आध्यात्मिक गुरुजन के साथ गुणकारी सम्बंध
किसी शिष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है कि वह किसी लामा से शिक्षा प्राप्त करना शुरू करने से पहले सावधानीपूर्वक उसकी जाँच कर ले। किसी लामा के पास केवल इसलिए न जाएं कि वहाँ दी जाने वाली शिक्षा की बड़ी ख्याति है। आपको बड़ी सावधानी से लामा की पड़ताल करनी चाहिए। किसी ग्रंथ में कहा गया है कि किसी आचार्य और शिष्य को परस्पर जाँच-पड़ताल करके यह तय करने में लगभग बारह वर्ष का समय लगता है कि उनके बीच आत्मीय गुरु-शिष्य सम्बंध स्थापित हो सकता है या नहीं। हालाँकि वस्तुस्थिति यही है, लेकिन इतना अरसा एक बहुत लम्बी अवधि होती है, और इतना अधिक समय लगाने के अपने बहुत से नुकसान हैं।
एक शाक्य आचार्य के उदाहरण का उल्लेख मिलता है जिन्हें चीन के सम्राट को शिक्षा देने के लिए आमंत्रित किया गया था। सम्राट ने उन आचार्य से शिक्षा ग्रहण करने का निर्णय करने से पहले नौ वर्षों तक उनकी परीक्षा ली। नौ वर्ष बीत जाने के बाद सम्राट ने आचार्य से आग्रह किया कि वे उसे शिक्षा दें। जब आचार्य ने सम्राट से पूछा, “आपने शिक्षा प्रारम्भ करने के लिए अनुरोध करने में नौ वर्षों का समय क्यों लगाया?” तो सम्राट ने उत्तर दिया, “इस पूरी अवधि में मैं आपकी परीक्षा ले रहा था।” आचार्य ने तब उत्तर दिया, “अब अगले नौ वर्ष मैं आपकी परीक्षा लेने में लगाऊँगा!” नतीजा यह हुआ कि आचार्य उस सम्राट को कभी शिक्षा दे ही नहीं पाए। यदि आप इसमें बहुत अधिक समय लगाएं, तो ऐसा हो सकता है।
जहाँ तक वर्तमान युग में किसी लामा की परख करने का प्रश्न है, पहली बारीकी को इन दो प्रश्नों की सहायता से समझा जा सकता है: पहली बार उस आचार्य से भेंट होने पर आपको कैसा अनुभव हुआ? क्या भेंट होने पर तत्काल आपके चित्त को खुशी का अनुभव हुआ, या फिर किसी भी प्रकार की कोई अनुभूति नहीं हुई? इसके अलावा, जब आपने पहली बार उन आचार्य का नाम सुना तो क्या आपको इससे खुशी मिली या नहीं? दूसरी बारीक बात यह है कि जब आप पहली बार आचार्य से भेंट करने के लिए गए तो क्या वे वास्तव में वहाँ मौजूद थे या नहीं? कभी-कभी ऐसा होता है कि जब लोग किसी आचार्य से पहली बार मिलने के लिए जाते हैं, तो आचार्य अपने घर पर मौजूद नहीं होते हैं। यह कोई शुभ संकेत नहीं है। तीसरी बात यह है कि इस बात को ध्यान से सुना जाए कि दूसरे लोग उस आध्यात्मिक गुरु के बारे में क्या कहते हैं, और अलग-अलग लोगों की राय को सुनना चाहिए। हालाँकि यह बहुत कठिन होता है कि आध्यात्मिक गुरुजन में सभी प्रकार की उचित योग्यताएं विद्यमान हों, लेकिन मुख्य बात यह है कि उनके हृदय में स्नेह और उदारता का भाव होना चाहिए, सभी की परवाह करने की स्नेहपूर्ण उत्कट इच्छा होनी चाहिए, और उन्हें ईमानदार होना चाहिए।
किसी भी आध्यात्मिक गुरु या लामा के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाने से पहले उसकी उचित प्रकार से जाँच कर लेना बहुत महत्वपूर्ण होता है। केवल यह सुन कर ही उत्साहित नहीं हो जाना चाहिए कि कोई लामा आने वाले हैं, और सोच-विचार किए बिना उनसे मिलने के लिए नहीं चल देना चाहिए। ऐसा करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। किन्तु एक बार जब आप किसी आध्यात्मिक गुरु के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो जाएं तो फिर उसके बाद गुरु के प्रति मन में संदेह रखना या फिर उनकी जाँच-पड़ताल करना भी उचित नहीं है।
पुराने समय में महान अनुवादक मारपा जैसे अनुवादकों और दूसरे लोगों ने सोना जमा करने और भारत की यात्रा करके वहाँ के आध्यात्मिक गुरुओं से भेंट करने के लिए अनेक प्रकार के कष्ट उठाए। मारपा के शिष्य मिलारेपा को अपने हाथों से एक नौ-मंज़िला मीनार का निर्माण करना पड़ा था। उन्होंने अपनी पीठ पर पत्थर ढोए जिससे उनके शरीर पर भयंकर घाव हो गए। उन्होंने बहुत कष्ट उठाए। मीनार का निर्माण कर लेने के बाद भी मारपा उन्हें दीक्षा या शिक्षाएं देने के लिए तैयार नहीं थे। मारपा के न्गॉग चोकू दोर्जे नाम के एक और शिष्य भी थे जिन्होंने चक्रसंवर अभिषेक दिए जाने के लिए अनुरोध किया था। वे इतनी दूरी पर रहते थे जितना दूर एक दिन भर में घोड़े की सवारी करके जाया जा सकता है। जिस समय मीनार का निर्माण पूरा हुआ, उस समय मारपा की पत्नी दागमेमा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम दारमा-डोडे रखा गया। अपने पुत्र के जन्म की खुशी में और मिलारेपा की नौ-मंज़िला मीनार का निर्माण पूरा होने के अवसर पर मारपा ने न्गॉग चोकू दोर्जे के पास यह संदेश भेजा कि वे चक्रसंवर की दीक्षा देना चाहते हैं, और इसलिए उन्हें आना होगा।
जब न्गॉग चोकू दोर्जे आए, तो वे मारपा को चढ़ावे के तौर पर देने के लिए अपनी सारी सम्पत्ति को भी लेकर आए। उनकी सम्पत्ति में एक बकरी भी शामिल थी जिसका पैर टूटा हुआ था और इसलिए वह चल नहीं सकती थी। इसलिए वे उस बकरी को घर पर ही छोड़ आए। मारपा ने कहा, “क्या बात है? तुम उस बकरी को भी क्यों नहीं ले कर आए? मैंने इन शिक्षाओं को हासिल करने के लिए तीन बार भारत गया और उस यात्रा में मैंने भीषण कठिनाइयों का सामना किया, और यह दीक्षा तो बहुत ही मूल्यवान है। तुम्हें वापस घर जा कर उस बकरी को लाना ही होगा।” जब मारपा ने चक्रसंवर की दीक्षा दी तो मारपा की पत्नी को मिलारेपा पर दया आ गई और वे मिलारेपा को भी अभिषेक के लिए ले आईं। मारपा ने एक बड़ा सा डंडा उठाया और फटकारते हुए मिलारेपा को खदेड़ दिया, वे मिलारेपा को अभिषेक प्राप्त करने की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं थे। मारपा की पत्नी बार-बार मारपा से अनुरोध करती रहीं कि वे मिलारेपा को वहाँ मौजूद रहने दें और अभिषेक प्राप्त करने की अनुमति प्रदान करें।
आखिरकार मारपा अपनी पत्नी के लिए करुणा भाव के कारण मिलारेपा को अभिषेक देने के लिए तैयार हो गए। मिलारेपा को इतनी कठिनाइयों का सामना इसलिए करना पड़ा क्योंकि मारपा ने ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए भारत में नरोपा से शिक्षा ग्रहण करने के लिए बहुत भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, और नरोपा ने भी अपने शिक्षक तिलोपा से शिक्षा ग्रहण करने में बहुत भारी कठिनाइयाँ उठाई थीं। ज्ञानोदय ऐसे ही आसानी से प्राप्त नहीं होता है। इन सिद्धियों को हासिल करने के लिए मिलारेपा को भी अनेक प्रकार की कठिनाइयों से जूझ़ना था।
मारपा ने कहा, “हालाँकि मिलारेपा मेरी सेवा कर रहा है, फिर भी मैं उसके साथ बहुत नाराज़गी और कड़ाई का व्यवहार करता हूँ। लेकिन मेरी सेवा के परिणामस्वरूप वह इसी जीवनकाल में ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकेगा। वह पहले ही मीनार बनाने जैसे कठिन कार्य करके दिखा चुका है।” लेकिन मारपा ने अपनी पत्नी पर दया दिखाई, क्योंकि वह मिलारेपा के प्रति बहुत करुणा का भाव रखती थी, और इसलिए उन्होंने मिलारेपा को अभिषेक प्राप्त करने की अनुमति दे दी। अभिषेक प्राप्त करने के बाद मिलारेपा को उसी जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए कठोर ध्यान साधना और अभ्यास करने की आवश्यकता थी। लेकिन, मारपा के वफादार सेवक होने के कारण ही मिलारेपा ज्ञानोदय प्राप्त कर सके – लेकिन फिर भी, उन्हें गुफाओं में रहकर साधना करने की कठिनाइयों से होकर गुज़रना पड़ा।
