SEE शिक्षण-पद्धति: हमारे मनोभावों को समझना

सामाजिक, भावात्मक, एवं नैतिक शिक्षण-पद्धति, एमरी विश्वविद्यालय, संक्षिप्त प्रारूप

सामाजिक, भावात्मक, एवं नैतिक (सी - SEE) प्रशिक्षण, एमरी विश्वविद्यालय स्थित द सेंटर फॉर कंटेम्पलेटिव साइंस एंड कम्पैशन-बेस्ड एथिक्स द्वारा विकसित कार्यक्रम है। इसका उद्देश्य है व्यक्तियों, सामाजिक समूहों, तथा बृहत्तर समुदायों को भावात्मक रूप से स्वस्थ एवं नैतिक रूप से उत्तरदायी बनाना। इस प्रथम भाग, SEE शिक्षण-पद्धति: हमारे मनोभावों को समझना में हम यह देखेंगे कि किस प्रकार हमें अपने मनोभावों का संचालन करना है और उन्हें संभालना है।

भूमिका

SEE शिक्षण-पद्धति हमें अपने जीवन के तीन क्षेत्रों में सहायता करने के लिए तैयार की गई है: व्यक्तिगत, सामाजिक, एवं वैश्विक। इन तीनों प्रक्षेत्रों को स्वतंत्र रूप से अथवा किसी भी क्रम में देखा जा सकता है; परन्तु, यदि हमें दूसरों की, तथा बृहत्तर समुदायों की - यहाँ तक कि पूरे संसार की - आवश्यकताओं की ओर ध्यान देना सीखना है, तो हमें सर्वप्रथम अपनी आवश्यकताओं एवं आतंरिक जीवन की ओर ध्यान देना होगा।

हम इसे "भावात्मक संज्ञान" के द्वारा कार्यान्वित करते हैं। भावात्मक संज्ञान का तात्पर्य है मनोभावों तथा उनका अपने एवं दूसरों के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों को पहचानने की क्षमता। इस पहचान से हम अपने मनोभावों का सफलतापूर्वक संचालन कर सकते हैं। अंततः, भावात्मक संज्ञान हमारे अपने उत्तम दीर्घकालिक हित हेतु लाभदायक निर्णय लेने के लिए आवश्यक मन की शान्ति को बनाए रखने के साथ-साथ, स्वयं एवं दूसरों को हानि पहुँचाने की क्षमता रखने वाले भावावेश प्रेरित व्यवहार को रोक सकता है।  इस लिए भावात्मक संज्ञान एक महत्त्वपूर्ण कौशल है जिससे हम फल-फूल सकते हैं।

सचेत-भाव, करुणा, एवं व्यक्तिगत कार्यक्षेत्र में व्यवहार

SEE शिक्षण पद्धति सचेत-भाव, करुणा, एवं व्यवहार, इन तीन योग्यताओं को, जिन्हें "आयाम" भी कहा है, प्रोत्साहित करने का प्रयास करता है। ज्ञान, कौशल, एवं प्रेरणा उपलब्ध कराने हेतु ये तीन आयाम एक साथ जुट जाते हैं, जिससे हम अपने व्यक्तिगत मामलों को संभालने, उत्तरोत्तर जटिल होते इस संसार का सामना करने, तथा वैश्विक नागरिक बनने में समर्थ हो सकते हैं। व्यक्तिगत कार्यक्षेत्र में इन तीन आयामों को तीन भिन्न दृष्टिकोणों से ग्रहण किया जाता है:

