सबके प्रति एक समान स्नेह और करुणा का विकास

सबके प्रति समदर्शी मनोदृष्टि होने की आवश्यकता

करुणा के विकास के लिए चित्त एवं हृदय-शोधन तथा साधना करने की आवश्यकता होती है | करुणा की परिभाषा वह मनोदृष्टि है जिससे आप यह कामना करते हैं कि सब अपनी समस्याओं और दुखों से मुक्त हो जाएँ | जिस मनोदृष्टि से आप सबके सुखी होने की कामना करते हैं, उसे प्रेम कहते हैं | सब प्रसन्न रहें और किसी को भी समस्याएँ न हों, ऐसी कामना भरी मनोदृष्टि न होने का कारण है हमारी मनोदृष्टि का सबके प्रति समदर्शी न होना| ऐसा इसलिए है क्योंकि हम शत्रुओं के प्रति विद्वेष और क्रोध अनुभव  करते हैं, और कुटुंब-जनों व मित्रों के प्रति आसक्ति और मोह |

राग, द्वेष, और उदासीनता पर विजय पाना

अपनी आसक्ति पर विजय पाने के लिए आपको यह समझना होगा कि राग का सम्बन्ध एक मोहासक्त प्रकृति की इच्छा से है, और यह बहुत विनाशकारी है तथा इससे सघन नकारात्मक संभाव्यता उत्पन्न होती है | किसी के प्रति इतना आसक्त होना बहुत विनाशकारी होता है, और इसके कारण आसक्ति और इच्छा एक बहुत सघन नकारात्मक संभाव्यता को जन्म देती है | यदि आप के भीतर किसी शत्रु के प्रति विद्वेष है, तो आप क्रोधित होते हैं और आप के भीतर द्वेष की भावना उत्पन्न होती है, जो अनेक समस्याओं को जन्म देती है | यह आवश्यक है कि आप आसक्ति और द्वेष की इन चरम मनोवृत्तियों और भावनाओं पर विजय पाएँ, और दूसरों के प्रति समभाव की मनोवृत्ति को बढ़ाएँ जिससे आपको अपने शत्रुओं के प्रति द्वेष एवं क्रोध अनुभव  न हो, और जिन्हें आप पसंद करते हैं और अपना मित्र मानते हैं, उनके प्रति आसक्ति अनुभव  न हो |

सबके प्रति समदर्शी मनोदृष्टि न होने का एक अन्य कारण है कि हमें तभी उनकी सहायता करने की इच्छा होती है जब वे हमारी सहायता करते हैं | हम केवल तभी उनकी सहायता करना चाहते हैं जब उन्होंने हमारे साथ कुछ अच्छा किया हो और हमारी सहायता की हो | हम अपने शत्रु के प्रति क्रोध अनुभव  करते हैं और उसे चोट पहुँचाने की कामना करते हैं क्योंकि उसने हमें किसी प्रकार हानि पहुँचाई होती है | इस स्थिति को इस प्रकार सुलझाएँ कि अपने समक्ष तीन व्यक्तियों की कल्पना करें: एक जिसने आपकी सहायता की हो, एक जिसने आपको हानि पहुँचाई हो, और, एक कोई अन्य अजनबी, जिसने न आपकी सहायता की हो और न ही आपको हानि पहुँचाई हो | जब आपके समक्ष ये तीनों हों, उस समय आपके मन में जो भावनाएँ उत्पन्न होंगी उनपर ध्यान दीजिए | जिस व्यक्ति ने आपकी सहायता की थी - उसके लिए आप कुछ अच्छा करना चाहते हैं, उसकी सहायता करना चाहते हैं | जिसने आपको हानि पहुँचाई थी - आप भी उसे हानि पहुँचाना चाहते हैं | जिसने न आपकी सहायता की थी, न आपको हानि पहुँचाई थी - उसके प्रति आप पूर्णतः निर्विकार अनुभव करते हैं, और उसे आप चोट या हानि नहीं पहुँचाना चाहते | उसके प्रति आपके मन में कोई भी भावना नहीं होती |