धर्म से साक्षात्कार के अवसरों की दुर्लभता
यदि हम इस सब बातों को वर्तमान समय में लागू करें तो हम पाते हैं कि दुनिया में ऐसे बहुत से महान देश हैं जहाँ धर्म शब्द सुनने के लिए भी नहीं मिलता है। वहाँ बुद्धों की देह, वाणी या चित्त का थोड़ा सा भी दर्शन नहीं होता है। यदि इन्हें किसी रूप में दर्शाया भी गया हो, तो भी उन्हें पवित्र नहीं माना जाता है और न ही बहुमूल्य समझा जाता है। इन देशों में प्रत्येक व्यक्ति इस जीवन में सब कुछ ठीक और अच्छा कर लेने की कोशिश में व्यस्त दिखाई देता है, और उसकी पूरी ऊर्जा स्वयं अपने ऊपर ही खर्च होती है। इस तरह वे लोग अपने आप को यह सोच कर गुमराह करते रहते हैं कि जीवन में करने योग्य केवल इतना ही है। इस सोच के आधार पर उन्होंने बहुत अधिक भौतिक प्रगति हासिल करने की कोशिश की है, सड़कें आदि बनाई हैं। वे कितनी ही अच्छी चीज़ों का निर्माण कर लें, उन्होंने कितनी ही भौतिक तरक्की कर ली हो, इससे उनकी समस्याएं ही बढ़ी हैं, दुख और असंतोष ही बढ़ा है। आप सभी को इसकी जानकारी है। स्वयं शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म एक शाही परिवार में हुआ था। वे एक राजकुमार थे और उनके पास अकूत धन-दौलत थी। उन्हें यह बात समझ में आ गई कि यह सब निःसार है, इसलिए उन्होंने इस सब का त्याग कर दिया, और अपनी कड़ी तपस्या के माध्यम से ज्ञानोदय प्राप्त किया।
आप सब भी इस बात को समझते हैं कि इस जन्म को सुखी बनाने के लिए भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने की कोशिश में अपना पूरा जीवन बिता देने में कोई विशेष सार या अर्थ नहीं है। यही कारण है कि आप लोग धर्म के आध्यात्मिक विषयों की ओर मुड़े हैं, और मैं मानता हूँ कि यह एक बहुत अच्छी बात है। जहाँ तक इस बात का सम्बंध है कि ये आध्यात्मिक विषय क्या हैं, ये विषय ऐसे विभिन्न प्रकार के उपायों और साधनाओं से सम्बंधित हैं जो आपके आगे आने वाले जन्मों और उससे भी आगे तक आपके लिए लाभकारी रहेंगे। इससे सम्बंधित सबसे अच्छी विधियों की शिक्षा पहले-पहल भारत में दी गई, और फिर उनका प्रसार तिब्बत में भी हो गया।
तिब्बत में कुछ ऐसा हुआ कि वहाँ की स्थितियाँ असहनीय हो गईं और वहाँ धर्म का अनुशीलन कर पाना सम्भव नहीं रहा। हमें लगा कि धर्म की आध्यात्मिक साधनाओं से रहित जीवन बिताने का कोई अर्थ नहीं रह गया था, इसलिए हम शरणार्थी बनकर तिब्बत से चले आए। हमने इस देश जैसे कई देशों में जाकर शरण ली जहाँ हमारी मुलाकात आप जैसे लोगों से हुई जिन्हें धर्म और आध्यात्मिक विषयों में विशेष रुचि है और जिन्हें तिब्बती भाषा की जानकारी नहीं है। आपकी विशेष रुचि और धर्म की साधना करने की विशेष इच्छा को ध्यान में रखते हुए हम आपको विषयों की बेहतर से बेहतर ढंग से जानकारी देने का प्रयास करते हैं।
यदि आप मुझे एक उदाहरण के तौर पर देखें, तो तिब्बत में मैंने अपनी शिक्षा अधिकांशतः अपनी शिक्षा गेलुग परम्परा के लामाओं और आचार्यों से प्राप्त की। दरअसल मैंने शाक्य, काग्यू और न्यिंग्मा परम्पराओं के लामाओं और आचार्यों से भी शिक्षा प्राप्त की है। मैंने कुल मिला कर 53 आध्यात्मिक गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की है। मैं इस बात को लेकर बहुत चिंतित हूँ कि धर्म की शिक्षाओं की निरन्तरता खत्म न हो जाए और फिर पूरी तरह से लुप्त न हो जाए। धर्म का अध्ययन करने में आप सभी की इतनी गहरी रुचि है। इसलिए मैं आपके जैसे लोगों को इस भावना के साथ शिक्षा देने का प्रयत्न करता हूँ कि मेरा प्रयास आपके लिए लाभकारी हो।
आप जान चुके हैं कि केवल इस जीवनकाल से जुड़ी चीज़ों में ही लिप्त रहने का कोई विशेष सार नहीं है। इन आध्यात्मिक उपायों को सीखने में आप सभी की रुचि है, और आप लोग तिब्बती भाषा नहीं जानते हैं। आपके लिए यह बड़ी कठिनाई की बात है। मैं काफी बूढ़ा हो चला हूँ, और यदि धर्म की शिक्षा न दी जाए तो फिर आगे ये शिक्षाएं उपलब्ध नहीं हो पाएंगी। इसीलिए, बावजूद इस बात के कि मुझे हर विषय की पूरी जानकारी नहीं है, फिर भी मैंने आपको सूत्र और तंत्र की शिक्षाओं के बारे में मुझसे जितनी अच्छी तरह हो सका, आपको जानकारी देने का प्रयास किया है।
बहुत सम्भव है कि आपकी कुछ शंकाएं हों। कहा जाता है कि तीन वर्ष की अवधि में शिक्षा-उपदेश की मांग करना, अनुरोध करना उचित होता है। आप जानते हैं कि ऐसी परम्परा है कि कोई अभिषेक वास्तव में दिए जाने से पहले कई बार उसके लिए अनुरोध किया जाना चाहिए, और यह कि अभिषेक दिए जाने के लिए अनुरोध किए जाने के तत्काल बाद अभिषेक दिया जाना उचित नहीं है। इसलिए, हमें इस बात पर संदेह हो सकता है कि आजकल शिक्षाएं और अभिषेक इतनी तत्परता से क्यों दे दिए जाते हैं। जहाँ तक मेरी अपनी बात है, मैं यह सोचता हूँ कि ये शिक्षाएं और गुरु परम्पराएं लुप्त न हो जाएं। चूँकि आपकी धर्म का अनुशीलन करने की गहरी रुचि और इच्छा है, और मैं स्वयं भी बूढ़ा हो रहा हूँ, इसलिए जब लोग अनुरोध करते हैं तो मैं उन्हें बहुत लम्बे समय तक इंतज़ार करवाए बिना शिक्षाएं और अभिषेक देने के लिए तैयार हो जाता हूँ। मैं ऐसा इस भावना के साथ करता हूँ कि मैं दूसरों की भलाई कर सकूँ।
धर्म का अर्थ और धर्म साधना के तीन स्तर
धर्म का क्या अर्थ है? धर्म एक ऐसा निवारक उपाय है जो व्यक्ति के आगे आने वाले जन्मों में और उसके बाद भी लाभ पहुँचाता है। इस जीवन में अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आप जो भी प्रयास कर लें – अच्छा खाना-पीना और रहने के लिए अच्छा घर – इनमें से कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे निवारक उपाय (धर्म) कहा जा सके। इन चीज़ों की साधना करना कोई आध्यात्मिक साधना नहीं है। यदि आप चाहते हों कि आपके इस जीवनकाल में आपके लिए सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहे, और यदि आप उसके निमित्त किसी अधिकारी को एक लाख डच गिल्डर की राशि भेंट करें, तो इसे कोई निवारक उपाय नहीं कहा जा सकता है। यहाँ आपके सोचने का ढंग यह है कि यदि आप एक लाख स्वर्ण गिल्डरों का चढ़ावा चढ़ाएंगे तो इसके बदले में आपको दस लाख गिल्डर मिलेंगे। यह तो व्यापार हुआ; यह आध्यात्मिक साधना नहीं है। यदि आप किसी पशु को रोटी का एक छोटा सा टुकड़ा देने जैसा छोटा सा कार्य करते हैं, इस सोच के साथ कि ऐसा करने से आपको भविष्य के जीवन कालों में सुख की प्राप्ति होगी, तो यह वस्तुतः एक निवारक उपाय है; यह आध्यात्मिक साधना है।
भविष्य के जीवनों को सुधारने के लिए निवारक उपायों के कई स्तर और पैमाने होते हैं। यदि आप भविष्य के जन्मों में स्वयं के लिए सुख की प्राप्ति के लिए निवारक उपाय कर रहे हैं, तो यह हीनयान की एक मामूली साधना है। यदि आप भविष्य के सभी जन्मों में सभी के लिए सुख की प्राप्ति के लिए निवारक उपाय कर रहे हैं, तो यह एक उदार-चित्त महायान साधना है। इसलिए, सबसे अच्छा यही है कि आप हमेशा स्थितियों को बेहतर बनाने और सीमित चित्त वाले समस्त जीवों, सभी सचेतन जीवधारियों की सहायता करने की दृष्टि से कार्य करें।