  • एकाग्रता एवं आत्म-सचेतन भाव 
  • आत्म-करुणा 
  • आत्म-नियंत्रण

एकाग्रता एवं आत्म-सचेतन भाव से तात्पर्य है कि हम अपने ध्यान को इस प्रकार लक्षित करें कि अपनी मानसिक और शारीरिक अवस्थाओं से उत्तरोत्तर अवगत हो जाएँ।  इसमें एक "मानसिक मानचित्र" की सहायता से अपने मनोभावों के बारे में सीखना सम्मिलित है। फिर, हम यह सीखते हैं कि किस प्रकार आत्म-करुणा से हमें अपनी अनुभूतियों एवं मनोभावों को समझना चाहिए, तथा बृहद सन्दर्भ में उन अनुभूतियों एवं मनोभावों को समझने का प्रयास करते हैं। इसमें मनोभावों के उत्पन्न होने के विभिन्न कारणों और परिस्थितियों की पड़ताल सम्मिलित है, जो बृहत्तर आत्म-स्वीकृति की ओर ले जा सकती है। अंततः, पहले दोनों दृष्टिकोणों से प्राप्त अंतर्दृष्टि से हम आवेग नियंत्रण प्राप्त करने हेतु आत्म-नियंत्रण का अभ्यास करते हैं, और इस प्रकार अपनी दैनिक चुनौतियों का रचनात्मक रूप से सामना करने की क्षमता को उत्कृष्ट बनाते हैं।

समग्र रूप से देखा जाए तो व्यक्तिगत कार्यक्षेत्र के सभी विषय भावात्मक संज्ञान बढ़ाने में सहायक होते हैं। हमारे चित्त और मनोभावों के जटिल अंतरतम क्षेत्र को समझने की क्षमता के बिना यह लगभग असंभव है कि हम अपने बद्धमूल, आत्म-विनाशकारी व्यवहार के ढर्रे से उबर पाएँ। यह हमारे आत्म-नियंत्रण और, यहाँ तक कि, स्वतन्त्रता की क्षमता को भी सीमित कर देता है। स्वार्थी होना तो दूर, आत्म-विकास से प्राप्त विशिष्ट माध्यम एवं कौशल का प्रयोग भावात्मक अपहरण से बचने और उसके स्थान पर अपनी समृद्धि एवं सफलता के लिए कर सकते हैं। आइए हम इन तीनों परिप्रेक्ष्यों का गहन रूप से अध्ययन करें।

एकाग्रता एवं आत्म-बोध

व्यक्तिगत कार्यक्षेत्र का उद्देश्य है हमारे शरीर और मन में क्या हो रहा है इसके आत्म-बोध के साथ अपने शरीर और मन के विषय में उपलब्ध शैक्षिक जानकारी को जोड़ पाना। उदाहरण के लिए, क्रोध क्या है, वह क्यों उत्पन्न होता है, और उसे कैसे शांत किया जा सकता है, इन बातों की बौद्धिक समझ को प्राप्त करने के साथ-साथ हम अपनी भावनाओं और मनोभावों पर ध्यान देते हुए अपने अनुभव में क्रोध को पहचानना सीखते हैं। इस प्रत्यक्ष अनुभव और शैक्षिक ज्ञान का मिश्रण ही भावात्मक संज्ञान की ओर पहला चरण है।

एकाग्रता और आत्म-बोध के लिए तीन क्षमताओं की आवश्यकता है:

  • अपने शरीर और उसकी संवेदनों की ओर ध्यान देना 
  • अपने मनोभावों और भावनाओं की ओर ध्यान देना 
  • मानस-मानचित्र का अनुसरण करना

अपने शरीर और उसकी संवेदनाओं की ओर ध्यान देना

संवेदनाओं के स्तर पर हमारे शरीर के भीतर क्या हो रहा है उसकी ओर ध्यान देकर हम प्रारम्भ करते हैं। हमारा शरीर हमारे तंत्रिका तंत्र की स्थिति की जानकारी का एक सतत स्रोत है चूंकि, भावात्मक अवस्थाएँ पूरे शरीर में हो रहे बदलावों के ठीक साथ-साथ होती हैं: जैसे हृदय गति, मांसपेशियों का तनाव या शिथिलीकरण, ठंडक या गरमी का अनुभव, इत्यादि। हमारे शरीर में क्या घटित हो रहा है इसको ध्यान से देखकर हम प्रायः अपनी भावात्मक अवस्था को अधिक शीघ्रता से जान सकते हैं बजाये पूरी तरह से अपने अनुभव से मानसिक पक्ष से ही एकतान होकर।