दूसरों के प्रति हमारी मनोदृष्टि समरूप करते समय याद रखने योग्य बिंदु

यदि आप हमारी मनोदृष्टियों की ओर देखें, तो प्रमुखतः एक पक्षपाती मनोदृष्टि पाएँगे | हम जिनकी सहायता करना चाहते हैं, उसमें पक्षपात करते हैं |आपको दो व्यक्तियों के विषय में सोचना चाहिए, एक जिसने कल आपका दिल बहुत दुखाया हो और आज आपकी बहुत सहायता की हो; और दूसरा वह जिसने कल आपकी बहुत सहायता की हो, परन्तु आज सुबह आपको गहरी चोट पहुँचाई हो | अब आप सोचें, आप किसकी सहायता करना चाहेंगे और किसे चोट पहुँचाना चाहेंगे | यदि आप उस व्यक्ति की सहायता करते हैं जिसने कल आपकी मदद की थी, तो, क्या उस व्यक्ति ने आज सुबह आपका दिल नहीं दुखाया? यदि आप उस व्यक्ति को चोट पहुँचाते हैं जिसने कल आपका दिल दुखाया था, तो क्या आज सुबह उसने आपकी सहायता नहीं की? अब सोचिए कि आपके इन व्यक्तियों के प्रति ऐसे विचार कैसे बने; आप यह कल्पना करते हैं कि लोग आपके घोर शत्रु हैं और वे हमेशा आपको हानि पहुँचते हैं, और वे हमेशा से ऐसे ही हैं | वे सदैव आपको हानि पहुँचाने की चेष्टा करते ही रहते हैं, या आप लोगों को ऐसा अद्भुत व्यक्ति मानते हैं जो सदैव आपकी सहायता करते हैं और निरन्तर आपकी सहायता करने के लिए तत्पर रहते हैं | यदि आप विचार करें कि आप स्थितियों को इन ठोस वर्गों में किस प्रकार देखते हैं और समझें कि वास्तव में ऐसा नहीं है, तो इससे आपको दूसरों के प्रति अपनी मनोदृष्टि समरूप करने में सहायता मिलेगी |

यदि आप एक ऐसे अपरिचित व्यक्ति के विषय में सोचें, जिसने इस जीवनकाल में न आपकी कभी सहायता की हो और न ही आपको हानि पहुँचाई हो, और आप सोचें कि किस प्रकार आप ऐसे व्यक्ति के प्रति पूर्ण तटस्थ अनुभव करते हैं और आप के भीतर ऐसे व्यक्ति के प्रति सहायता करने या हानि पहुँचाने जैसी कोई भी अनुभूति नहीं है, तब आप समझ सकते हैं कि संभव है कि भविष्य में यह व्यक्ति आपकी बहुत सहायता करे | इसकी बहुत सम्भावना है कि जिस व्यक्ति से आपने कभी सहायता की आशा न की हो वह आपकी बहुत सहायता करे | इसी  प्रकार यह आवश्यक नहीं है कि जिससे आप सहायता की बहुत आशा करते हैं, वह आपकी किसी भी प्रकार सहायता करेगा | सभी परिस्थितियों में आपको यह समझना चाहिए कि सभी ने आज से पहले आपकी सहायता की होगी और वर्तमान में कर रहे हैं, तथा भविष्य में कर सकते हैं |