सुख की प्राप्ति कैसे हो इस बात को लेकर प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक अलग राय होती है, और सुख की प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपने अलग तरीके का प्रयोग करता है। इसी प्रकार भविष्य के जन्मों को लक्षित करके साधना करने की भी विभिन्न प्रकार की विधियाँ होती हैं। इन विधियों में, यह आवश्यक होता है कि साधना ऐसी हो जिसमें सभी के सुखी होने की कामना की जाए – बिना किसी अपवाद के सभी सीमित क्षमताओं वाले जीवों के सुख के लिए कामना की जाए। कम से कम प्रेरणा ऐसी होने चाहिए जिसमें कामना की जाए कि भविष्य के जन्मों में आपका पुनर्जन्म किसी निम्नतर योनि में न हो। इसके लिए आपको दस विनाशकारी कृत्यों से मुक्त होने का अभ्यास करना होगा। धर्म की शिक्षा देने वाला गुरु अपनी शिक्षा की शुरुआत इस बात से करेगा कि विनाशकारी कृत्यों से किस प्रकार बचा जाए ताकि निम्नतर अवस्थाओं में जन्म न लेना पड़े।
आध्यात्मिक साधनाओं और धर्मों के अनेक प्रकार हैं, और इन सभी का उद्देश्य सुख प्रदान करना, और समस्याओं, कष्टों और दुख से मुक्ति प्रदान करना है। बौद्ध धर्म में इसके लिए तीन प्रमुख विधियाँ अपनाई जाती हैं। पहली विधि तो दस विनाशकारी कृत्यों से दूर रहने का अभ्यास है ताकि किसी निकृष्टतर अवस्था में पुनर्जन्म से बचा जा सके। फिर इसके बाद तीन विशिष्ट साधनाओं के अभ्यास की बात आती है ताकि आप अनियंत्रित ढंग से बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्याओं अर्थात संसार से मुक्त हो सकें। साधना की तीसरी विधि सभी की भलाई के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति की दृष्टि से सभी प्रकार के विभिन्न अभ्यासों को करने से सम्बंधित है। धर्म की साधना के यही तीन स्तर हैं।
सुख की प्राप्ति
जब मैं धर्म की शिक्षा देता हूँ तो मेरा उद्देश्य यह होता है कि मैं आपको विभिन्न प्रकार की उन विधियों की जानकारी दे सकूँ जो इन लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक हों। गेलुग्पा धर्म की शिक्षा देने के पीछे मेरी उद्देश्य यह नहीं होता है कि सभी गेलुग्पा बन जाएं। मेरे शिक्षा देने के पीछे यह विचार भी नहीं है कि सभी को बौद्ध बन जाना चाहिए। चूँकि आप दुख नहीं चाहते हैं, इसलिए मैं आपको यह समझाना या बताना चाहता हूँ कि आपकी सभी समस्याएं सभी दुख नकारात्मक व्यवहार करने के कारण उत्पन्न होते हैं। और यह कि यदि आप नकारात्मक व्यवहार करना बंद कर दें तो आपको कोई समस्या या दुख नहीं होगा। यदि आप सुखी होना चाहते हैं, और क्योंकि सुख की प्राप्ति सकारात्मक व्यवहार करने के परिणामस्वरूप होती है, इसलिए आपको सकारात्मक व्यवहार करना चाहिए। मुझे आपको यही बात बतानी है। सभी लोग इस दृष्टि से समान हैं कि प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है, और कोई भी दुख और समस्याएं नहीं चाहता है। हर कोई अधिकाधिक सुख चाहता है और ऐसा सुख चाहता है जो स्थायी हो।
जहाँ तक स्थायी और सदा कायम रहने वाले अधिक से अधिक सम्भव सुख की अवस्था को प्राप्त कर पाने की बात है, इस अवस्था को केवल बुद्ध के ज्ञानोदय की अवस्था को प्राप्त करके ही पाया जा सकता है। इस अवस्था को प्राप्त करने का अर्थ पूरी तरह से निर्मलचित्त होना, पूर्ण विकसित होना और उच्चतम स्तर की समस्त क्षमताओं को हासिल करना होता है। जहाँ तक इस बात का सम्बंध है कि इसी जीवनकाल में पूरी तरह निर्मल चित्त कैसे बना जाए और पूर्ण विकसित बुद्ध कैसे बना जाए, तो इसे हासिल करने की विधियों के बारे में तंत्र की शिक्षाओं में बताया गया है। ये चित्त को संरक्षित रखने के गुप्त उपाय हैं। अब, जहाँ तक इस बात का सम्बंध है कि कौन-कौन लोग दरअसल इस प्रकार की साधनाओं को कर सकते हैं, तो हम सभी के भीतर इन उपायों को करने की क्षमता विद्यमान है। हमें इस मानव जीवन का आधार प्राप्त है।
हालाँकि हमें मानव चित्त और शरीर का आधार प्राप्त है, हमारे अपने जीवनकाल में ही इसका उपयोग करके ज्ञानोदय प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम उसी प्रकार से साधना करें जैसी महान मिलारेपा ने की थी। उन्होंने पूरे मनोयोग से अपनी पूरी ऊर्जा को ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए आवश्यक सभी प्रकार के कष्टों को उठाने के लिए लगा दिया। क्योंकि हम ऐसा पूर्ण समर्पण भाव लाने, और इस प्रकार के भारी कष्टों को उठाने के लिए तैयार नहीं होते हैं, इसीलिए हम अपने जीवनकाल में निर्मल चित्त नहीं हो पाते हैं और न ही पूर्णतः विकसित हो पाते हैं। यदि हम मिलारेपा के उदाहरण को देखें तो पाएंगे कि किसी भी प्रकार के उपदेश या शिक्षा प्राप्त करने से पहले मिलारेपा ने भीषण कठिनाइयों का सामना किया था और उन्हें जीतोड़ परिश्रम करना पड़ा था। इसके बाद ही तंत्र की साधना करके वे अपनी पूरी क्षमताओं का विकास करते हुए अपने जीवनकाल में बुद्धत्व को प्राप्त हो सके थे। आप सभी बहुत भाग्यशाली हैं क्योंकि परम पावन, जो पूर्णतः ज्ञानोदय प्राप्त हैं, यहाँ पश्चिम का दौरा कर चुके हैं। उन्होंने आप लोगों को अभिषेक दिए हैं, और आपको उनसे ऐसे अभिषेक प्राप्त करने का सौभाग्य मिला है। आपको इन अभिषेकों को प्राप्त करने का सौभाग्य मिलना इस बात का संकेत है कि आप लोग इन्हें प्राप्त करने के लिए सौभाग्यशाली और योग्य पात्र हैं।
मृत्यु और नश्वरता के प्रति सचेतन होना
यदि आप पूछें कि धर्म की साधना के अभ्यास की शुरुआत कहाँ से की जाए, तो पहली बात यह है कि आप इस जीवनकाल से जुड़ी बातों में ही पूरी तरह लिप्त रह कर अपने आप को धोखे में न रखें। यदि आप पूछेंगे कि इस जीवनकाल से जुड़ी बातों में ही लिप्त रहने को अपने आप को धोखे में रखना कैसे कहा जा सकता है, तो इसका कारण यह है कि हम इस बात के प्रति सचेत नहीं हैं कि एक दिन हमारी मृत्यु हो जाएगी। हम मृत्यु या नश्वरता के प्रति सचेत नहीं हैं, वास्तविकता यह है कि जीवन में कोई भी स्थिति स्थायी नहीं होती है या हमेशा एक जैसी नहीं रहती है। इसलिए, पहले तो मृत्यु और नश्वरता के बारे में विचार करना और उनके प्रति सचेत होना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
यदि आप मृत्यु के बारे में कुछ भी सुनने से इंकार करके, क्योंकि आपको वह पसंद नहीं है, उसे टाल सकते तो बहुत ही अच्छा होता। लेकिन आप चाहें या न चाहिं, सभी की मृत्यु होना अवश्यंभावी है। जब मृत्यु सामने होगी तो आपको बहुत दुख होगा, समस्याएं और कष्ट होगा। बात केवल इतनी है कि इसमें कितना समय लगेगा, और इससे बचने का कोई साधन नहीं है। लेकिन आप उस दुख और कष्ट से बच सकते हैं जब मृत्यु वस्तुतः सामने होगी। यदि आप ऐसा अभ्यास बना लें कि आप यथासंभव सकारात्मक व्यवहार करेंगे, और जितना अधिक संभव हो सके दस नकारात्मक कृत्यों से स्वयं को दूर रखेंगे, और यदि आप अपने जीवन को इस प्रकार से जिएंगे, तो फिर जैसे जैसे आपकी उम्र बढ़ेगी, आप और अधिक सुखी होते चले जाएंगे। जब आपकी मृत्यु होगी उस समय आप दुखी और दारुण दशा में नहीं होंगे। यहीं से धर्म के अभ्यास की शुरुआत होती है। इससे आगे बढें तो अभ्यास और तंत्र के देवताओं की साधना के विभिन्न विषयों से जुड़े सभी तरीके शामिल हैं। आगे आने वाले व्याख्यानों में मैं इनके बीच के अन्तर के बारे में थोड़ी जानकारी दूँगा।