अपने शरीर की संवेदनाओं के बोध के माध्यम से अपने तंत्रिका तंत्र पर ध्यान देने से हम क्रमशः अपने तनाव और स्वास्थ्य के बारे में जान पाऍंगे। हम यह शीघ्र समझ पाएँगे कि क्या हम उद्दीपन आधिक्य की स्थिति में हैं (व्याकुलता, अत्यधिक क्रोध, उत्तेजना) या उद्दीपन अल्पता की (आलस्य, विषाद की भावना)। यह बोध हमारे शरीर को संतुलित बनाए रखने और शारीरिक स्वास्थ्य की ओर वापस जाने हेतु पहला चरण है, जो हमारे एवं दूसरों के उत्तम हित में काम करने की पहली शर्त है।

अपने मनोभावों एवं भावनाओं की ओर ध्यान देना

शरीर का ध्यान रखने और उसे नियंत्रित रखने का अभ्यास भावनाओं और मनोभावों का ध्यान रखने की आधारशिला प्रदान करता है। शरीर जितना शांत एवं व्यवव्स्थित रहेगा मन को केंद्रित करना उतना हो सहज होगा।

यद्यपि मनोभाव शीघ्रता से विकसित होते हैं, वे ठीक एक चिंगारी की भाँति शुरू होकर धधकती हुई जंगल की आग के समान बन जाते हैं। यदि हम अपने नकारात्मक मनोभावों को एक चिंगारी की अवस्था में ही वश में कर लेते हैं, तो हम उन्हें बहुत ही सहज रूप से संभाल सकते हैं। परन्तु ऐसा करने के लिए, जैसे ही हमारे मनोभाव और भावनाएँ उठती हैं, वैसे ही उन्हें पहचानने की क्षमता को हमें विकसित करना होगा। इस क्षमता को सीखा जा सकता है और, सचेतनता जैसे अभ्यासों से, उत्तमतर बनाया जा सकता है।

मानस-मानचित्र का अनुसरण करना

मानस-मानचित्र हमारे भावात्मक दृश्य-पटल को संचालित करने में सहायता करने वाला एक संसाधन है जो हमारे मनोभावों और भावनाओं को ग्रहण करने में अत्यधिक सहायता करता है। मानस-मानचित्र से हमें वह संसूचना मिलती है जिससे हमें मनोभावों के विभिन्न समूहों, उनके सामान्य लक्षणों, तथा उन मनोभावों के कारणों और प्रेरकों को पहचानने की क्षमता मिलती है। हम यह सीखते हैं कि सभी मनोभाव विनाशकारी नहीं होते, परन्तु वे तब विनाशकारी हो जाते हैं जब वे सन्दर्भ और परिस्थिति के अनुसार अनुपयुक्त हो जाएँ। उदाहरण के लिए, भय रचनात्मक हो सकता है जब वह हमें विषैले साँप से बचने की चेतावनी देता है, परन्तु जब वह स्थायी दुश्चिंता के स्तर तक पहुँच जाए, तो वह प्रतिकूल बन सकता है।

मानस-मानचित्र की सहायता से भावात्मक सचेतनता को जाग्रत करने से हम यह जान लेते हैं कि चिड़चिड़ाहट एक मंद भावात्मक स्थिति है जो क्रोध की ओर ले जा सकती है, तथा अनियंत्रित क्रोध पूर्ण-विकसित प्रचण्ड प्रकोप में परिवर्तित हो सकता है। उस अदम्य भावात्मक स्थिति तक पहुँचने से पहले मनोभावों के इन सूक्ष्म रूपों को पहचानने की क्षमता संतुलित मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कौशल होता है।

आत्म-करुणा

आत्म-करुणा आत्म-दया, आसक्त आत्म-तोष, अथवा मात्र उच्च आत्म-सम्मान नहीं है। आत्म-करुणा विशुद्ध आत्म-सेवा है, विशेष रूप से हमारे आतंरिक जीवन के सन्दर्भ में। यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि हमारे मनोभाव हमारी आवश्यकताओं से किस प्रकार सम्बंधित हैं। भावात्मक संज्ञान का यह स्तर उच्चतर आत्म-स्वीकृति की ओर ले जाता है, क्योंकि जब हम यह समझ लेते हैं कि भावों का उद्रेक कैसे होता है, तो हम कम-से-कम आत्मालोचना के साथ उन भावनाओं से जुड़ सकते हैं। फिर, जब हम यह देखते हैं कि भावनाएँ क्षणिक हैं, प्रसंगाधीन हैं, तथा हमारे चित्त का अपरिवर्ती भाग नहीं हैं, तो यह तथ्य हमें आत्म-विश्वास एवं स्वयं को उत्तमतर बनाने में लगे रहने की प्रेरणा देता है।

