तिब्बती पंचांग
तिब्बती खगोल विद्या और ज्योतिष शास्त्र अत्यंत पेचीदा है। धर्मशाला, भारत स्थित तिब्बतन मेडिकल एंड ऐस्ट्रो इंस्टीट्यूट के खगोल विद्या विभाग में इसका अध्ययन करने और महारत हासिल करने में पाँच वर्ष का समय लगता है। यहाँ छात्र सभी प्रकार की गणनाएं पारम्परिक तरीके से हाथ से करना सीखते हैं और कालिख पुती हुई लकड़ी की तख्ती पर क़लम की मदद से लिखते हैं। पूरी गणनाओं का कोई ऐसी पत्रा नहीं है जिसमें सभी गणनाओं को देखा जा सकता हो। सभी गणनाओं गणित की शिक्षा इस प्रशिक्षण का एक प्रमुख हिस्सा है।
हिन्दू परम्पराओं की ही तरह कालचक्रतंत्र में भी “पाँच ग्रहों और पाँच समावेशी लक्षणों” के निर्धारण के लिए सूत्र दिए गए हैं। ये पाँच ग्रह हैं बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, और शनि। तिब्बती पंचांग के लिए इन ग्रहों, और सूर्य तथा चंद्रमा और आसंधियों की स्थितियों की गणना एक गणितीय मॉडल के आधार पर की जाती है जैसाकि प्राचीन यूनानी प्रणाली में भी किया जाता था। इस प्रकार यह व्यवस्था चीनी खगोल विद्या से भिन्न है जहाँ ग्रहों आदि की स्थिति और गति का निर्धारण अधिकांशतः अवलोकन के आधार पर किया जाता था। जहाँ कहीं चीनी गणित का प्रयोग किया जाता है वह मूलतः बीजगणितीय होता है।
प्राचीन समय में यूनानी लोग ग्रहों की गति का निर्धारण और वर्णन करने के लिए मुख्यतः ज्यामिति, यानी ज्यामितीय अनुपातों का प्रयोग करते थे। हिन्दू तंत्रों ने ज्या फलन को विकसित किया, और उनमें केवल ज्यामितीय विधियों का प्रयोग करने के बजाए त्रिकोणितीय विधियों का प्रयोग किया जाता है। वहीं दूसरी ओर तिब्बती प्रणाली में की जाने वाली गणनाओं में न ज्यामितीय अनुपातों का प्रयोग किया जाता है और न ही त्रिकोणमितीय फलनों का प्रयोग होता है, बल्कि ये गणनाएं शुद्ध रूप से गणितीय होती हैं।
पंचांग और जंत्री बनाने के लिए पंचांग के पाँच समावेशी लक्षणों की आवश्यकता होती है: चंद्र दिवस, चंद्र मास की तिथि, चंद्र तारामंडल, संयोग दशा, और कर्म दशा। पहले दो लक्षणों का प्रयोग चंद्र और सूर्य पंचांगों के बीच समन्वय के लिए किया जाता है।
तिब्बती और हिन्दू पद्धतियों में तीन प्रकार के दिन होते हैं। राशिचक्र के 360 अंशों में से एक अंश आगे बढ़ने में सूर्य को जितना समय लगता है उसे एक राशिचक्रीय दिन कहा जाता है। वहीं दूसरी ओर, सूर्य दिवस एक उषाकाल से दूसरे उषाकाल के बीच का समय होता है। चंद्रमा की कलाओं के साथ सहसम्बद्ध करते हुए, राशिचक्र की प्रत्येक राशि में नए चंद्रमा की स्थितियों को बीच की दूरी के एक तीसवें हिस्से तक बढ़ने में चंद्रमा को लगने वाले समय को चंद्र तिथि दिवस कहते हैं। चंद्र तिथि दिवस के शुरुआती बिंदु की गणना एक गणितीय प्रक्रिया से की जाती है जो सूर्य और ग्रहों की स्थिति का निर्धारण करने के लिए प्रयोग की जाने वाली प्रक्रिया से मिलती-जुलती है। इन तिथि दिवसों की गणना सप्ताह के सात चंद्र दिवसों के चक्र के रूप में की जाती है जिन्हें सात ग्रहों के नाम के आधार पर नाम दिए गए हैं। चंद्र पंचांग को सौर पंचांग के साथ सहसम्बंधित करने के लिए इन चंद्र दिवसों का सौर दिवसों के साथ तालमेल बिठाए जाने की आवश्यकता होती है। यह काफी जटिल है।
पहली बात तो यह है कि कृष्ण पक्ष की शुरुआत हर माह दिन के बिल्कुल एक ही समय पर नहीं होती है। इसलिए चंद्रमा अपने चक्र के एक तीसवें हिस्से की इस दूरी को सौर दिवस के किसी भी समय तय करना शुरू कर सकता है। चंद्रमा के चक्र के एक तीसवें हिस्से के सफर में लगने वाले समय को सप्ताह का दिन कहा जाता है। इस प्रकार सप्ताह का दिन सौर दिवस के अलग-अलग समयों पर शुरू हो सकता है।
