते हैं कि ऐसा कोई नहीं है और कुछ भी नहीं है जो अन्तर्जात रूप में “बुरे” के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व रख सकता हो। जब हम इसका गहन बोध हासिल कर लेते हैं तो हमें अपराध बोध नहीं रहता है, लेकिन साथ ही यदि हमें शून्यता का सही बोध हासिल हो जाए तो इस बात को भी समझ पाते हैं कि हम अपने कृत्यों के लिए उत्तरदायी हैं।

सारांश

शून्यता के बोध के साथ हम समझ पाते हैं कि हालाँकि तेज़ आवाज़ में हॉर्न बजाकर हमसे आगे निकलने का प्रयास करने वाला हमारे बराबर में ड्राइव कर रहा व्यक्ति हमें वास्तव में मूर्ख जैसा दिखाई देता है, लेकिन हम उसे यथार्थ नहीं मानते हैं। हमें यह बोध हो जाता है कि चीज़ें किस प्रकार “मूर्ख” शब्द और उसकी अवधारणा, और बहुत से दूसरे कारकों पर अवलंबित रहते हुए उत्पन्न होती हैं। इस बोध के कारण हम अपना धैर्य नहीं खोते हैं और उस व्यक्ति पर क्रोधित नहीं होते हैं। जर्मन परम्पराओं की दृष्टि से वह व्यक्ति पारम्परिक तौर पर किसी मूर्ख की तरह ड्राइव करता हुआ प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसके कारण वह अन्तर्जात रूप में बुरा व्यक्ति होने का दोषी नहीं बन जाता है।

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