ये दो विशिष्टताएँ - आत्मस्वीकृति एवं आत्म-विश्वास - आलोचना को स्वीकार करने और रचनात्मक रूप से तथा लचीलेपन के साथ असफलता को संभालने का आधार तैयार करते हैं। यह अत्यधिक आत्मालोचन अथवा आत्म-सम्मान के अभाव के कारण होने वाली निराशा को रोकता है। आत्म-करुणा के दो स्वरूप हैं:

  • मनोभावों को सन्दर्भों में समझना 
  • आत्म-स्वीकृति

आत्म-करुणा हमारी क्षमता के यथार्थवादी आकलन पर आधारित है। यदि हम अपने प्रति उदार नहीं होते, तो हमें ऐसा लगेगा कि हमें और अधिक काम करना चाहिए जब कि वह संभव नहीं है, और इसका परिणाम निराशा और अशक्तिकरण होगा। स्वयं को सांसारिक सफलता के आधार पर मूल्यांकन करने के स्थान पर हम अपनी कमियों को ईमानदारी, सूझ-बूझ, और धैर्य के साथ स्वीकार करते हैं।

मनोभावों को सन्दर्भों में समझना

मनोभावों को सन्दर्भों में समझने के लिए - अर्थात, वे किस प्रकार हमारे मूल्यों, आवश्यकताओं, और अपेक्षाओं से सम्बद्ध हैं - समीक्षात्मक चिंतन की आवश्यकता है। जैसे हमने इससे पहले यह जाना कि हमें अपने आतंरिक संसार का ध्यान किस प्रकार रखना चाहिए, अब यहाँ हम इस बात का पता लगाएँगे कि किस प्रकार किसी भी परिस्थिति में हमारी भावात्मक प्रतिक्रिया किसी बाह्य कारण से ही नहीं, अपितु हमारे अपने परिप्रेक्ष्य और मनोदृष्टियों से प्रेरित होती है। ये परिप्रेक्ष्य और मनोदृष्टियाँ हमारी निजी आवश्यकताओं के आत्मपरक बोध पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए, दुश्चिंता उस परिस्थिति में हमारी अधिक निश्चितता की इच्छा का परिणाम हो सकती है, जिस परिस्थिति में किसी भी प्रकार की निश्चितता असंभव हो। सम्मान की कामना से क्रोध उत्पन्न हो सकता है। जिस परिस्थिति में समय और धैर्य की आवश्यकता हो उसमें अविलम्ब परिवर्तन की इच्छा का परिणाम निराशा हो सकती है। इन सभी परिस्थितियों में हमारी भावनाएँ प्रधान रूप से हमारी अपनी मनोदृष्टि और अपेक्षाओं से उद्दीप्त होती हैं।

जैसे-जैसे हम इन अंतर्दृष्टियों को प्राप्त करते हैं, अस्वस्थ आत्मालोचन की ओर ले जाने वाली हमारी अवास्तविक अपेक्षाओं को पहचानने के साथ-साथ, हम अपने मूल्य को पहचानने और आँकने तथा आत्म-प्रतिष्ठा और आतंरिक विश्वास के स्थायी भाव को विकसित करने की उत्तमतर स्थिति में पहुँच जाते हैं। यह समझते हुए कि किस प्रकार भावात्मक प्रतिक्रियाएँ आवश्यकताओं से जन्म लेती हैं, हम उन आवश्यकताओं को, जो सब एक समान नहीं होतीं, विवेचनात्मक रूप से आँकना प्रारम्भ कर सकते हैं। इस मूल्यांकन में हमारे अपने मूल्यों को गहन रूप से समझने तथा उन मूल्यों को दर्शाने वाली जीवनशैली की ओर ले जाने वाले घटकों को पहचानने के द्वारा अपनी आवश्यकताओं को अपनी कामनाओं से अलग करने की प्रक्रिया शामिल हो सकती है। यह उन लघु अवधि की आवश्यकताओं की प्राप्ति की चेष्टाओं से भिन्न है जो संभवतः दीर्घ अवधि के कल्याण की ओर नहीं ले जाती।