इसके अलावा, चंद्रमा को इन एक तीसवें हिस्सों का सफर तय करने में अलग-अलग समय लगता है क्योंकि चंद्रमा की गति उसकी अपनी स्थिति और राशिचक्र में सूर्य की स्थिति के साथ-साथ बदलती रहती है। इस प्रकार दो लगातार सौर दिवसों के उषाकालों के बीच बीतने वाले सप्ताह के चंद्र दिवस की समयावधि में अन्तर होता है क्योंकि सप्ताह के चंद्र दिवसों की अवधि में भी अन्तर होता है।
चंद्र मास की तिथियों को, जोकि पंचाग के दूसरे समावेशी लक्षण का निर्माण करती हैं, एक से लेकर तीस तक संख्यांकित किया जाता है और वे सौर दिवसों की ही तरह उषाकाल से उषाकाल तक चलती हैं। समस्या यह होती है कि सप्ताह के किस दिन को कौन सी तिथि कहा जाए। इसका समाधान इतना सरल नहीं होता है क्योंकि सप्ताह के चंद्र दिवस – जोकि सप्ताह के दिवसों को निर्धारित करते हैं क्योंकि उन्हें रविवार, सोमवार आदि नाम दिए जाते हैं – अलग-अलग समय पर शुरू होते हैं और अलग-अलग समयावधि वाले होते हैं।
नियम यह है कि सप्ताह का दिन इस बात से तय होता है कि चंद्र तिथि के उषाकाल के समय किस सप्ताह का कौन सा चंद्र दिवस हो रहा है। उदाहरण के लिए, सोमवार जैसा सप्ताह का चंद्र दिवस किसी माह की दूसरी तिथि में प्रारम्भ हो सकता है और तीसरी तिथि की दोपहर में खत्म हो सकता है। चूँकि तीसरी तिथि उषाकाल, जिसे यहाँ पूर्वाह्न 5.00 बजे माना जाता है, के समय सप्ताह का चंद्र दिवस सोमवार ही है, इसलिए तीसरी तिथि को सोमवार ही माना जाएगा।
सप्ताह कि किसी दिन को न तो कभी भी दोहराया जा सकता है और न ही छोड़ा जा सकता है। रविवार के तुरन्त बाद सोमवार आना ही चाहिए, उसके तुरन्त बाद दूसरा रविवार या मंगलवार नहीं आ सकता है। लेकिन कभी-कभी दो लगातार तिथियों के उषाकाल सप्ताह के एक ही चंद्र दिवस में आ सकते हैं। उदाहरण के लिए, सप्ताह का सोमवार चंद्र दिवस तृतीया के उषाकाल से पाँच मिनट पहले शुरू हो सकता है, और अगले दिन मंगलवार चतुर्थी के उषाकाल के पाँच मिनट बाद शुरू हो सकता है। इससे तृतीया और चतुर्थी दोनों ही सोमवार हो जाएंगे! लगातार दो सोमवार एक साथ नहीं आ सकते हैं। इनमें से किसी एक तिथि को छोड़ देना पड़ता है। यही कारण है कि तिब्बती पंचांग में महीने की कुछ तिथियों को छोड़ दिया जाता है।
वहीं दूसरी ओर कभी-कभी सप्ताह के दो चंद्र दिवस अगली तिथि के उषाकाल से पहले ही पड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि सप्ताह का सोमवार का चंद्र दिवस तृतीया के उषाकाल के पाँच मिनट बाद शुरू होता है और चतुर्थी के उषाकाल से पाँच मिनट पहले खत्म हो जाता है, तो पहले वाले नियम के अनुसार तृतीया को रविवार होना चाहिए और चतुर्थी को मंगलवार होना चाहिए, और सोमवार नहीं होगा। लेकिन चूँकि रविवार के बाद बीच में सोमवार के बिना सीधे मंगलवार नहीं हो सकता है, इसलिए इनमें से किसी एक तिथि को दोहराना पड़ेगा ताकि उनमें से एक तिथि सोमवार हो सके। इसीलिए किसी तिब्बती महीने में कभी-कभी दो आठवीं या पच्चीसवीं तिथियाँ होती हैं।
चंद्र पंचांग को सूर्य के पंचांग के और अधिक अनुरूप बनाने के लिए किसी-किसी वर्ष में एक तेरहवाँ महीना अधिमाह के रूप में या दोहराए हुए महीने के रूप में जोड़ना पड़ता है। कब किसी तिथि को दोहराया जाए या हटा दिया जाए, और कब अतिरिक्त महीना जोड़ा जाए, इसे नियंत्रित करने वाले नियम विभिन्न तिब्बती खगोलीय परम्पराओं में अलग-अलग हैं। यही उनका प्रमुख अन्तर है। विभिन्न हिन्दू पंचांगों में भी तिथियाँ जोड़ी या हटाई जाती हैं, और इन पंचांगों और प्राचीन चीनी पंचांग में भी महीनों को दोहराया जाता है। इनमें अपनाए जाने वाले नियम किसी भी तिब्बती पद्धति में अपनाए जाने वाले नियमों जैसे नहीं होते हैं।
चंद्र तारामंडल पंचांग का तीसरा समावेशी लक्षण है। इसका सम्बंध पाँच ग्रहों की तकनीक की सहायता से किसी चंद्र तिथि के उषाकाल पर चंद्रमा की वास्तविक स्थिति से न होकर, उसके आनुक्रमिक सम्बंधित तारामंडल से होता है। किसी विशिष्ट चंद्र तिथि के मामले में यह उस तिथि के उषाकाल के समय शुरु होने वाले चंद्रमा के सप्ताह के दिन के समय चंद्रमा की तारामंडलीय स्थिति होगी, जिसके अनुसार उस तिथि को सप्ताह के दिन के रूप में निर्धारित किया गया था।