परन्तु आप यह आपत्ति कर सकते हैं: आप कहते हैं कि सब सदा आपकी सहायता करते हैं, परन्तु, क्या ऐसा नहीं कि कभी-कभार लोग आपको चोट पहुँचाते हैं? यह सच है कि कुछ लोग आपको चोट पहुँचाते हैं, परन्तु यदि आप देखें, उनके द्वारा पहुँचाई गई हानि से कहीं अधिक वे आपकी सहायता करते हैं | इसके अतिरिक्त, जब वे आपका मन दुखाते हैं और आपको हानि पहुँचाते हैं, उस हानि से वास्तव में आपका बहुत लाभ हो सकता है | उदाहरण के लिए आप मुझे ही देख लीजिए | मेरे देश पर आक्रमण करके कब्ज़ा कर लिया गया, तो हमें बहुत अधिक हानि हुई | पर इस  परिस्थिति से मुझे संसार के ऐसे कई देशों में भ्रमण करने का और आप जैसे लोगों से मिलने का अवसर मिला, तो वास्तव में इस हानि से कुछ भला निकलकर आया |

इसके अतिरिक्त, जब कोई आपको बहुत क्षति पहुँचा रहा हो, और आपका मन दुखा रहा हो, तो इससे आपको धैर्य और सहिष्णुता का अभ्यास करने का अवसर मिलता है, तथा धैर्य और सहिष्णुता की मनोवृत्ति में निपुणता पाकर आप वास्तव में प्रबुद्ध बन सकते हैं | यह इस प्रक्रिया का आवश्यक अंग है | जब अतिशा तिब्बत गए, तो वहाँ से वे अपने साथ एक अत्यंत अप्रिय और खिजाने वाला भारतीय सेवक लाए | लोगों  ने कहा, "आप इस प्रकार का खिजाने वाला व्यक्ति क्यों लाए हैं? इससे सब क्रोधित होते हैं” | अतिशा ने कहा, "नहीं, यह वो व्यक्ति है जिसके प्रति मुझे सदैव धैर्य और सहिष्णुता का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है” |

यह एक बात होती कि यदि हमारे अनेक शत्रु होते, जिनके प्रति हमें अत्यंत क्रोध और द्वेष की अनुभूति होती, और हम उन्हें हानि पहुँचाना चाहते, और किसी की कभी भी मृत्यु न होती | परन्तु, उदाहरण के लिए, यदि हमारे शत्रु को कल फाँसी लगनी होती, उसे निश्चित रूप से कल मरना होता, तो उसे आज रात हानि पहुँचाना व्यर्थ होता | इसी प्रकार यदि स्वयं आपको आज रात फाँसी लगनी होती, तो अब दूसरों का मन दुखाकर और उन्हें हानि पहुँचाकर क्या लाभ होता ?

विचार करने योग्य कई बातें हैं | सोचने योग्य  एक अन्य विचारणीय बिंदु है कि यदि दस भूखे व्यक्ति आपके द्वार पर आ जाएँ तो सबको भोजन प्राप्त करने का समान अधिकार होगा | सब समान रूप से भूखे हैं | इसी प्रकार यदि दस रोगी हैं, तो सबको उपचार और औषधि मिलने का समान अधिकार और आवश्यकता है | आपको बहुत ध्यानपूर्वक सोचना चाहिए कि जिस प्रकार आप प्रसन्न रहना चाहते हैं, और आप दुःख, समस्याएँ और कष्ट नहीं भुगतना चाहते, ठीक उसी प्रकार सभी ऐसा चाहते हैं |

इसके अतिरिक्त, लोगों का व्यवहार समरूप नहीं रहता | ऐसा नहीं है कि लोग सदा आपके मित्र या शत्रु होंगे | आप देख सकते हैं कि कैसे कुछ शब्दों से आपका प्रिय मित्र आपका शत्रु बन सकता है | बस उन्हें कुछ ऐसा कहने की देर है जो आपको चोट पहुँचाए और वे तुरंत आपके शत्रु बन जाते हैं | इसी प्रकार संभव है कि पहले जिसे आप बिलकुल पसंद नहीं करते थे, वही व्यक्ति परिस्थिति बदलते आपका अति प्रिय मित्र बन जाए जिससे आप एक दो घण्टे भी दूर नहीं रह पाते | इस प्रकार आपको समझना चाहिए कि निश्चितता नहीं रहती, और कैसे मित्र शत्रु बन सकते हैं और इसकी विपरीत स्थिति भी हो सकती है |