यदि आप ध्यान साधना करना चाहते हैं, लाभकारी मनोदशा विकसित करना चाहते हैं, तो सबसे पहले इस बात पर विचार करना चाहिए कि एक बार जन्म ले लेने के बाद मृत्यु को प्राप्त होने के अलावा करने के लिए और कुछ नहीं है। जन्म की यही सहज परिणति है। यदि आप इस बात के प्रति सजग चैतन्य भाव विकसित कर लें कि एक दिन आपकी मृत्यु हो जाने वाली है तो फिर आप एक बहुत ही उपयोगी मनोदशा कर सकेंगे। और यदि आप इस बात को गम्भीरता से लेंगे, जब आप इसके बारे में गम्भीरता से विचार करेंगे तो फिर यही बात ध्यान में आती है कि यदि मैं इस जीवनकाल में अपना सारा समय विभिन्न प्रकार की भौतिक वस्तुओं को इकट्ठा करने में व्यतीत कर दूँगा तो मृत्यु के समय इनमें से कोई भी चीज़ मेरे किसी काम नहीं आएगी। जमा की गई वस्तुओं में से कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे मैं अपने साथ ले जा सकूँ। इस प्रकार आप एक दृढ़ मनोदशा को विकसित करते हैं।
केवलमात्र इस जीवन के लिए सिद्धियों की प्राप्ति के लिए श्रम करने की निरर्थकता
यह कथा गेशे लांगरी तांग्पा के बारे में है। अपने जीवन काल में वे केवल तीन बार ही हँसे थे। उनके चढ़ावे के मंडल में एक बहुत बड़ा फ़िरोज़ा रत्न लगा था। एक बार उन्होंने पाँच चूहों को देखा। उनमें से एक चूहा अपनी पीठ के बल लेटा था और उसने एक पत्थर अपने पेट पर टिका रखा था, और बाकी के चार चूहे अपने-अपने मुँह में पहले चूहे के एक-एक पैर को पकड़े हुए घसीट कर ले जा रहे थे। जब तांग्पा ने इस दृश्य को देखा, तो वे हँस दिए। आखिर, भौतिक सुख-साधन जुटा लेना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। चूहों जैसे जानवर भी चीज़ें इकट्ठी कर लेते हैं।
दूसरी बार ये महान आचार्य उस समय हँसे जब उन्होंने किसी ऐसे व्यक्ति को देखा जिसे अगले दिन मृत्युदंड दिया जाना था लेकिन वह व्यक्ति अपनी अंतिम रात अपने जूतों की मरम्मत करते हुए बिता रहा था। तीसरी बार वे तब हँसे जब उन्होंने कुछ लोगों को भट्ठी बनाने के लिए एक घास के मैदान में पत्थर बीनते हुए देखा। उनमें से एक व्यक्ति को कोई ऐसी चीज़ दिखाई दी जो पत्थर जैसी लगती थी और जिसके ऊपर घास उगी हुई थी। जब उसने इस चीज़ को ज़मीन से खोद कर निकाला तो वह एक नरभक्षक दैत्य का सिर निकला जो ज़मीन पर पड़ा हुआ था। जैसा कि हम देख सकते हैं, इस जीवन काल में कारनामे कर दिखाना कोई बड़े अचरज की बात नहीं है। एक ऐसा व्यक्ति बनना कहीं बड़ी उपलब्धि है जो भविष्य के जन्मों और उसके बाद भी लाभकारी सिद्ध होने वाली आध्यात्मिक साधना में रुचि रखता हो।
जब हमें एक ऐसा बहुमूल्य मानव जीवन मिला है जिसमें हम इतनी रुचि रखते हैं, तो फिर हमें इस बहुमूल्य मानव जीवन को पाकर बहुत खुशी मनानी चाहिए। आम तौर पर यदि हमारे बैंक में एक लाख गिल्डर जमा हों तो हम बहुत खुश रहते हैं। लेकिन इस पैसे से आप अपने आप को किसी निकृष्टतर अवस्था में पुनर्जन्म लेने से नहीं बचा सकते हैं, और इस पैसे से आप ज्ञानोदय की अवस्था को भी नहीं खरीद सकते हैं। इस बहुमूल्य मानव जीवन की सहायता से हम दरअसल बुद्ध जैसी ज्ञानोदय की अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हमें अपनी इस सम्पत्ति को लेकर खुश होना चाहिए। बेशक, सबसे अच्छी बात तो यह है कि हम महान मिलारेपा के उदाहरण का अनुसरण करें और इस जीवनकाल की सभी चिंताओं को छोड़ दें, और अपने आपको एकाग्र भाव से इसी जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए समर्पित करें। लेकिन सभी धर्म साधकों के लिए वैसा बनना बहुत कठिन होता है। यदि हम पूरी तरह मिलारेपा के उदाहरण का अनुसरण करते हुए इस जीवनकाल की सभी चीज़ों का त्याग नहीं कर सकते हैं, तो कम से कम ऐसा दृष्टिकोण तो अपना ही सकते हैं कि हम इस जीवनकाल में भौतिक वस्तुओं में इतने अधिक लिप्त न हों।
उदाहरण के लिए, हम एक ऐसा दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रयास कर सकते हैं जिसकी सहायता से हम यह समझ सकें कि हमारी विभिन्न प्रकार की धन-सम्पत्ति में कोई सार नहीं है, क्योंकि जब हमारी मृत्यु होगी तो यह सम्पत्ति और वस्तुएं हमारे साथ नहीं रहेंगी। इसलिए, एक दृष्टि से ये चीज़ें पहले से ही दूसरों की हैं। यदि हम इस प्रकार से सोचें तो फिर हम अपनी धन-सम्पत्ति से इतना अधिक नहीं चिपकते हैं। तब हम अपनी सम्पत्ति का उपयोग आध्यात्मिक साधना, जैसे ज़रूरतमंदों को दान करने, के लिए करते हैं।
यदि आप इस जीवन की भौतिक सुख-सुविधाओं में न उलझने वाला दृष्टिकोण भी रखते हों, तब भी, यदि पिछले जन्मों के सकारात्मक कृत्यों के परिणामस्वरूप आपका पुनर्जन्म ऐसी परिस्थितियों में हुआ हो जहाँ भौतिक सुख-सम्पदा से घिरे हों, तो आपको इस सम्पत्ति और सम्पन्नता को न तो त्याग कर फेंक देना चाहिए और न ही बर्बाद करना चाहिए। इस स्थिति की दूसरी अति यह होगी कि आप अपनी धन-सम्पत्ति से चिपके रहें, और कुछ भी त्यागने के लिए तैयार न हों। यह स्थिति खतरनाक है क्योंकि यदि आपकी प्रवृत्ति सम्पत्तियों से इतना अधिक चिपके रहने की होगी तो फिर आपका पुनर्जन्म वस्तुओं को जकड़ने वाले और भूखे-लोभी प्रेत के रूप में हो सकता है। धर्म की आध्यात्मिक साधना करने की दृष्टि से इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
हमें परम पावन दलाई लामा, जो वास्तव में ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध हैं, से मिलने का अवसर मिला है, और यह कि हमें आध्यात्मिक विषयों में रुचि है, यह सब पिछले जन्मों में हमारे द्वारा किए गए सकारात्मक कार्यों का नतीजा है कि इतनी व्यापक सकारात्मक संभाव्यता का निर्माण हुआ है। अब इस बहुमूल्य मानव जीवन का उपयोग करते हुए हमें कड़ी मेहनत करके समर्पणभाव से युक्त बोधिचित्त विकसित करना चाहिए और किसी बुद्ध के समान ज्ञानोदय की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। हमने यहाँ तक पहुँचने और इस बहुमूल्य मानव जीवन को प्राप्त करने के लिए अपने पिछले जन्मों में इतनी कड़ी मेहनत की है, इसलिए हमें सोचना चाहिए कहीं हम इस पूरी मेहनत को नए सिरे से दोहराना तो नहीं चाहते हैं। अब जब कि हम इतना सफर तय कर ही चुके हैं तो हमें पूरे सफर को तय करना चाहिए, और समर्पण भाव से बोधिचित्त विकसित करना चाहिए और वस्तुतः ज्ञानोदय प्राप्त करना चाहिए। चूँकि इस जीवन में ज्ञानोदय की प्राप्ति सम्भव है, इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने जन्म को व्यर्थ न गँवाएं।