संयोग दशा और कर्म दशा पंचांग के चौथे और पाँचवे लक्षण हैं। सत्ताईस कर्म अवस्थाएं होती हैं। प्रत्येक दशा वह अवधि होती है जिसके दौरान सूर्य और चंद्रमा की संयुक्त चाल पूरे राशिचक्र के एक-सत्ताईसवें हिस्से के बराबर होती है। इस प्रकार हम किसी भी अवधि के लिए संयुक्त अवधि की गणना सूर्य की संशोधित स्थिति को चंद्रमा की सम्बंधित आनुक्रमिक राशिचक्रीय स्थिति के साथ जोड़ते हैं। इसलिए, प्रत्येक दशा एक अलग समय पर शुरू होती है। उनके अलग-अलग नाम और विवेचन होते हैं, और कुछ दशाएं दूसरी दशाओं की तुलना में कम मंगलसूचक होती हैं।
और अंत में, ग्यारह कर्म दशाएं होती हैं, जिनकी गणना तीस चंद्र तिथियों को असममित ढंग से विभाजित करके की जाती है। यहाँ उसका विवरण देने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक कर्म दशा का एक अलग नाम होता है और इस मामले में भी कुछ कर्म दशाएं कुछ विशेष कार्यों के लिए दूसरी दशाओं की तुलना में कम अनुकूल होती हैं।
तिब्बती पंचांग की विशेष तिथियाँ
तिब्बती लोगों के जीवन में तिब्बती पंचांग और पत्रा की एक बड़ी भूमिका होती है। उनका एक सबसे महत्वपूर्ण उपयोग विभिन्न बौद्ध पूजा अनुष्ठानों या त्सोग की तारीखें निश्चित करने के लिए होता है। चंद्र मास के बढ़ते हुए और घटते हुए चंद्रमा की दसवीं और पच्चीसवीं तिथियों को चक्रसंवर, जिसे कभी-कभी हेरुका कहा जाता है, और वज्रयोगिनी, और न्यिंग्मा परम्परा के संस्थापक गुरु रिंपोशे पद्मसंभव का पूजा अनुष्ठान किया जाता है। इन सभी दसवीं तिथियों में से ग्यारहवें तिब्बती माह की पच्चीतवीं तिथि चक्रसंवर के लिए सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है, और बारहवें तिब्बती माह की दसवीं तिथि वज्रयोगिनी की पूजा के लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है। प्रत्येक तिब्बती माह की आठवीं तिथि तारा के पूजा अनुष्ठान के लिए विशेष दिन है। यह केवल बढ़ते हुए चंद्रमा वाले पक्ष के लिए लागू है।
उदाहरण के लिए, यदि किसी तिब्बती महीने में दो दसवीं तिथियाँ हों, तो पूजा अनुष्ठान इनमें से पहली दसवीं तिथि को किया जाता है। यदि उस महीने में दसवीं तिथि को छोड़ दिया गया हो, तो अनुष्ठान नवीं तिथि को किया जाता है। इस नियम को तिब्बती पंचांग की किसी भी विशेष तिथि पर की जाने वाली धार्मिक साधनाओं के मामले में लागू किया जाता है।
प्रत्येक तिब्बती बौद्ध गुरु परम्परा में और प्रत्येक परम्परा के हर एक मठ में वर्ष के दौरान किए जाने वाले अनुष्ठानों का कार्यक्रम तिब्बती पंचांग के अनुसार तय किया जाता है। ग्रीष्मकालीन एकान्तवास सामान्यतया छठे तिब्बती माह की सोलहवीं तिथि से लेकर सातवें माह की तीसवीं तिथि तक होता है। इसे आरम्भिक ग्रीष्कालीन एकान्तवास कहा जाता है। ल्हासा के ग्यूतो और ग्यूमे तांत्रिक मठों में सातवें तिब्बती माह की सोलहवीं तिथि से आठवें माह की तीसवीं तिथि तक उत्तरकालिक ग्रीष्म एकान्तवास किया जाता है। इसके अलावा, गेलुग परम्परा में प्रत्येक चंद्र मास की उनतीसवीं तिथि वज्रभैरव के बुद्ध रूप, जिन्हें यमांतक भी कहा जाता है, जो विशेष तौर पर बाधाओं और व्यवधानों को दूर करने वाले माने जाते हैं, का विशेष दिन होता है। यही कारण है कि किसी भी तिब्बती माह की इस तिथि को गहन साधना के लिए शुरू किए जाने वाले ध्यानसाधा के एकांतवासों को सर्वथा उपयुक्त माना जाता है।