आत्म-स्वीकृति

आत्म-स्वीकृति अत्यंत आवश्यक है क्योंकि हमारे समाज में लोग क्रोध को अपनी ओर मोड़ लेते हैं। अत्यधिक आत्मालोचना, आत्म-द्वेष, आत्म-घृणा व्यक्ति के स्वास्थ्य और सुख के लिए नितांत हानिकारक होते हैं, और बाद में दूसरों को भी हानि पहुँचा सकते हैं। इसका सर्वश्रेष्ठ समाधान आत्म-सम्मान को सुदृढ़ करना नहीं है, क्योंकि आत्म-सम्मान का मूल्यांकन तो दूसरों की तुलना से होता है, और आक्रामकता प्रायः तब प्रकट होती है जब किसी व्यक्ति का उच्च आत्म-सम्मान संकट में पड़ जाता है। श्रेष्ठतर विधि यह है कि अपने भावात्मक जीवन और आवश्यकताओं को और अच्छे ढंग से समझकर अपनी आतंरिक सहनशक्ति, लचीलेपन, विनय, एवं धैर्य को विकसित कर लें। इससे अपने पूर्णतावादी आदर्शीकरण को ढील देकर अपने एवं दूसरों के प्रति वास्तविक अपेक्षाओं को रखते हुए हम आगे बढ़ सकते हैं।   

सामाजिक मीडिया, टेलीविज़न, फिल्मों आदि माध्यमों के द्वारा आधुनिक सभ्यता कई अवास्तविक अवधारणाओं को हमारे मन में महत्त्वाकांक्षी ढंग से विकसित करने में आश्चर्यजनक रूप से प्रभावी है। प्रायः हम अपनी तुलना आदर्श रूप से प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ करते हैं, या यह विश्वास करते हैं कि हमें "सुपरमैन" या "वंडर वुमन" की भाँति काम करना चाहिए, बिना किसी खोट या प्रतिबंधों के। ये अप्राप्य मानदंड हमें अनावश्यक मानसिक व्यथा पहुँचाते हैं।  परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हताशा हो सकता है विषाद और आत्म-दोषारोपण में बदल जाए, और आत्म-अहित की सीमा तक पहुँच जाए, अथवा दूसरों के प्रति विद्वेष और आक्रामकता के रूप ही धारण कर ले।

जब हमारे पास अपने भावात्मक जीवन के बारे में केवल सीमित जानकारी हो, तो हमें चुनौतियों, कठिनाइयों, एवं असफलताओं को सहना दुःसाध्य लगता है, तथा इसकी सम्भावनाएँ भी कम हो जाती हैं कि हम परिवर्तन और रचनात्मक कार्यों को करने के आयामों को ढूंढें। इस विषैले दुष्चक्र से बचने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपनी सीमाओं के वास्तविक परिप्रेक्ष्य को समझ लें। हमारी कठिनाइयों, उनके  स्वरुप,एवं उनके कारणों को समझने के लिए धैर्य और समझ को विकसित करने से हम इन हानिकारक मानसिक स्थितियों और व्यवहारों से दूर अपना पुनर्विन्यास करने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। साथ ही हम यह भी समझ सकते हैं कि हमारी आत्म-प्रतिष्ठा हमारे कार्य सम्पादन अथवा हमारे या दूसरों के द्वारा बनाए गए मनमाने मानकों को पूरा करने की हमारी क्षमता से सर्वथा स्वतंत्र है। यह आत्म-प्रतिष्ठा का बोध - जो बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है - लचीलेपन के लिए एक शक्तिशाली अवलम्ब है।