हम अपने और दूसरों के विषय में इन ठोस वर्गों के सन्दर्भ में सोचते हैं; पर यदि यह सच होता तो सभी बुद्ध जनों ने भी संसार को इन ठोस वर्गों के सन्दर्भ में ही देखा होता, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया | हम बुद्ध के जीवन से एक उदाहरण देख सकते हैं | बुद्ध के एक रिश्ते के भाई थे देवदत्त, और देवदत्त सदा उन्हें हानि पहुँचाने का प्रयास करते रहते थे | वे उनपर पत्थर फेंकते और सदा उनसे होड़ लगाते | अपने पूर्वजन्मों की सकारात्मक सम्भाव्यताओं के कारण बुद्ध शारीरिक रूप से बहुत बलशाली थे | जब भी बुद्ध को कोई औषधि या उपचार की आवश्यकता होती तो उन्हें अपने शारीरिक बल के अनुरूप बहुत अधिक मात्रा में इसे लेना पड़ता था | बुद्ध से प्रतिस्पर्धा के कारण देवदत्त को ऐसा लगता कि उन्हें भी उतनी ही औषधि मिलनी चाहिए क्योंकि उनका मानना था कि वे बुद्ध जितने बलशाली हैं | चिकित्सक ने देवदत्त से कहा, " आप अपने भाई बुद्ध जितने बलशाली नहीं हैं और आप वास्तव में इतनी अधिक मात्रा में औषधि नहीं ले सकते | इससे आप को हानि होगी और आप अस्वस्थ हो जाएँगे | " पर देवदत्त अपनी बात पर अड़े रहे |  उन्होंने कहा, "नहीं, मैं बुद्ध जितना बलशाली हूँ और मैं उतनी ही मात्रा में औषधि ले सकता हूँ जितनी उन्होंने ली है |" अंततः चिकित्सक को उनकी बात माननी पड़ी और जितनी मात्रा में वह साधारण लोगों को औषधि की सलाह देते उससे अधिक मात्रा में उन्होंने देवदत्त को औषधि दे दी |

देवदत्त ने यह अधिक मात्रा की औषधि ली और इससे उन्हें बहुत हानि हुई और वे बुरी तरह बीमार हो गए, वे मरणासन्न थे | बुद्ध अपने भाई से मिलने गए और उन्होंने कहा, "मेरा अपना पुत्र राहुल है, और तुम, मेरे भाई देवदत्त, सदा मुझपर पत्थर फेंकते हो और मुझे क्षति पहुँचाने का प्रयास करते हो, पर मैं तुम दोनों में भेद नहीं करता | मेरा तुम दोनों के प्रति समभाव है | आशा है मेरे कथन की सच्चाई से तुम स्वस्थ हो जाओगे |" उन्होंने अपना हाथ अपने भाई के सिर पर रखा और वे स्वस्थ हो गए | देवदत्त ऐसा करने से स्वस्थ हुए और प्रतिक्रिया में उन्होंने अपने भाई की और देखा जिन्होनें उनके सिर पर अपना हाथ रखा था और कहा, "अपना मलिन हाथ मेरे सिर से हटा लो |"

यदि बुद्ध ने लोगों को इन वर्गों की दृष्टि से देखा होता कि कौन मेरा अपना और मेरे समीप है, और कौन पराए और पृथक है, तो हमारे लिए भी लोगों को ऐसी दृष्टि से देखना ठीक होता | परन्तु वास्तव में, बुद्ध के कभी कोई कृपा-पात्र नहीं थे |