यदि आपके पास अपने हाथ के बराबर आकार का सोने का टुकड़ा होता तो आप उसे फेंक नहीं देते। यदि आप सोने के उस टुकड़े को उठाकर नदी में फेंक दें और फिर दुआ करें कि आपको सोने का एक और टुकड़ा मिल जाए, तो फिर उस इच्छा के पूरा होने में बहुत कठिनाई होगी। यह स्थिति ठीक वैसे ही होगी जैसे हम इस जन्म में किसी प्रकार की आध्यात्मिक साधना न करें, अपने जीवन को व्यर्थ गँवाएं और फिर भविष्य में एक और बहुमूल्य मानव जीवन की कामना करें। यदि आप पूछें, “ऐसे कौन-कौन से निवारक उपाय हैं जिन्हें मैं इस स्थिति से बचने के लिए कर सकता हूँ?” तो इसके लिए बहुत से उपाय किए जा सकते हैं। यहाँ मैं कुछ उपायों के बारे में बताऊँगा।
अन्य जीवों की हत्या करने से बचना
पहली बात तो आपके शारीरिक कृत्यों से सम्बंधित है। किसी जीव की हत्या नहीं करनी चाहिए। किसी जीव की हत्या किए जाने के लिए चार चीज़ों का होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, हत्या किसी भेड़ की हो सकती है। इस हत्या की मंशा या विचार किसी प्रेरणा या मान्यता से सम्बंधित हो सकती है। आपके द्वारा की जाने वाली हत्या के पीछे तीन प्रकार की प्रेरणा हो सकती है: इच्छा के कारण, क्रोध या घृणा के कारण, या अज्ञान के कारण। जब आप इच्छा के वशीभूत हत्या करते हैं तो वह उदाहरण के लिए, भेड़ के मांस को खाने की इच्छा के कारण हो सकता है। या फिर जब आपको क्रोध आता है और आपको किसी चीज़ से घृणा हो जाती है और आप उसकी हत्या कर देते हैं। जब आप नासमझी या अज्ञान के कारण हत्या करते हैं तो उसका अर्थ यह होता है कि आप उससे बेहतर कुछ करना ही नहीं जानते हैं। बहुत से लोग देवताओं को रक्त की भेंट चढ़ाने के लिए बहुत से पशुओं की बलि देते हैं; इसी प्रकार कुछ लोग सोचते हैं कि पशु की बलि देने से उनका रोग दूर हो जाएगा। जहाँ तक मान्यता का सम्बंध है, यदि आप किसी भेड़ की हत्या करना चाहते हैं, और यदि दो जानवर उपलब्ध हों, एक भेड़ और एक बकरी हो, तो उस कृत्य को पूर्ण करने के लिए आप बकरी की नहीं, बल्कि भेड़ की हत्या करेंगे।
जहाँ तक हत्या की वास्तविक क्रिया का सम्बंध है, कुछ लोग पशुओं का दम घोंट कर उन्हें मारते हैं, उनके मुँह और नाक को किसी चीज़ से बंद कर देते हैं ताकि वे सांस न ले सकें। कुछ लोग अपने हाथों से पशुओं के भीतरी भागों को खींच कर बाहर निकाल देते हैं। कुछ लोग पशुओं का गला काट देते हैं। भेड़ की हत्या के कृत्य को पूर्ण होने के लिए यह आवश्यक होता है कि उसकी प्राण लीला समाप्त हो जाए, उसका जीवन समाप्त हो जाए।
इसके परिणाम चार प्रकार के होते हैं। पहले प्रकार का परिणाम परिपक्व परिणाम होता है। हत्या का परिपक्व परिणाम नरक के किसी जीव, किसी प्रेत, या किसी पशु के रूप में पुनर्जन्म के रूप में होता है। उस पुनर्जन्म की समाप्ति पर मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म होने पर भी उस पूर्व कृत्य के परिणाम और प्रभाव खत्म नहीं हो जाते हैं। और भी परिणाम होते हैं जिन्हें हम उस कृत्य के कारणों के रूप में अनुभव करते हैं। किसी अन्य जीव का जीवन कम करने या उसका जीवन लेने के परिणामस्वरूप आपका अपना जीवन भी बहुत छोटा होगा और रोगों से भरा होगा। कुछ परिणाम ऐसे भी होते हैं जो सहज व्यवहार की दृष्टि से अपने कारण के समान होते हैं। हत्या करने के परिणामस्वरूप, जब मनुष्य के रूप में आपका पुनर्जन्म होता है, तब भी आप बचपन से ही दूसरों की पीड़ा में आनन्द उठाने की प्रवृत्ति वाले होते हैं और दूसरे जीवों को मारने में खुशी अनुभव करते हैं। फिर एक व्यापक परिणाम होता है जो एक पूरे क्षेत्र या मारे जाने वाले लोगों के समूह से सम्बंधित होता है। जिस स्थान पर आपका जन्म होता है वहाँ की हर चीज़ में जीवन का पोषण करने की क्षमता बहुत कम होती है। भोजन बहुत खराब किस्म हो गुणवत्ता वाला होता है; औषधियाँ बहुत प्रभावशाली और असरदार नहीं होती हैं, आदि।
यदि आप हत्या करने की प्रवृत्ति की इन बुराइयों और उससे होने वाले नुकसानों को समझ जाएं और उसके परिणामस्वरूप हत्या न करने का निश्चय करें, तो फिर अपने आपको हत्या करने से विरत रखना एक सकारात्मक कृत्य है। किसी सकारात्मक कृत्य का परिणाम यह होता है कि आपका पुनर्जन्म किसी मनुष्य या देव के रूप में होता है। कृत्य के कारण के अनुरूप अनुभव होने वाले परिणाम के रूप में मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म होने पर आप दीर्घायु होंगे और आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, आप रोगों से मुक्त रहेंगे। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि वह दीर्घायु हो और उसे रोग न सताएं, और कोई भी नहीं चाहता है कि कम उम्र में ही उसकी मृत्यु हो जाए और वह रोगों से ग्रस्त रहे, इसलिए यह आवश्यक है कि हम हमेशा जीव हत्या से दूर रहें। हमारे व्यवहार में कारण के अनुरूप परिणाम यह होगा कि एक छोटे बच्चे के रूप में भी हम हमेशा हत्या के विचार से भी भयभीत रहेंगे। आप कभी हत्या नहीं करेंगे और मांस खाने के विचार से भी आपको अनिच्छा होगी। इसका व्यापक परिणाम यह है कि जिस क्षेत्र में आपका पुनर्जन्म होगा वहाँ का भोजन बहुत ही स्वादिष्ट और पोषक होगा और वहाँ की औषधियाँ भी बहुत ही प्रभावी और असरदार होंगी। यदि केवल एक बार जीव हत्या से दूर रहने पर इस प्रकार के सकारात्मक प्रभाव होते हैं, तो फिर यदि आप यह शपथ ले लें कि आप फिर कभी किसी जीव की हत्या नहीं करेंगे, तो उसके प्रभाव लगातार उत्पन्न होते रहेंगे, तब भी जब आप नींद में होंगे। यह एक हर समय चलता रहने वाला सकारात्मक कृत्य होगा।
बुद्ध शाक्यमुनि के अनेक महान शिष्य हुए – बुद्ध की शिक्षाओं के महान श्रावक – और उनमें से प्रत्येक की कोई न कोई विशेषता थी। कुछ चमत्कारी शक्तियों से सम्पन्न थे, तो कुछ महान विद्वान थे। कात्यायन एक पहुँचे हुए सिद्ध आर्य थे जिन्हें सीमावर्ती क्षेत्रों के असभ्य लोगों के चित्त को वश में करने की विशेष योग्यता हासिल थी। एक दिन कात्यायन जब भिक्षाटन करते हुए एक बधिक के द्वार पर पहुँचे। जब उन्होंने बधिक को पशुओं का वध करने सम्बंधी सभी प्रकार की बुराइयों और दुष्परिणामों के बारे में समझाया तो बधिक ने उन्हें उत्तर दिया, “मैं दिन के समय पशुओं का वध न करने का वचन तो नहीं दे सकता, किन्तु मैं वचन देता हूँ कि कभी भी रात्रि के समय किसी पशु का वध नहीं करूँगा।” और उसने वैसा किया भी।
इसके कुछ समय बाद, संघरक्षित नाम के एक और बहुत पहुँचे हुए सिद्ध हुए। उन दिनों बहुत से लोग खजानों की तलाश में समुद्र में यात्राओं पर जाया करते थे। उनके पास आजकल के जैसे बड़े-बड़े जहाज़ नहीं हुआ करते थे, सिर्फ पाल वाली छोटी-छोटी नौकाएं होती थीं। उस समय की प्रथा थी कि किसी आध्यात्मिक व्यक्ति को जहाज़ के पुरोहित के रूप में आमंत्रित किया जाता था, इसलिए संघरक्षित को आध्यात्मिक दृष्टि से सिद्ध व्यक्ति के रूप में आमंत्रित किया गया। समुद्र में वे अपना मार्ग भटक गए और एक सुदूर विचित्र स्थान पर पहुँच गए। संघरक्षित खोज में बाहर निकले और उन्हें एक बहुत ही सुंदर मकान मिला। वहाँ रात के समय सब कुछ बहुत अच्छा और सुंदर था। वहाँ खाने पीने के लिए कोई कमी नहीं थीं और सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं थीं। मकान के मालिक ने उनसे कहा, “आप कृपया सुबह सूर्योदय होने से पहले ही यहाँ से चले जाएं।” उसने बताया कि दिन के समय सूरज निकलने के तुरन्त बाद ही वहाँ जानवर आ जाते हैं। वे सभी जानवर मकान के मालिक पर हमला कर देते थे। कुछ उसे काटते थे, कुछ उसे दुलत्ती मारते तो कुछ उसे सींगों से मारकर घायल कर देते थे। वहाँ की स्थिति बहुत भयावह होती थी। लेकिन रात के समय सूरज ढलने के बाद ही सब कुछ शांत हो जाता था। “इसलिए आप कृपया सूरज उगने पर चले जाइए, लेकिन रात ढलने पर वापस आ जाइए।”