इस तथ्य पर चिंतन करके कि निराशा और व्यथा तो कुछ हद तक अनिवार्य हैं, हम इस प्रकार  की आत्म-स्वीकृति को विकसित करते हैं। यह असंभव है कि हम प्रत्येक कार्य में सर्वश्रेष्ठ हों, हमेशा जीतें, सर्वज्ञ हों, या कभी भी भूल न करें। ऐसा नहीं है कि केवल हम ही इस भ्रम का सामना कर रहे हैं। यह सब लोगों के जीवन की सच्चाई है।

आत्म-नियंत्रण

पिछले दो खण्डों में जिन विषयों और अभ्यासों की चर्चा की थी, उनसे आत्म-नियंत्रण का आधार स्थापित हो गया है। आत्म-नियंत्रण से अभिप्राय है वे अभ्यास और व्यवहार जो शरीर, मन, और मनोभावों से प्राप्त अंतर्दृष्टि और बोध को सुदृढ़ करते हैं। यहाँ उद्देश्य यह है कि हम अपने मनोभावों को इस प्रकार सफलतापूर्वक संचालित कर सकें कि वे हमारे या दूसरों के लिए अनुचित समस्याएँ खड़ी न करें: हमारे मनोभाव हमारे साथी बन जाएँ, न कि अड़चन।  आत्म-नियंत्रण के तीन घटक हैं:

  • शरीर को संतुलित करना 
  • संज्ञानात्मक एवं भावावेग नियंत्रण 
  • मनोभावों को संचालित करना

शरीर को संतुलित करना

यदि हम तनाव-ग्रस्त या अति- अथवा न्यून-उद्दीपन अवस्था में हों, तो अपने मनोभावों को सफल रूप से संचालित करने के लिए आवश्यक संज्ञानात्मक एवं भावावेश नियंत्रण को विकसित करना सहज नहीं है। बिना किसी प्रकार के शारीरिक नियंत्रण के मानसिक स्थायित्व एवं स्पष्टता ला पाना लगभग असंभव है। इसलिए, हमारे शरीर को संतुलित रखने में सहायता करने वाले अभ्यास हमें अत्यधिक लाभ पहुँचाएँगे। यदि हमें किसी प्रकार का आघात पहुँचा हो, अथवा हमने बचपन में किसी प्रकार के प्रतिकूल अनुभव का सामना किया हो, या हम अवांछनीय परिस्थितियों में रहे हों, तो शरीर को संतुलित करना एक अत्यंत आवश्यक कदम है।

हमें शरीर को एक ओर संतुलित करने और दूसरी ओर उसे शिथिल करने या निद्रा की अवस्था में लाने के बीच की भिन्नता को पहचानना होगा। यहाँ हमारा उद्देश्य है शारीरिक और मानसिक नियंत्रण को स्थापित करना, जो एकाग्रता और शिक्षण के लिए सहायक हो। यह सक्रिय, लचीली, और संतुलित अवस्था है, न कि शिथिल, निद्रालु, अथवा आलस्यमय अवस्था।

शरीर को संतुलित करने का पहला चरण है एक सुरक्षित स्थान का निर्माण करना। विश्वास और सुरक्षा के बोध के अभाव में हम अत्यधिक सतर्कता की अवस्था में रहते हैं। परन्तु, जब हम सुरक्षित अनुभव करते हैं, तो अपने विचारों और भावनाओं को कौतूहल के साथ स्वच्छंद रूप से परख सकते हैं। ध्यान दें कि पूर्वानुमान संभव स्थितियाँ सुरक्षा को जन्म देती है, और समरूपी व्यवहार पूर्वानुमान संभव करता है। और यहाँ समरूपता का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने प्रति कठोर बन जाएँ, अपितु यह कि स्वयं के साथ सहनशील और करुणामय व्यवहार करें।

शरीर को संतुलित करने और सुरक्षा के बोध को विकसित करने के लिए ये तीन कार्य सहायक बन सकते हैं:

  • संसाधन जुटाने का अर्थ है अपने बाह्य या आतंरिक संसाधनों तक पहुँचने का अभ्यास करना।  बाह्य संसाधन के उदाहरण हैं कोई सहृदय हितैषी, कोई मनभावन स्थान, कोई सुखद स्मृति, कोई पालतू पशु जो हमारे मन को भाए, इत्यादि। हमारा कोई कौशल, हमारे सकारात्मक पहलू जैसे विनोदप्रियता, या हमारे शरीर का कोई अंग जो सुदृढ़ और समर्थ हो, इत्यादि सब आतंरिक संसाधनों के उदाहरण हैं। हमारे इन संसाधनों का स्मरण करने से हम लचीलेपन, सुरक्षा, एवं सुख की ओर बढ़ते हैं। इस अभ्यास को एक बार विकसित कर लेने से हम अपने संसाधनों के बारे में विचार करते समय अपनी संवेदनों पर ध्यान दे सकते हैं, और इस अवस्था की उस स्थिति से तुलना कर सकते हैं जब हम तनावग्रस्त या व्याकुल रहते हैं।
  • स्थापित करना वह काम है जहाँ हम उस वस्तु को छूते या थामते हैं जो हमें स्थिर रखती है, या जो हमारे शरीर को सहारा देती है। हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि वह वस्तु अथवा सहारा कैसा लगता है, और, अपनी मुद्रा को बदलते हुए, यह समझने का प्रयास करते हैं कि इससे हमारी भावनाएँ किस प्रकार बदलती हैं।
  • गतिविधियाँ, जैसे योग, ताई-ची, संगीत श्रवण, चित्रकला, तथा प्रतिदिन डायरी लिखना, हमारे शरीर को संतुलित करने की अधिक नियमानुरूप विधियों की ओर हमें अंतरित करती हैं । हम अपने श्वास को गिनने अथवा गहरी साँस लेने का भी सहारा ले सकते हैं, जो संभवतः सबसे पुरानी और सरल विधि है।

संज्ञानात्मक एवं भावावेग नियंत्रण

जीवन में सफल होने के लिए हमें, बिना विचलित हुए, अपने कार्य पर ध्यान केंद्रित करके रहना होगा। इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि हम आवश्यक बैठकों में ही ध्यान लगाने में सक्षम हों, अपितु यह भी है कि हम अपने उन विचारों और व्यवहारों को भी समझें जो प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। अब यह हमारी एकाग्रता के विकास पर निर्भर करता है कि हम उस स्तर तक अपने भावावेग को नियंत्रित कर पाएँ और उनकी अभिव्यक्ति करने से स्वयं को रोक पाएँ जिस स्तर पर उस नियंत्रित अवस्था को बनाए रखने और भटकाव में स्वयं को न फँसने देने में हम सफल हो जाएँ। अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ ध्यान से अभिप्राय उस क्षमता से है जिससे हम अपने भीतर झाँककर अपने  शरीर और मन में जो परिवर्तन होते हैं उन्हें तुरन्त समझ सकें। अपनी एकाग्रता को इस प्रकार प्रशिक्षित करने से हम उद्दीपन और प्रतिक्रिया के बीच समय का एक अंतराल बना सकते हैं: वह अंतराल जिसमें एक सुविचारित प्रतिक्रिया विकसित की जा सके।

इस क्षमता की आवश्यकता तब होती है जब हमें अपने दीर्घ-कालिक उद्देश्यों के साथ धैर्य-पूर्वक आगे बढ़ना हो और सभी चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करना हो। जब हमारा ध्यान सुदृढ़ हो, न केवल अपने अध्यापक या उच्चाधिकारी को ध्यानपूर्वक सुनने के लिए, अपितु उससे भी अधिक सुदृढ़, तब हम अपनी संज्ञानात्मक प्रक्रिया और मनोभावों को नियंत्रित कर सकते हैं, और बेहतर ढंग से अपने कृत्यों की मुखर अभिव्यक्ति कर सकते हैं। इस प्रकार हम अपने जीवन का आनंद उठा सकते हैं और उसका पूरा लाभ भी उठा सकते हैं।

अपने ध्यान को उन्नत बनाने के लिए विशिष्ट उपाय हैं। हम यह सीख सकते हैं कि हम किस प्रकार ध्यान को विशिष्ट वस्तुओं पर संकेन्द्रित करते हुए, अपने शरीर और मन में जो हो रहा है उसके बोध को पूर्णतया विकसित करते हुए, तथा अपने विचारों और मनोभावों के साक्षी बनकर, "पूर्णतः उपस्थित" होने की अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।