सभी समस्याओं का कारण आत्म-पोषण

इसके अतिरिक्त आपको सोचना चाहिए कि किस प्रकार स्वार्थपरायणता और केवल स्वयं के सरोकार आपकी सभी समस्याओं की जड़ हैं | उदाहरणार्थ, यदि आप स्वार्थी हैं और आपको केवल अपने कल्याण की चिंता है, तो संभव है कि आप परिश्रम करके बहुत बड़ी सम्पत्ति सचित कर लें | इसके कारण फिर चोर आकर आपकी सम्पत्ति चुराना चाहेंगे और एक चोर के हाथों आपकी हत्या भी हो सकती है | इसका कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि आपका स्वार्थी स्वभाव था, और आपने केवल अपने लिए सम्पदा संचित करने का प्रयास किया |

यदि आप कार से होने वाली दुर्घटनाओं का उदाहरण भी देखें तो लोग इतनी तीव्र गति से गाड़ी चलाते हैं कि टक्कर हो जाती है | इसका कारण क्या है? कारण है कि वे केवल अपने विषय में सोचते हैं | उनके विचार केवल अपने स्वार्थ पर केंद्रित हैं कि उन्हें अपने गंतव्य स्थल शीघ्र और सबसे पहले पहुँचना था, और इसके कारण उनकी टक्कर हो गई | जब आप गीले, कीचड़-भरे, फिसलन वाले स्थान पर होते हैं और आप अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँचने के लिए तेज़ी से जाते हैं, और आप गिरकर, अपनी टाँग तोड़कर अस्पताल पहुँचते हैं, तो आपकी दुर्घटना का कारण क्या होता है? यह फिर से आपका स्वार्थ ही है | आप अपनी स्वार्थ-सिद्धि में इतने मग्न थे और वहाँ शीघ्रातिशीघ्र पहुँचना चाहते थे कि आप गिर गए |

इसी प्रकार, देशों के बीच जितनी समस्याएँ और विषमताएँ हैं, वह सब विभिन्न दलों के स्वार्थ के कारण ही है | इसी प्रकार, जब लोगों को बुरी तरह नशीली दवाओं और मदिरापान की लत लग जाती है, वे हमेशा मदिरासेवन करते रहते हैं, उन्हें जितनी समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वह सब इस स्वार्थ के कारणवश होता है जिस ने उन्हें इन आदतों की ओर धकेला था | इसी प्रकार जब कोई स्वार्थी केवल अपने विषय में सोचता है, तो अन्य सभी लोगों की ऐसे व्यक्ति के प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है? ऐसे व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता; स्वार्थी व्यक्ति को कोई नहीं चाहता | इस प्रकार आपको स्वार्थ से होने वाली उन सभी हानियों के विषय में सोचना चाहिए | यदि आप अपने स्वार्थ से पीछा नहीं छुटाएँगे, तो यह अपने भीतर एक भयंकर रोग पालने के समान है |

हर प्रकार के सुख का स्रोत है दूसरों से स्नेह

दूसरी ओर, हमारे साथ जो कुछ अच्छा घटित होता है, उसका कारण है हमारा दूसरों के प्रति स्नेह | यदि हम सदा दूसरों के लिए कार्यरत रहेंगे, या उनसे सरोकार रखेंगे, तो सभी हमें पसंद करेंगे और हमारे साथ रहना चाहेंगे | यदि ऐसे व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो सभी दुखी होते हैं, सभी को उसकी कमी अनुभव  होती है, और सभी उसके लिए प्रार्थना करते हैं | इसके अतिरिक्त, जो सदा दूसरों से सरोकार रखते हैं, वे हमेशा अपने उद्यमों और कार्यों में सफल होते हैं | यदि आप सदैव दूसरों से सरोकार रखेंगे और उनकी सहायता करेंगे, तो मनुष्य ही नहीं, सभी पशु भी आपको चाहेंगे |