बाद में जब संघरक्षित अपने घर लौटे और बुद्ध से मिले तो उन्हें उस पूरी घटना का वृत्तांत सुनाया। तब बुद्ध ने उन्हें बताया कि उस घर के स्वामी के रूप में उसी बधिक का पुनर्जन्म हुआ था जिसने रात के समय वध न करने का वचन दिया था, लेकिन उसने दिन के समय पशुओं की हत्या करना जारी रखा था। रात्रि के समय हत्या न करने के कारण रात के समय उसके घर में सब कुछ बहुत अच्छा रहता था। किन्तु चूँकि उसने दिन के समय हत्या करना जारी रखा था, इसलिए पशु उस पर हमला किया करते थे।
आप किस जीव की हत्या करते हैं इसके आधार पर मारे जाने वाली जीव के आकार के अनुसार निर्मित होने वाली नकारात्मक संभाव्यता में अंतर होता है। किसी कीड़े-मकोड़े की हत्या करने की तुलना में किसी मनुष्य की हत्या करने को अधिक बुरा माना जाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी अर्हत की हत्या करता है, जो पूर्णतः मुक्त जीव होते हैं, या यदि कोई व्यक्ति अपनी माता या पिता की हत्या करता है तो इसे एक जघन्य अपराध माना जाता है, और यह सबसे गम्भीर किस्म की हत्या होती है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि आपने किसी छोटे से चूहे की हत्या की हो। हालाँकि यह एक छोटा सा अनुचित कृत्य है, किन्तु यदि आपने आज चूहे की हत्या की हो और यदि आप यह स्वीकार न करें कि आपने कुछ गलत किया है और यदि आप अपनी गलती के लिए शुद्धि करने का प्रयास न करें तो फिर उसकी नकारात्मक संभाव्यता बढ़ती जाती है, और अगले दिन तक नकारात्मक संभाव्यता बढ़कर इतनी हो जाती है जैसे आपने दो चूहों की हत्या की हो। यदि आप एक दिन और शुद्धि को टाल दें तो फिर नकारात्मक संभाव्यता बढ़कर चार चूहों की हत्या करने के बराबर हो जाती है। इस प्रकार नकारात्मक संभाव्यता बढ़ती रहती है, हर दिन के बाद दोगुनी हो जाती है। यदि आप इसे एक वर्ष तक टालते रहें तो एक छोटे से जीव की हत्या करने की नकारात्मक संभाव्यता बढ़कर बहुत अधिक हो जाती है।
किसी कीड़े को अपनी उँगलियों के बीच मसलने का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म किसी ऐसी गति में होता है जिसमें कोई आनंद नहीं होता, वह कोई ऐसा नरक हो सकता है जहाँ आपको एक बहुत विशाल काया मिलती है, और आपको दो विशाल पर्वतों के बीच में पीसा जाता है। यह अनुभव मनुष्य गति में भी भोगना पड़ता है। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो ऊँची चट्टानों से गिर जाते हैं और नीचे की चट्टानों से टकरा कर मारे जाते हैं, या कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके मकान टूट कर उनके ऊपर गिर जाते हैं। यह पिछले जन्मों में किसी जीव को कुचल कर मारने का परिणाम भी होता है। यदि आप जीव हत्या के दुष्परिणामों के बारे में विचार करें और यह प्रण लें कि आप आगे कभी किसी जीव की हत्या नहीं करेंगे, तो यह बहुत लाभकारी होता है। जब आप ज़मीन पर चल रहे हों, और आप यह देखें कि वहाँ बहुत से कीड़े-मकोड़े चल रहे हैं, तो आपको प्रयास करना चाहिए कि आप का पैर उनके ऊपर न पड़े। यदि ज़मीन पर चलते समय आपका पैर अनजाने में किसी छोटे कीड़े पर पड़ जाए, तो यह भूल अनजाने में की गई भूल होगी। इसलिए, यह पहले बताए गए नकारात्मक कृत्यों के समान नकारात्मक कृत्य नहीं है।
यह बहुत आवश्यक होता है कि आप जीव हत्या से होने वाले नुकसान को समझें और वादा करें कि आप दोबारा किसी जीव की हत्या नहीं करेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा करके आप दीर्घायु होंगे, आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और आप रोगों से मुक्त रहेंगे। जब आप किसी बोधिसत्व, किसी समर्पित सत्व की भांति धर्म साधना करते हैं तो आपका चित्त और लक्ष्य बहुत ही व्यापक होता है। हम बुद्ध के पिछले जन्मों के उदाहरणों को देख सकते हैं जहाँ बुद्ध स्वयं एक बोधिसत्व थे।
एक बार एक नौका में 500 यात्री सवार थे जो मोती और दूसरे बहुमूल्य रत्नादि ले कर आ रहे थे। इन यात्रियों के बीच एक अपराधी भी शामिल था जिसका नाम मिनाग दुंगदुंग था। बुद्ध उस समय एक बहुत बलशाली मल्लाह थे। उन्होंने देख लिया कि मिनाग बाकी के 499 यात्रियों की हत्या करके उनके खजाने और नाव को अपने कब्ज़े में ले लेने वाला है। बुद्ध को यह सोच कर बहुत करुणा का अनुभव हुआ कि सभी यात्रियों को बड़ी पीड़ा झेलनी पड़ेगी। इतना ही नहीं, स्वयं अपराधी के लिए यह बहुत बुरा होने वाला था क्योंकि 499 लोगों की हत्या करने के परिणामस्वरूप वह अपने लिए बहुत भयंकर नकारात्मक संभाव्यता निर्मित करने जा रहा था और उसका पुनर्जन्म एक बहुत ही निकृष्ट गति में होने जा रहा था। एक समर्पित बोधिसत्व के रूप में बुद्ध ने समझ लिया कि इस स्थिति से बचने का एकमात्र उपाय यही था कि वे स्वयं मिनाग दुंगदुंग की हत्या कर दें। उन्होंने समझ लिया कि यदि वे ऐसा करें तो 499 लोगों की जान बच जाएगी और वे मिनाग को ऐसी भयानक नकारात्मक संभाव्यता निर्मित करने से रोक पाएंगे। उन्होंने सोचा, “यदि मैं इस अपराधी को मार डालूँ, तो मैं एक व्यक्ति की हत्या के कारण स्वयं के लिए नकारात्मक संभाव्यता का निर्माण करूँगा, लेकिन कोई बात नहीं। यदि मुझे इस कृत्य के कारण भयंकर कष्ट और परिणाम भुगतने पड़ते हैं तो कोई बात नहीं। इतने सारे लोगों के कष्ट को दूर करने के लिए ऐसा करना ठीक होगा।” निर्भयतापूर्वक ऐसा विचार करके उन्होंने मिनाग दुंगदुंग का वध कर दिया। यदि आप बोधिसत्व हों तो फिर ऐसी स्थितियों में हत्या करने की भी आवश्यकता होती है। किन्तु यदि आप स्वयं उस स्तर पर न हों तो फिर हत्या करना बिल्कुल भी उचित नहीं है।
व्यक्ति स्वयं किसी की हत्या कर सकता है या फिर किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से किसी की हत्या करवा सकता है, ऐसा करने से भी आपके लिए बहुत नकारात्मक संभाव्यता निर्मित होती है। दरअसल ऐसा करने पहले वाली स्थिति से भी बदतर है। इससे दोगुनी नकारात्मक संभाव्यता निर्मित होती है क्योंकि आप किसी अन्य व्यक्ति को हत्या करने के लिए कह कर नकारात्मक संभाव्यता तो निर्मित करते ही हैं, साथ ही वह दूसरा व्यक्ति भी आपके कहने पर उस कृत्य को करके नकारात्मक संभाव्यता निर्मित करता है। यदि आप 500 सैनिकों की एक सेना में शामिल होकर युद्ध में जाते हैं और आपके मन में यह प्रबल भावना हो कि आप सभी युद्ध के मैदान में पहुँच कर दुश्मनों को मौत के घाट उतार देंगे, तो फिर भले ही आप एक भी व्यक्ति की हत्या न करें, फिर भी आप उनती ही नकारात्मक संभाव्यता निर्मित करेंगे जितनी आपकी सेना ने लोगों की हत्या करके निर्मित की होगी। यदि उस सेना के पाँच सौ लोगों में से केवल एक व्यक्ति ही 1,000 लोगों की हत्या कर दे, फिर भी आप स्वयं 1,000 लोगों की हत्या करने के बराबर नकारात्मक संभाव्यता संचित करेंगे।