मनोभावों को संचालित करना

अपने मनोभावों को संचालित करने के लिए हम उस कौशल का प्रयोग करते हैं जिसे हमने शरीर को संतुलित करने और संज्ञानात्मक नियंत्रण को विकसित करने की प्रक्रियाओं से प्राप्त किया है। यह अंतिम चरण हमारे इस प्राप्त ज्ञान को प्रयोग में लाना है जो भावात्मक संज्ञान का अंतिम पड़ाव है।

यहाँ हम भावात्मक सविवेक विभेद को विकसित करते हैं। यह विभेद इस बात को पहचानने की क्षमता है कि हमारे मनोभाव अपने और दूसरों के लिए कब लाभकारी तथा सहायक हैं, और कब अपने और दूसरों के लिए विषैले और हानिकारक हैं। हम इस विभेद को अपने व्यक्तिगत अनुभव के चिंतन तथा अपने मानसिक मानचित्र के प्रयोग से विकसित कर सकते हैं। जब हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि आज से पहले हमारी भावनाएँ किस प्रकार प्रकट हुई थीं, और उनके परिणाम क्या थे, तब हम रचनात्मक और ध्वंसात्मक मनोभावों की समझ को स्वाभाविक रूप से विकसित कर पाऍंगे। परिणामस्वरूप, हम अपनी उन मानसिक स्थितियों के प्रीति सतर्क हो जाएँगे जो हमें और दूसरों को हानि पहुँचा सकती हैं। हम इसका भी निर्णय कर पाएँगे कि किन मनोदृष्टियों को हमारे भीतर बढ़ावा देना चाहिए और किन्हें बदलना चाहिए। जब हम अपने मनोभावों को पहचानने और नियंत्रित करने की क्षमता को विकसित करते हैं, तो हम उत्साह, साहस, और प्रोत्साहित आत्म-विश्वास का अनुभव करेंगे।

सारांश

भावात्मक संज्ञान – अर्थात हमारे मन, मनोभावों, और भावनाओं की समझ – को विकसित करना एक स्वस्थ आत्म-प्रतिष्ठा का बोध प्राप्त करने तथा अपनी भावनाओं की पूरी श्रृंखला से निपटने की ओर पहला अनिवार्य कदम है। जब हम यह समझ लेते हैं कि हमारी भावनाएँ हमारा सहजात अंग नहीं है, तब हम उन्हें सफलतापूर्वक संभाल सकते हैं और स्वयं आत्म-स्वीकृति तक पहुँच सकते हैं। हम यह समझ पाएँगे कि क्रोधित होने पर अपराध-बोध ग्रस्त होने की, अथवा विषाद अनुभव करने पर दुखी होने की आवश्यकता नहीं है। एक बार हमें अपना मानसिक मानचित्र प्राप्त हो जाए और हम अपनी भावनाओं के कारण और उनके परिणामों को समझ लें, तो हम यह स्वयं जान सकेंगे कि वे कौन-सी भावनाएँ हैं जो हमारे मन को शान्ति दे सकती हैं, और कौन-सी हमें पीड़ा पहुँचा सकती हैं; तथा, उन नकारात्मक भावनाओं के लिए हमारे पास वे कौशल भी होंगे जिनसे हम उन्हें पहचान सकेंगे और उनके अनियंत्रित हो जाने से पहले उनका उपचार भी कर सकेंगे। इसमें प्रशिक्षण अर्जित करने से हमें विश्वास के साथ-साथ हमारी अपनी सम्भाव्यताओं को ग्रहण करने और उन्हें प्राप्त करने की शक्ति भी प्राप्त होगी। 


यदि आप और गहन रूप से जानना चाहते हैं, तो SEE अध्ययन रूपरेखा के पूर्ण पाठ को पढ़िए, और सेंटर फॉर कंटेम्पलेटिव साइंस एंड कम्पैशन-बेस्ड एथिक्स के अन्य कार्यक्रमों को भी जानिए।

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