वैसाक के बौद्ध अवकाश को शाक्यमुनि बुद्ध के परिनिर्वाण या मृत्यु के साथ-साथ उनकी जन्म और परिनिर्वाण प्राप्ति के दिन के रूप में भी मनाया जाता है। वैसाक, या वोसाक शब्द संस्कृत माह वैशाख के पाली समतुल्य से लिया गया है जिसका प्रयोग कुछ थेरवादी देशों में किया जाता है और यह दूसरा कालचक्र और चौथा तिब्बती महीना होता है। यह अवकाश पूर्णमाशी, अर्थात उस महीने की पंद्रहवीं तिथि को मनाया जाता है। चूँकि थेरवादी पंचांग तिब्बती पंचांग से अलग है और एक हिन्दू पद्धति पर आधारित है, इसलिए वैसाक की गणना तिब्बती पद्धति की तुलना में एक महीना पहले की जाती है।
शाक्यमुनि बुद्ध के जीवन की दो और घटनाओं को उत्सव के रूप में मनाया जाता है। बोध गया में बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञानोदय का निरूपण करने के बाद उन्होंने सबसे पहले जिस व्यक्ति को उपदेश दिया वह उनकी माता थीं, जिनकी मृत्यु उनके जन्म के समय हो गई थी और कुछ सूत्रों के अनुसार उनका पुनर्जन्म तेतीस देवताओं वाले स्वर्ग, यानी तुषित में हो चुका था। बुद्ध उन्हें उपदेश देने के लिए वहाँ तक गए। छठे तिब्बती महीने के चौथे दिन स्वर्ग से उनके अवतरण के दिन को बुद्ध के इस लोक में पुनरागमन के रूप में मनाया जाता है। इसके बाद बुद्ध सारनाथ गए जहाँ उन्होंने मृगदाव में अपने पहले मानव शिष्यों को उपदेश दिए। तिब्बती महीने के नौवें महीने के बाईसवें दिन धर्मचक्र प्रवर्तन का अवकाश मनाया जाता है।
प्रत्तयेक तिब्बती बौद्ध परम्परा में भी विशेष दिन मनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, दसवें तिब्बती महीने के पच्चीसवें दिन को त्सोंग्खापा के निधन के दिवस की स्मृति में मनाया जाता है। पहले तिब्बती महीने के तीसरे से चौबीसवें दिन तक ल्हासा में महापूजा उत्सव, मोनलाम मनाया जाता है। इस उत्सव के अन्तिम दिन राजकीय भविष्यवक्ता द्वारा केक अनुष्ठान किया जाता है जिसके बारे में माना जाता है कि इससे नए वर्ष की बाधाएं प्रतीक रूप में दूर हो जाती हैं। इसके बाद अगले दिन, यानी पच्चीसवें दिन मैत्रेय के आह्वान का उत्सव मनाया जाता है जिसमें अगले बुद्ध, मैत्रेय की प्रतिमा को एक सुसज्जित गाड़ी में ल्हासा शहर में घुमाया जाता है।
भविष्यवक्ताओं से भविष्य की जानकारी लेने के लिए भी दिन निश्चित होते हैं। उदाहरण के लिए तिब्बती शासन पारम्परिक तौर पर पहले महीने के दसवें दिन नेचुंग शासकीय भविष्यवक्ता से परामर्श करता था। तिब्बत में द्रेपुंग मठ के मठाध्यक्ष प्रत्येक तिब्बती महीने की दूसरी तारीख को नेचुंग भविष्यवक्ता से परामर्श किया करते थे।
तिब्बती पंचांगों में तीन प्रकार की अशुभ तिथियों को नियमित रूप से दर्शाया जाता है। “अशुभ दिवस” को तिब्बती अक्षर झ़ा की सहायता से दर्शाया जाता है, और उसकी अवधि एक उषाकाल से लेकर अगले उषाकाल तक होती है। “अमंगल दिवसों” को न्या से अंकित किया जाता है, और इनकी अवधि केवल दिन के समय तक ही होती है। ये दोनों ही प्रत्येक वर्ष निश्चित तिथियों को घटित होते हैं, और प्रत्येक कालचक्र मास में एक अमंगल दिवस होता है। तीसरे प्रकार की अशुभ तिथि, जिसे या का सहायता से अंकित किया जाता है, दिन और रात्रि दोनों के समय तक रहती है। इसे एक चीनी देवता के नाम पर “येन कुआँग दिवस” कहा जाता है। सामान्यतया प्रत्येक वर्ष में ऐसे तेरह दिवस होते हैं जो पीत गणना पद्धति की चीनी शैली के महीनों में निश्चित तिथियों पर होते हैं। इसके अलावा, चीनी मूलतत्व गणना पद्धति पर आधारित प्रत्येक वर्ष में दो “अमंगल” या अशुभ मास होते हैं, और कभी-कभी “अमंगल” वर्ष भी होता है।
तिब्बती पंचांग में एक अन्य प्रकार की तिथि, जिसे सा अक्षर से अंकित किया जाता है, भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संवरों की शुद्धि और पुनर्नवीकरण के द्विमासिक सोजोंग अनुष्ठान को दर्शाती है। प्रत्येक वर्ष नववर्ष के प्रारम्भ के पंद्रह सौर दिवसों के बाद ऐसा पहला अनुष्ठान आयोजित किया जाता है। तिब्बती महीने की शुरुआत बढ़ते हुए चंद्रमा के पक्ष से होती है। दूसरा सोजोंग हर महीने घटते हुए चंद्रमा के पक्ष की समाप्ति पर पिछले अनुष्ठान के चौदह चंद्र दिवस तिथियों के बाद होता है। यदि किसी तिथि को हटा दिया गया हो, तो चौदह दिवस पूरे करने के लिए एक अतिरिक्त तिथि गिनी जाती है। बढ़ते हुए चंद्रमा के पक्ष की समाप्ति पर हर महीने का पहला सोजोंग दोहराई गई या हटाई गई तिथियों को ध्यान में रखे बिना पिछले अनुष्ठान के पंदर्ह सौर दिवसों के बाद आयोजित किया जाता है।
यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह है कि सामान्यतया बढ़ते हुए चंद्रमा के पक्ष को घटते हुए चंद्रमा के पक्ष की तुलना में अधिक शुभ माना जाता है। यही कारण है कि तिब्बती लोग कोई भी सकारात्मक अभ्यास चंद्र मास के पहले पखवाड़े में करते हैं ताकि उसके परिणामों में बढ़ते हुए चंद्रमा की तरह वृद्धि और विस्तार हो।
शुभ और अशुभ तिथियाँ
इसके अलावा, कुछ तिथियों को विभिन्न प्रकार के विशेष कार्यकलापों के लिए शुभ माना जाता है और दूसरी तिथियों को अशुभ माना जाता है। उदाहरण के लिए, किसी चंद्र मास की नौवीं, उन्नीसवीं, और उनतीसवीं तिथियों को यात्रा प्रारम्भ करने के लिए शुभ माना जाता है, जबकि दूसरी, आठवीं, चौदहवीं, बीसवीं, और छब्बीसवीं तथाकथित “पानी को छानने वाली” तिथियों को यात्रा के लिए अशुभ माना जाता है। यही कारण है कि यदि तिब्बती लोग किसी कारण से अपनी यात्रा को किसी शुभ तिथि को प्रारम्भ न कर सकते हों, तो वे अपने सफर के किसी सामान को किसी शुभ तारीख को ही सड़क पर थोड़ी दूर किसी घर में ले जाते हैं, ताकि यह माना जा सके कि प्रतीक के रूप में उन्होंने अपनी यात्रा उसी दिन शुरु कर दी थी। लेकिन, यदि नौवीं, उन्नीसवीं, उनतीसवीं तिथि को या जब चंद्रमा नौवे नक्षत्र में हो, या रविवार के दिन किसी की मृत्यु हो जाए, और विशेष तौर पर यदि ये तीनों बातें एक ही दिन घटित होती हों, तो इसे पीछे बचे हुए लोगों के लिए अशुभ माना जाता है।
“नौ अशुभ लक्षणों वाला दिन” वर्ष की सबसे अशुभ तिथि होती है। इसकी शुरुआत ग्यारहवें तिब्बती महीने की छठी तिथि की दोपहर से होती है जो सातवी तिथि की दोपहर तक चलती है। इस अवधि में अधिकांश तिब्बती लोग किसी प्रकार का कोई विशेष धार्मिक कार्य या सकारात्मक साधना नहीं करते हैं, बल्कि इस समय वे आमोद-प्रमोद, आराम, और खेलकूद करते हैं। इस प्रथा के पीछे का इतिहास यह है कि बुद्ध के समय एक व्यक्ति ने इस दिन कई प्रकार के सकारात्मक कार्य करने का प्रयास किया, लेकिन उसे नौ प्रकार के दुर्भाग्यों का सामना करना पड़ा। बुद्ध ने निर्देशित किया कि भविष्य में हर साल उस तिथि को मंगल कार्यों को न करना ही अच्छा है।
लेकिन, चौबीस घंटे की इस अवधि के तुरन्त बाद ग्यारहवें महीने की सातवीं तिथि की दोपहर से लेकर आठवीं तिथि की दोपहर तक की अवधि “दस शुभ लक्षणों वाले दिन” की अवधि होती है। बुद्ध के समय इस दिन जब उसी व्यक्ति ने सकारात्मक कार्य करने का प्रयास जारी रखा तो उसके साथ दस अच्छी बातें हुईं। इसलिए इस अवधि को सकारात्मक कार्यों के लिए बहुत उपयुक्त माना जाता है, लेकिन आम तौर पर तिब्बती लोग इस समय को आमोद-प्रमोद और खेल-कूद में भी बिताते हैं।
पंचांग में दो और अवधियों का उल्लेख किया जाता है और ये महत्वपूर्ण हैं। पहली अवधि को “ऋषि तारे का प्रकट होना” कहा जाता है। इसकी गणना आठवें तिब्बती महीने के एक विशेष समय से की जाती है और यह अवधि सात दिनों तक चलती है। इस अवधि के दौरान, ऋषि तारे का प्रकाश एक सुंदर प्रतिमा के मुकुट में लगे मणि पर पड़ता है जिसके कारण उसमें से अमृत का प्रवाह होता है। इस अवधि में गर्म पानी के सोते अत्यधिक प्रभावी हो जाते हैं और इसलिए इन सात दिनों को स्नान दिवस कहा जाता है जब तिब्बती लोग उपचार और रोगमुक्ति के लिए गर्म पानी के सोतों में स्नान के लिए जाते हैं।