जब आप सैनिकों की किसी टुकड़ी में शामिल होते हैं तो वहाँ “संयम न बरतने की प्रतिज्ञा” का पालन किया जाता है। यानी, यह दृढ़ निश्चय किया जाता है कि हत्या करने में कोई संयम नहीं बरता जाएगा, युद्ध के मैदान में जा कर सामने आने वाले हर दुश्मन का पूरी तरह नाश कर दिया जाएगा। इससे और भी अधिक नकारात्मक संभाव्यता का निर्माण होता है। जो व्यक्ति इस प्रकार की शपथ या प्रतिज्ञा करता है, उसकी नकारात्मक संभाव्यता ऐसे व्यक्ति के नींद में सोए होने पर भी बढ़ती रहती है। वहीं दूसरी ओर, भले ही आप सैनिक हों किन्तु यदि आपने किसी की हत्या करने का विचार नहीं किया है, तो फिर इसमें कोई दोष नहीं है। इसलिए यदि आप सैनिक हों और यदि आप इस बात को समझ लें कि जीव हत्या करना बहुत बुरी बात है, आपकी हत्या करने की कोई मंशा न हो, और आप हत्या न करने का प्रण लें, तो फिर आपका कोई दोष नहीं है। यदि कोई व्यक्ति बड़ी संख्या में लोगों की हत्या करने वाला हो, और उसकी हत्या करने के अलावा उसे ऐसा करने से रोकने का कोई और तरीका न हो, तो फिर बुद्ध के पूर्व जन्म के उदाहरण की भांति शुद्ध प्रेरणा से वैसा करना एक सकारात्मक कृत्य है, हालाँकि ऐसा करने पर हत्या करने सम्बंधी नकारात्मक संभाव्यता निर्मित होती है।
हत्या करने से बचने के सम्बंध में ये कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं। यदि आप हत्या न करने का प्रण लें तो यह बहुत सकारात्मक होगा। कभी-कभी मच्छरों जैसे कुछ कीट होते हैं जो मलेरिया का कारण बन सकते हैं। इन्हें मारने के लिए आप कुछ प्रकार के स्प्रे और रसायनों का उपयोग कर सकते हैं। जब घर में कीट न हों और उन्हें घर में आने से रोकने के लिए यदि आप इन रसायनों का छिड़काव करते हैं तो इसमें कुछ बुराई नहीं है। लेकिन यदि घर में ऐसे कीट हों और उन्हें मारने के लिए यदि आप रसायनों का छिड़काव करें तो इसमें हत्या का दोष है। हत्या करने से बचने की दृष्टि से धर्म की साधना सम्बंधी बहुत सी बाते हैं जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए।
चोरी करने से बचना
दूसरी ध्यान रखने वाली बात यह है कि हम चोरी न करें। इससे सम्बंधित लक्ष्य, आधार, कोई अन्य जीव होना चाहिए। इसकी प्रेरणा इच्छा या क्रोध हो सकती है। जैसा हम पहले उल्लेख कर चुके हैं, कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की वस्तु की चोरी इसलिए कर सकता है क्योंकि किसी वस्तु को प्राप्त करने की उसकी इच्छा हो सकती है, या वह व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से बहुत क्रोधित हो सकता है। चोरी का कृत्य उस समय पूर्ण होता है जब आपके भीतर यह भावना होती है कि जो चीज़ मैंने प्राप्त कर ली है वह अब मेरी हुई। इसके परिणाम नरक के किसी जीव या किसी भूखे-लालची प्रेत के रूप में पुनर्जन्म के रूप में प्रकट होते हैं। यदि आपका पुनर्जन्म किसी मनुष्य के रूप में भी हो जाए, तब भी आपका पुनर्जन्म किसी बहुत निर्धन व्यक्ति के रूप में हो सकता है जिसके पास किसी प्रकार की कोई सम्पत्ति न हो। या जब भी आपको कोई वस्तु प्राप्त होती है, वह आपके पास से चोरी हो जाती है। कारण की दृष्टि से आपके द्वारा भोगे जाने वाले यही परिणाम होते हैं। जहाँ तक सहज व्यवहार के आधार पर उत्पन्न होने वाले परिणामों का सम्बंध है, कुछ ऐसे बच्चे होते हैं जो सम्पन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद चोरी करते हैं। इसका व्यापक परिणाम यह होता है कि व्यक्ति का जन्म किसी ऐसे बहुत ही निर्धन क्षेत्र में होता है जहाँ के सभी लोग निर्धन होते हैं और उनके पास कुछ नहीं होता। वहीं दूसरी ओर चोरी करने से हमेशा दूर रहने का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म किसी बहुत ही सम्पन्न देश में किसी धनवान व्यक्ति के रूप में होता है।
यहाँ मैं महान गेशे बेन गुंग्याल के जीवन का उदाहरण देना चाहूँगा जो पेन्पो के लुटेरे के रूप में कुख्यात थे। क्या आपने उनके जीवन की कथा सुनी है? किस-किस ने उनके बारे में सुना है? यह कथा आपने किससे सुनी? यदि आप चाहें तो मैं उनके बारे में एक बार फिर बताना चाहूँगा ताकि जिन्होंने यह कथा पहले नहीं सुनी है वे भी इसे जान सकें। मैं यह वृत्तांत इसलिए सुनाता हूँ क्योंकि इसे जानना आपके चित्त के लिए बहुत उपयोगी है। इससे एक बड़ी सीख मिलती है और यह कोई दंतकथा या मनगढ़ंत कहानी नहीं है।
बेन गुंग्याल एक कुख्यात चोर था। वह चालीस एकड़ ज़मीन पर बने एक घर में रहता था जहाँ वह खेती किया करता था। वह पशुओं की हत्या कर उनका शिकार करता था और चोरी भी किया करता था। एक बार ऊँचे पहाड़ी दर्रे और ल्हासा में उसके घर के बीच के स्थान में उसे एक घुड़सवार यात्री मिला। यात्री ने उसे पहचाना नहीं और उससे पूछा, “यहाँ आस-पास लुटेरा बेन गुंग्याल तो नहीं है?” जब बेन गुंग्याल ने उत्तर दिया, “मैं ही बेन गुंग्याल हूँ,” तो वह यात्री इतना भयभीत हो गया कि अपने घोड़े से गिर पड़ा और पहाड़ से नीचे जा गिरा। बेन को यह जान कर बड़ी ग्लानि हुई कि उसका नाम सुनने मात्र से कोई व्यक्ति पहाड़ से नीचे गिर सकता है। उसने वहीं निश्चय किया कि आगे से वह कभी लूटपाट नहीं करेगा।
इसके बाद उसने धर्म की साधना की। उसने अपने आप को दस विनाशकारी कृत्यों से दूर रखने का प्रयास किया और हमेशा दस सकारात्मक कृत्यों का पालन किया। हर बार जब वह कोई सकारात्मक कार्य करता तो वह एक चट्टान पर एक सफेद लकीर खींच देता था। यदि वह कोई नकारात्मक या विनाशकारी कृत्य करता तो वह एक काली लकीर खींच देता था। शुरुआत में सफेद लकीरों की संख्या बहुत कम और काली लकीरों की संख्या बहुत ज़्यादा होती थी। कालांतर में उसकी काली लकीरों की संख्या घटती चली गई और सफेद लकीरों की संख्या बढ़ती गई। रात को गिनती करते समय यदि उसकी काली लकीरों की संख्या अधिक निकलती तो वह अपने दाहिने हाथ को बांए हाथ पर रखता और कहता, “पेन्पो के दस्यु राज! तुम बहुत बुरे हो! विगत में तुम बहुत बुरे चोर थे और अभी भी तुम बहुत खराब व्यक्ति बने हुए हो!” वह अपने आप को खूब कोसता। दिन की समाप्ति पर यदि उसकी सफेद लकीरों की संख्या अधिक निकलती तो वह अपने बांए हाथ को दाहिने हाथ पर रखता, अपना अभिवादन करता और स्वयं को बधाई देता। वह स्वयं को अपने धर्म के नाम त्सुल्त्रिम ग्याल्वा (जो नैतिक आत्मानुशासन की सहायता से विजय प्राप्त कर चुका हो) से सम्बोधित करता और कहता, “अब तुम सचमुच एक सकारात्मक व्यक्ति बन रहे हो,” और स्वयं को बधाई देता।
आखिरकार उसकी ख्याति एक महान धर्म साधक के रूप में फैल गई। एक बार एक यजमान ने उसे भोजन पर अपने घर आमंत्रित किया। उसकी चोरी करने की प्रवृत्ति इतनी प्रबल थी कि जब यजमान महिला किसी कार्य से घर से बाहर गई तो यजमान की टोकरी में हाथ डाल कर चाय चोरी कर ली और उसे पीने लगा। उसने अपने आप को पकड़ लिया, एक हाथ को कसकर दूसरे हाथ से पकड़ा और चिल्लाया, “अरी माता, जल्दी आओं, मैंने एक चोर को पकड़ लिया है!”