यदि आप बुद्ध की सिद्धि के विषय में सोचें, तो पाएँगे कि बुद्ध ने अपने सभी मानसिक आवरणों पर विजय पाई, सभी समस्याओं, सभी अड़चनों और त्रुटियों पर विजय प्राप्त की | उन्होंने उन सभी गुणों को अपनाया जिन्हें कोई अपना सकता है | उन्होंने अपनी अधिकतम, सम्पूर्ण संभाव्यता को साकार किया, और वे ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि उन्होंने अपना स्वार्थ पूर्णतः त्याग दिया और केवल दूसरों के विषय में ही सोचा | जब आप केवल दूसरों के लाभ के विषय में ही सोचेंगे और केवल उनके विषय में ही चिंतित रहेंगे, तो सभी आपसे प्रसन्न रहेंगे कि आप उनके लिए कार्य कर रहे हैं, और वे दुखी नहीं होंगे कि आप उनकी चिंता नहीं करते | पर यदि आप बैठकर केवल अपने, और केवल अपनी कार्य-सिद्धि के विषय में ही सोचेंगे, तो जब दूसरों को सफलता मिलेगी तो आप प्रसन्न नहीं होंगे |

हमारी मनोदृष्टियों में परिवर्तन 

अभी तक हम दूसरों की अह्वेलना करके केवल अपने लाभ के लिए कार्य करते रहे हैं, हमें आवश्यकता है अपनी मनोदृष्टि बदलने की; केवल इन दो सन्दर्भों में हमें अपनी मनोदृष्टि बदलने की आवश्यकता है, दूसरों की अह्वेलना करने की अपेक्षा अब हमें अपनी अह्वेलना करनी चाहिए, और केवल स्वयं को प्रेम करने की अपेक्षा हमें दूसरों से प्रेम करना चाहिए | अपने और दूसरों के प्रति अपनी मनोदृष्टि में परिवर्तन लाने का सही अर्थ यही है | अपने और दूसरों के स्थान में  परिवर्तन लाने का अर्थ यह नहीं है कि अब मैं तुम हूँ और तुम मैं | जब तक आप अपने और दूसरों से सम्बंधित मनोदृष्टियों को नहीं बदलेंगे, तब तक आप बुद्ध की ज्ञानोदय प्राप्त अवस्था प्राप्त नहीं कर पाएँगे | यदि आप इन विचारों को अपने मन के लाभकारी अभ्यास बना लें, यदि आप इनपर मंथन करें, तो उस आधार पर, आप बिना किसी कठिनाई के करुणा का विकास कर पाएँगे |

सभी जीवों की कृपा को याद रखना और आभार का अनुभव करना

इसके अतिरिक्त आपको यह भी याद रखना चाहिए कि सीमित बुद्धिशक्ति वाले जीवों से अधिक और किसी ने भी आपके प्रति दया नहीं दिखाई है | उदाहरण के लिए आपको सोचना चाहिए कि कैसे कुछ देशों में लोगों को मधु खाना पसन्द है, और यह मधु कहाँ से आता है | यह कैसे बनता है? यह इन छोटी मधुमक्खियों के परिश्रम से बनता है | उन्हें छत्ता बनाना पड़ता है, उन्हें बाहर जाकर फूलों से पराग एकत्रित करना पड़ता है | वे मधु बनाती हैं और हम यह सब अपने लिए छीन लेते हैं |  मनुष्य मधु का सेवन केवल मधुमक्खियों के कठिन परिश्रम के कारण कर पाता है | सारा काम वे करती हैं और हम उसका आनन्द लेते हैं, तो इसलिए वे हमारे प्रति दयालु हैं | इसी प्रकार आपको सोचना चाहिए कि आपको दूध और माँस कहाँ से प्राप्त होता है | ये सब आपको ससीम जीवों की दया से मिलता है, वे जीव जिनकी बहुत सीमित बुद्धि होती है |