दूसरी अवधि को “शूकर विष दिवस” कहा जाता है। यह अवधि भी सात दिनों की होती है और इसकी गणना पाँचवें तिब्बती महीने के अन्य समय से की जाती है। इन दिनों में संदूषक वर्षा के प्रभाव के कारण पानी विष हो जाता है। इन दिनों में चुनी जाने वाली औषधीय वनस्पतियाँ विषैली हो जाती हैं। इसी प्रकार गर्म पानी के सोते भी बहुत नुकसानदेह हो जाते हैं, और इसलिए सब लोग इनसे दूर रहते हैं।
हालाँकि चीनी मूलतत्व गणना पद्धति के अनुसार हमारे जीवनकाल में बाधाओं की बहुत सी अवधियाँ आती हैं, लेकिन तिब्बती लोग जिसे सबसे प्रमुख मानते हैं वह “आयु के बाधा वर्ष” की अवधि है। यह प्रत्येक ऐसा वर्ष होता है जिसमें जन्म के प्रतीक पशु की पुनरावृत्ति होती है। इस प्रकार, यदि हमारा जन्म खरगोश वाले वर्ष में हुआ हो तो उसके बाद आने वाला प्रत्येक खरगोश वाला वर्ष बाधाओं का वर्ष होगा। यह हर बारह वर्ष के बाद घटित होता है। उम्र की गणना करने की तिब्बती विधि के अनुसार, जहाँ हमारे जीवनकाल के प्रत्येक कैलेंडर वर्ष को उम्र के एक वर्ष के रूप में गिना जाता है, पहले आयु के बाधा वर्ष में हमारी उम्र एक वर्ष होगी, दूसरे उम्र के बाधा वर्ष में हम 13 वर्ष के होंगे आदि।
तिब्बती लोगों के बीच ज्योतिषशास्त्र की लोकप्रियता
घंटावार ज्योतिषशास्त्र, यानी दिन के शुभ घंटों का पता लगाना तिब्बती पंचांग की प्रमुख विशेषता है। तिब्बती लोगों के जीवन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसका सम्बंध पहली दो समावेशी पंचांग लक्षणों से होता है, चंद्र सप्ताह के दिन और चंद्र तारामंडल।
सभी अट्ठाईस चंद्र नक्षत्रों में से प्रत्येक तारामंडल और सप्ताह के सातों चंद्र दिवसों में से प्रत्येक दिवस और खगोलीय पिंड चारों में से किसी एक मूल तत्व से जुड़ा होता है। ये तत्व में भारतीय मान्यता के पाँच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के चार तत्व होते हैं। किसी तिथि के लिए चंद्रमा के आनुक्रमिक तारामंडलों की तुलना घटित होने वाले सप्ताह के चंद्र दिन के साथ की जाती है। मूल तत्वों के सभी सम्भव दस संयोजनों में से प्रत्येक की एक अलग व्याख्या होती है जिसके आधार पर हम निश्चय कर सकते हैं कि उस समय किसी कार्य का किया जाना सर्वाधिक उपुक्त रहेगा या नहीं।
यह दस लघुतर मिलानों की विधि होती है। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी ध्यानसाधना एकांतवास के अंत में अग्नि पूजा का अनुष्ठान कर रहे हों तो किसी ऐसे घंटे का चुनाव करना सबसे उपयुक्त होगा जिसमें अग्नि की दोहरी अवधि का योग हो क्योंकि इससे अग्नि की ही वृद्धि होगी, न कि जल-अग्नि वाली अवधि का चुनाव करें जो अग्नि का शमन करने वाली होगी।
तिब्बती लोग अधिकांशतः नवजात शिशुओं की जन्मकुंडली, और विवाह तथा मृत्यु सम्बंधी विषयों के बारे में ज्योतिषियों से सलाह लेते हैं। जन्मकुंडली तैयार करने के लिए श्वेत तथा श्याम दोनों ही गणना पद्धतियों के पक्षों के मिले-जुले रूप का प्रयोग किया जाता है। श्वेत पद्धति भारतीय ज्योतिष शास्त्र से ली गई है जबकि श्याम पद्धति चीनी ज्योतिष शास्त्र से ली गई है। तिब्बती माता-पिता अपने बच्चों के जीवनकाल की सम्भावित अवधि के बारे में जानने में विशेष रुचि रखते हैं। यदि बच्चे की उम्र छोटी बताई गई हो और उसमें कई बाधाएं बताई गई हों, तो जन्मकुंडली में अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान करना बताया जाता है और प्रतिमाएं तथा चित्र स्थापित करने की सिफारिश की जाती है।