एक अन्य अवसर पर उसे कई दूसरे धर्म साधकों के साथ किसी व्यक्ति के घर आमंत्रित किया गया जहाँ सभी को दही परोसा जा रहा था। वह पीछे की ओर बैठा था और वहाँ से यजमान को आगे बैठे सभी लोगों को अधिक मात्रा में दही परोसते हुए देख रहा था। उसे फिक्र और चिंता होने लगी कि पीछे बैठे होने के कारण उसकी बारी आते-आते दही नहीं बचेगा। वह वहाँ बैठे-बैठे अपने नकारात्मक विचारों के साथ दही को परोसे जाते हुए देखता रहा। जब दही परोसने वाला व्यक्ति उसके पास पहुँचा, तब उसे अहसास हुआ कि उसकी चित्त वृत्ति कैसी थी, इसलिए उसने अपने पात्र को उलट कर रख दिया और बोला, “नहीं, धन्यवाद, मैंने दूसरों को देखते-देखते ही अपने हिस्से का पूरा दही खा लिया है।”
एक दूसरे अवसर पर एक यजमान महिला उसके घर पर आने वाली थी। उस दिन वह तड़के सुबह ही जाग गया, अपने कमरे को अच्छी तरह से साफ किया और सुंदर वेदी को उसने फूलों और सुगंधित वस्तुओं से सजा दिया। इसके बाद वह बैठा और अपने इस कृत्य के पीछे की प्रेरणा के बारे में ईमानदारीपूर्वक विचार करने लगा। उसे अहसास हुआ कि उसने अपने कमरे की अच्छी तरह से सफाई और वेदी को सुंदर ढंग से सजाने के लिए इतनी मेहनत इसलिए की थी क्योंकि उसकी यजमान महिला आने वाली थी और वह उसे प्रभावित करना चाहता था। वह उठकर बाहर गया और वहाँ से एक मुट्ठी भर राख उठा कर लाया, और फिर भीतर जा कर उसने सभी चीज़ों पर वह राख बिखरा दी। उसने कहा, “पहले जब मैं एक चोर हुआ करता था तो बहुत कड़ी मेहनत करने पर मेरे मुँह को पर्याप्त भोजन नहीं मिलता था। अब जब मैं एक धर्म साधक बन गया हूँ तो इतने सारे लोग आते हैं और इतना भेंट-चढ़ावा देकर जाते हैं कि भोजन के लिए मुँह पर्याप्त नहीं पड़ता है।”
यदि आप गेशे बेन गुंग्याल के जीवन की घटनाओं के माध्यम से दर्शाई गई बातों के बारे में विचार करें तो इससे आपको पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि वास्तव में साधना किस प्रकार करनी चाहिए। आप एकदम अचानक अपने आप को नकारात्मक व्यक्ति होने और विनाशकारी व्यवहार करने से नहीं रोक सकते हैं। आपको इसका अभ्यास धीरे-धीरे करना चाहिए।
यदि आप अपनी पूरी क्षमता से अभ्यास करें तो आप अधिक सकारात्मक और रचनात्मक व्यक्ति बन जाते हैं। उस स्थिति में मृत्यु के समय आपको कोई समस्या नहीं होगी, कोई शोक या दुख नहीं होगा। सभी को मृत्यु गति को प्राप्त होना है। इस स्थिति में आप अकेले नहीं हैं। यदि आप सारा जीवन स्वयं को एक बेहतर व्यक्ति बनाने का प्रयास करते हुए मरते हैं तो आपको महसूस होगा, “मैंने जिस प्रकार का जीवन व्यतीत किया है उसके बारे में मुझे कोई अफसोस नहीं है। मैंने भरसक कोशिश की और अपने आप को सकारात्मक बनाने के लिए कड़ी से कड़ी मेहनत की है।” तब आप किसी भी प्रकार के शोक या दुख के बिना मृत्य को प्राप्त हो सकेंगे। यदि ऐसा हो तो बहुत अच्छा होगा।
अनुचित यौन व्यवहार से बचना
हम शरीर के स्तर पर पहले दो प्रकार के विनाशकारी कृत्यों के बारे में चर्चा कर चुके हैं। तीसरे प्रकार का भौतिक विनाशकारी कृत्य अनुचित यौन व्यवहार है। किसी विवाहित पुरुष द्वारा किसी अन्य महिला से यौन सम्बंध रखना इसका एक उदाहरण है। इसका नतीजा यह होगा कि जब मनुष्य के रूप में आपका पुनर्जन्म होगा तो आपकी पत्नी आपके प्रति वफादार नहीं होगी और आपकी पीठ के पीछे बहुत से लोगों से उसके सम्बंध होंगे। इसके अलावा, जब आप शौचालयों या दूसरी बेहद गंदगी वाली जगहों पर मक्खियों और कीड़ों को जन्म लेते हुए देखते हैं, तो यह मुख्यतः अनुचित यौन व्यवहार के परिणामस्वरूप होता है।
एक बार महान सिद्ध कात्यायन की भेंट एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो हमेशा अनुचित यौन व्यवहार और अनुचित सम्बंधों में लिप्त रहता था। उसने वचन दिया था कि वह दिन के समय ऐसा कोई कृत्य नहीं करेगा, किन्तु रात के समय वह अपने आपको ऐसा करने से नियंत्रित नहीं कर पाता था। उसने दिन के समय अनुचित यौन व्यवहार न करने का प्रण लिया था। बाद में, सिद्ध संघरक्षित एक ऐसे घर पहुँचे जहाँ का स्वामी दिन के समय तो बहुत खुश रहता था, किन्तु रात के समय वहाँ की स्थिति बहुत मुश्किल और असहनीय हो जाती थी। उसकी समस्याएं बड़ी विकट थीं। जब संघरक्षित ने बुद्ध से इसके बारे में पूछा तो बुद्ध ने उन्हें बताया कि यह सब उस व्यक्ति द्वारा केवल दिन के समय अनुचित व्यवहार न करने का वचन दिए जाने किन्तु रात के समय ऐसे व्यवहार में लिप्त न होने का वचन न दिए जाने के कारण से होता था।
मिथ्या वचन कहने से बचना
जहाँ तक वाणी का सम्बंध है: यदि आप झूठ बोलते हैं और ऐसे वचन बोलते हैं जो असत्य हों तो इससे भी नकारात्मक संभाव्यता निर्मित होती है। उदाहरण के लिए, झूठ वह है जब आप कहते हैं कि वैसा है जबकि वैसा वस्तुतः नहीं है, कि वैसा नहीं है जबकि वास्तविकता में वैसा है या यह कहना कि किसी व्यक्ति के पास कोई चीज़ नहीं है जबकि वास्तव में उसके पास वह वस्तु है या कहना कि किसी व्यक्ति के पास कोई चीज़ है, जबकि वस्तुतः उसके पास वह वस्तु नहीं है। मिथ्या वचन कहने का परिणाम यह होगा कि हम उन लोगों जैसे बन जाते हैं जिनसे सभी लोग हमेशा झूठ बोलते हैं – उनके साथ हमेशा छलकपट किया जाता है या धोखा किया जाता है। झूठ बोलने से बचने के परिणामस्वरूप आपका जन्म किसी ऐसे देश में होता है जहाँ सभी लोग ईमानदार होते हैं और कभी भी कोई व्यक्ति आपको धोखा नहीं देता है। कोई दूसरा व्यक्ति कभी आपसे झूठ नहीं बोलता है।
बुद्ध के समय में क्येवो सूदे नाम का एक व्यक्ति था। क्योंकि वह कभी झूठ नहीं बोलता था इसलिए वह व्यक्ति जब भी हँसता था तो उसके मुँह से एक मोती टपकता था। सभी दूसरे लोग उसे चुटकुले सुना-सुना कर उसे हँसाने का प्रयत्न करते थे, लेकिन वह बहुत कम हँसता था। एक दिन एक पीले चोगे और दंड को धारण करने वाला पाखंडी भिक्षु उस राज्य के राजा के दरबार में पहुँचा। राजा उसे अपना महल दिखाने के लिए अपने साथ लेकर गया। वहाँ सोने की कई वस्तुएं बिखरी पड़ी थीं, कई जगहों पर तो सोने के ढेर लगे हुए थे। उस भिक्षु ने अपने दंड के निचले सिरे पर थोड़ा का चिपचिपा शहद लगा रखा था। जब वह महल में घूम रहा था तो वह अपने दंड को ज़मीन पर पड़ी हुई स्वर्ण मुद्राओं पर टिका देता था और सोने की मुहर उसके दंड से चिपक जाती थी। जब वह महल से बाहर निकला तो उसने देखा कि उसके चोगे पर किसी पक्षी के पंख जैसी कुछ रोंएदार वस्तु चिपकी हुई थी। भिक्षु ने सोचा कि वह रोंएदार वस्तु उसके चोगे की शोभा को खराब कर रही है इसलिए उसने उस वस्तु को पकड़कर चोगे से हटाया और हवा में उड़ा दिया। क्येवो सूदे ने उस पाखंडी भिक्षु को महल से बाहर जाते हुए देखा कि उसने स्वर्ण मुद्राओं को तो अपने दंड से चिपका रहने दिया है लेकिन उस सफेद पंख जैसी चीज़ को अपने वस्त्रों से हटाकर हवा में उड़ा दिया है क्योंकि उसे अपनी बाहरी शोभा की चिन्ता थी, यह देख कर क्येवो सूदे हँस दिया। सूदे केवल ऐसे ही अवसरों पर खिलखिला कर हँस पड़ता था।
उस राज्य की रानी बड़ी दुराचारिणी थी। वह महल में शाही घोड़ों की देखभाल करने वाले एक सेवक के कक्ष में उससे मिलने के लिए जाया करती थी। एक दिन रानी ने कुछ ऐसा कर दिया जो उस सेवक को पसंद नहीं आया और उस सेवक ने रानी के चेहरे पर थप्पड़ जड़ दिया। लेकिन रानी ने इस बात का बिल्कुल भी बुरा नहीं माना। एक अन्य अवसर पर राजा ने अपनी उंगली से अंगूठी को उतारकर विनोद में अपनी रानी की ओर उछाल दिया। अंगूठी धीरे से रानी को आकर लगी और वह रोने लगी। सूदे ने जब यह देखा तो वह ठहाका लगाकर हँसने लगा। यदि आप मिथ्या वचन कहने से बचें, तो इस प्रकार के परिणाम भी हो सकते हैं; हर बार जब आप हँसेंगे तो आपके मुख से एक मोती टपकेगा। इस प्रकार के परिणाम होंगे।
फूट डालने वाली भाषा के प्रयोग से बचना
फूट डालने वाली भाषा का प्रयोग करने के परिणाम ऐसे होते हैं जो आपको कुछ परिवारों में देखने के लिए मिलते हैं। उस परिवार के सदस्य हमेशा आपस में झगड़ते हैं और विवाद करते रहते हैं; माता-पिता और बच्चों के बीच आपस में बिल्कुल भी नहीं बनती है। यह सब फूट डालने वाली भाषा का प्रयोग करने और ऐसे वचन कहने के कारण होता जिससे लोगों के बीच आपस में दूरियाँ बन गई हों। इसी प्रकार, यदि आप किसी ऐसे स्थान पर हों जहाँ की स्थितियाँ बहुत विषम और मुश्किल हों, जहाँ की ज़मीन ऊबड़-खाबड़ और दुर्गम हो, तो यह भी फूट डालने वाली भाषा के प्रयोग के कारण होता है। फूट डालने वाली भाषा के प्रयोग से बचने के परिणामस्वरूप आपका पुनर्जन्म किसी ऐसे स्थान पर होता है जहाँ की ज़मीन बिल्कुल समतल और सुंदर होती है, और सभी लोगों के साथ आपके सम्बंध बहुत मधुर होते हैं।