दूसरों की दया के विषय में इस प्रकार सोचने हमारे भीतर कृतज्ञ-भाव जाग्रत होना चाहिए, हमें उनकी दया का मोल चुकाने का प्रयास करना चाहिए | हम आध्यात्मिक साधना द्वारा इस दया का प्रतिदान कर सकते हैं | यदि आप सबके द्वारा की गई दया के विषय में सोचेंगे, तो आप सबके प्रति स्नेह का भाव विकसित कर पाएँगे, ठीक उस प्रकार जैसे आप अपनी मूल्यवान वस्तु को चाहते हैं और उसका बहुत ध्यान रखते हैं | इसी प्रकार आप दूसरों के प्रति स्नेह भाव विकसित कर पाएँगे, उनका ध्यान रखने की इच्छा रखेंगे, और यदि उन्हें किसी प्रकार का कष्ट हो तो आप बहुत दुखी होंगे |

करुणा का विकास

यह सब दूसरों के प्रति सम्भाव  विकसित करने पर निर्भर करता है | जब आपका कोई चहेता नहीं होगा और आप सबके प्रति समान भाव रख पाएँगे, तब आप वास्तव में सबके प्रति सच्चे प्रेम और करुणा का विकास कर पाएँगे | वास्तव में करुणा का विकास करने के लिए आपको, उदाहरणार्थ, उन विभिन्न विधियों के बारे में सोचना चाहिए जिनके द्वारा असहाय पशुओं का वध किया जाता है | वास्तव में करुणा का विकास करने के लिए, उदाहरणार्थ, आपको यह सोचना चाहिए कि पशुओं की हत्या किस-किस प्रकार से की जाती है |  उदाहरण के लिए, कुछ देशों में, जहाँ गायों और भैसों का वध किया जाता है, वे एक हथौड़ा लेकर उस असहाय पशु के सिर पर वार करते हैं, कभी-कभी तेरह बार से भी अधिक, और तब भी पशु नहीं मरता | इसी प्रकार कुछ स्थानों पर वे बड़े कछुओं का वध इस प्रकार करते हैं कि उसके पास जाकर, उसमें प्राण रहते हुए, उसके माँस के टुकड़े काटते हैं, और इस प्रकार उसे धीरे-धीरे मारते हैं | आपको सोचना चाहिए कि आपने भी किस प्रकार एक पशु के रूप में जन्म लेने की नकारात्मक सम्भाव्यताएँ अर्जित की हैं और उस योनि की पाशविक पीड़ा का अनुभव करें | आपको यह सोचना चाहिए कि यदि आपके साथ ये भयावह कृत्य हों तो आपको कैसा लगेगा |

जिस दूसरी बात पर आपको विचार करना चाहिए वह यह है कि किस प्रकार आपकी इस जीवनकाल की अपनी माता ने इसी प्रकार पशु के रूप में पुनर्जन्म लेने की नकारात्मक सम्भाव्यताएँ अर्जित कर ली हैं और यदि उनके साथ भी कुछ ऐसा ही व्यवहार हो | यदि आप अपनी माता के साथ ऐसा होते देखें तो आप क्या करेंगे ? आपको कैसा अनुभव  होगा? फिर इस विषय में सोचें कि ऐसा ही आपके पिता के साथ घटित हो सकता है | फिर सोचें कि आपके प्रत्येक मित्र के साथ ऐसा घटित हो | फिर अपने शत्रुओं के साथ ऐसे व्यवहार के विषय में सोचें | उसके पश्चात सामान्यतः सभी जीवित प्राणियों के साथ ऐसे व्यवहार के बारे में सोचें | यदि आप इस प्रकार सोचेंगे तब आप एक अति शुद्ध करुणा का विकास कर पाएँगे जिसके माध्यम से आप यह कामना करेंगे कि सब लोग क्लेशों और समस्याओं से मुक्त हो जाएँ | यदि आप सच्चे मन में इस महान करुणा का विकास कर पाएँगे, तो बुद्ध बनने की अवस्था बहुत दूर नहीं होगी | इस महान मनोदृष्टि का विकास अत्यंत महत्वपूर्ण है | 

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