विवाह तय करने से पहले वर-वधू की परस्पर उपयुक्तता की जाँच उनके गोल पत्थरों वाले मूलतत्वों और त्रिग्रामों, श्याम गणना पद्धति के दो लक्षणों, की तुलना करके की जाती है। शनिवार को सम्पन्नता का सप्ताह का दिवस माना जाता है। इसलिए इस दिन को वधू के अपने पति के पारिवारिक घर में जाने की दृष्टि से सबसे उपयुक्त सप्ताह का दिन माना जाता है। वर-वधु के परिजन ज्योतिषी को उस सम्भावित सप्ताह की जानकारी देते हैं जिसमें वे चाहते हैं कि विवाह की रस्म को सम्पन्न किया जाए। इसके बात दस लघुतर मिलानों की पद्धति के अनुसार इस अवधि के दौरान सबसे शुभ सप्ताह के दिन का चुनाव किया जाता है। यदि गणना में शनिवार को शुभ दिन पाया जाता है, तो उसी दिन को विवाह संस्कार के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। यदि शनिवार का दिन शुभ न हो, तो अगली शुभ तिथि का चुनाव किया जाता है, हालाँकि वधू को फिर भी यही सलाह दी जाती है कि वह अपने पति के नए घर में विवाह से पहले वाले शनिवार को ही प्रवेश करे।
किसी की मृत्यु होने पर लगभग सभी तिब्बतवासी किसी ज्योतिषी से परमार्श लेते हैं। मृत्यु के समय के आधार पर चीनी मूलतत्व पद्धति के अनुसार गणना की जाती है कि मृतक के शव को अन्तिम संस्कार के लिए किस समय और किस दिशा में उठा कर ले जाया जाना चाहिए। अंतिम संस्कार के वास्तविक समय की गणना नहीं की जाती है, और इसमें दस लघुतर मिलानों की सहायता से शुभ या अशुभ दिवसों का निर्धारण नहीं किया जाता है। मृतक के लिए किए जाने वाले अनुष्ठान भी सम्पादित किए जाते हैं, विशेष तौर पर तब जब मृत्यु में हानिकारक प्रेतात्माओं की भी भूमिका रही हो।
तिब्बती लोग सामान्यतया नया घर बदलने, नई दुकान खोलने, और कोई नया व्यवसाय शुरू करने के लिए शुभ दिन चुनने के लिए भी ज्योतिषियों की सलाह लेते हैं। तिब्बत में इसका सम्बंध काफिले की यात्रा शुरू करने के दिन और समय का पता लगाने से होता है, जबकि भारत में अधिकांशतः वे मालूम करना चाहते हैं कि भारत के दूर-दराज के शहरों में बने-बनाए स्वेटर और कपड़े बेचने के लिए निकलने का सबसे उपयुक्त समय कौन सा होगा। निर्वासन में रह रहे तिब्बतियों के लिए आजीविका कमाने का यही सबसे आम जरिया है।
जब किसी पुनर्जन्मे लामा को गद्दी पर बैठाया जाता है, और जब वह अपना अध्ययन शुरू करने के लिए अपने मठ की औपचारिक पूजा करता है, जब कोई परिवार अपने बच्चे को किसी मठ में प्रवेश के लिए भेजता है, और जब कोई गेशे अपनी धार्मिक शिक्षा पूरी कर लेने और परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लेने के बाद अपने मठ में औपचारिक पूजा करता है तब ऐसे अवसरों पर भी शुभ दिनों को अवश्य चुना जाता है। इसके अलावा तिब्बत में शिशुओं के जन्म के लगभग एक वर्ष बाद पहली बार उनके बाल काटने की भी परम्परा है। यह कार्य भी किसी शुभ दिन को ही किया जाता है, यदि ऐसा न किया जाए तो यह माना जाता है कि बालक को फोड़े या घाव होने की सम्भावना बनी रहेगी।
तिब्बती चिकित्सक किसी रोगी को मॉक्सीबश्चन या सोने की सुई से एक्यूपंक्चर जैसा विशेष उपचार देना शुरू करने के लिए सप्ताह का सबसे उपयुक्त दिन चुनने के लिए भी चिकित्सा ज्योतिष का सहारा लेते हैं। रोगी के जन्म की पशु-राशियों के आधार पर उसकी प्राण-शक्ति और जीव-शक्ति वाले दिनों का चुनाव किया जाता है और हानिकारक दिनों को छोड़ दिया जाता है।
जब किसी लामा की दीर्घायु के लिए पूजा अनुष्ठान किया जाता है तो यह अनुष्ठान उसके प्राण-शक्ति और जीव-शक्ति वाले दिन की भोर के समय किया जाता है। परम पावन चौदहवें दलाई लामा का जन्म पृथ्वी-शूकर वर्ष में हुआ था। क्योंकि उनकी जीव-शक्ति का दिन बुधवार का दिन है, इसलिए बहुत से लामा इस दिन के शुभ होने के कारण अपने उपदेश या व्याख्यान इसी दिन शुरू करते हैं। जब किसी रोगी के स्वास्थ्यलाभ के लिए कोई अनुष्ठान किया जाना होता है तो उसके प्राण-शक्ति या जीव-शक्ति दिवसों का भी चुनाव किया जाता है।
तिब्बती लोग एक और विषय के बारे में जानने के लिए भी ज्योतिष शास्त्रियों से सलाह लेते हैं कि वर्तमान वर्ष में उनका व्यवसाय सफल होगा या नहीं। ज्योतिष शास्त्री “स्वरोदय” पद्धति के अनुसार भविष्यवाणी करता है। इसमें औपचारिक ढंग से प्रश्न पूछा जाता है और फिर प्रश्न में प्रयुक्त शब्दों की संख्या और कक्ष में मौजूद लोगों की संख्या प्रश्न पूछे जाने के समय के अनुसार गणना की जाती है।
ज्योतिष शास्त्र के प्रति बौद्धों का दृष्टिकोण
ऐसी बहुत सी परिवर्ती चीज़ें होती हैं जो किसी अवधि की व्याख्या को सामान्य दृष्टि से और किसी व्यक्ति के लिए भी इस प्रकार प्रभावित कर सकती हैं कि किसी भी समय अवधि में कुछ न कुछ अमंगल हो सकता है। सभी कारकों का महत्व समान नहीं होता है। किसी परिस्थिति विशेष के लिए कुछ परिवर्तनशील कारकों का ही अध्ययन किया जाता है, और कुछ कारक दूसरे कारकों को निष्प्रभावी कर देते हैं। इसलिए यदि यात्रा शुरू करने के लिए नौवीं, उन्नीसवीं या उनतीसवीं तिथियाँ शुभ होती हैं, या कालचक्र का अभिषेक पूर्णमासी के दिन ही दिया जाना चाहिए, तो यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं है कि दूसरे कारक प्रतिकूल होंगे।
इस पद्धति का उद्देश्य लोगों को अंधविश्वास से पंगु बनाना नहीं है। बल्कि इससे लोगों को मौसम के पूर्वानुमान जैसी जानकारी मिलती है। यदि हमें यह सामान्य जानकारी हो कि कोई तारीख अनुकूल नहीं होगी, तो हम समस्याओं से बचने के लिए अनुष्ठान करने, उदारता और सावधानी का व्यवहार करने आदि जैसे निवारक उपाय कर सकते हैं। यह ऐसा है जैसे हम बारिश होने की सम्भावना की बात सुनकर अपने साथ छतरी लेकर बाहर निकलें।
बौद्ध धर्म में ज्योतिष शास्त्र को प्रत्येक व्यक्ति के मानसिक सातत्य से स्वतंत्र रूप में अस्तित्वमान खगोलीय पिंडों के प्रभाव के रूप में नहीं देखा जाता है, बल्कि हमारे पूर्व के आवेगी व्यवहार या कर्म के प्रभाव के रूप में देखा जाता है। जन्मकुंडली दरअसल किसी नक्शे के समान होती है जिसकी सहायता से हम अपने कर्म के पहलुओं को देख-समझ सकते हैं। हमारे पिछले जन्मों के हमारे आवेगी व्यवहार का परिणाम हमारी कार्मिक स्थिति के रूप में उन खगोलीय और ज्योतिषीय स्थितियों के कारण परिलक्षित होता है जिनमें हमारा जन्म हुआ होता है। इस प्रकार ज्योतिषीय जानकारी हमें उन सम्भावित परिणामों का संकेत दे सकती है जो हमारे पूर्व के आवेगी व्यवहार के कारण उत्पन्न हो सकते हैं और जिसे बदलने के लिए हम निवारक उपाय कर सकते हैं। इस प्रकार यह जान लेना उपयोगी रहता है कि किसी कठिन परिस्थिति से कैसे निपटा जाए। इसी प्रकार पंचांग उत्पन्न हुए और सामने आने वाले उन परिणामों के व्यापक प्रभावों को दर्शाता है जिनका सामना बड़ी संख्या में लोगों के किसी समूह को एक साथ करना पड़ सकता है।
बौद्ध मत का वैश्विक दृष्टिकोण किसी भी प्रकार से भाग्यवादी नहीं है। जो मौजूदा स्थिति है वह किन्हीं कारणों और स्थितियों की वजह से उत्पन्न हुई है। यदि हम उस स्थिति को ठीक-ठीक ढंग से समझ सकें तो हम इस जीवनकाल में ही ऐसा व्यवहार करके दूसरे ऐसे कारण और स्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं जो स्वयं हमारी और दूसरों की भलाई करने वाली हों। इसका यह मतलब नहीं है कि हम कष्ट से बचने के उद्देश्य से विभिन्न देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा अर्चना करें या चढ़ावे चढ़ाएं, बल्कि इसका मतलब है कि हम अपने दृष्टिकोण और व्यवहार में सुधार करें।
आम तौर पर कभी-कभी जब यह सलाह दी जाती है कि दीर्घायु होने के लिए हमें किसी बुद्ध रूप की प्रतिमा या चित्र बनवाना होगा, तो ऐसा प्रतीत हो सकता है कि यह उस बुद्ध रूप की कृपा पाने के लिए किया जा रहा है। यह एक गलत धारणा है। ऐसा करने से जो दृष्टिकोण निर्मित होता है वही सबसे अधिक प्रभावकारक होता है। यदि दृष्टिकोण भय या स्वार्थपरायणता का होगा, तो न्यूनतम प्रभाव उत्पन्न होगा। कुछ विशेष प्रकार की ध्यानसाधनाएं, यदि इन्हें दूसरों की भलाई करने की प्रेरणा के साथ किया जाए, हमें दीर्घायु बनाने में कहीं अधिक प्रभावकारी सिद्ध होती हैं।