पारम्परिक कथाएं: गुरुजन, मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म और मृत्यु

आध्यात्मिक गुरुजन के साथ गुणकारी सम्बंध

किसी शिष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है कि वह किसी लामा से शिक्षा प्राप्त करना शुरू करने से पहले सावधानीपूर्वक उसकी जाँच कर ले। किसी लामा के पास केवल इसलिए न जाएं कि वहाँ दी जाने वाली शिक्षा की बड़ी ख्याति है। आपको बड़ी सावधानी से लामा की पड़ताल करनी चाहिए। किसी ग्रंथ में कहा गया है कि किसी आचार्य और शिष्य को परस्पर जाँच-पड़ताल करके यह तय करने में लगभग बारह वर्ष का समय लगता है कि उनके बीच आत्मीय गुरु-शिष्य सम्बंध स्थापित हो सकता है या नहीं। हालाँकि वस्तुस्थिति यही है, लेकिन इतना अरसा एक बहुत लम्बी अवधि होती है, और इतना अधिक समय लगाने के अपने बहुत से नुकसान हैं।

एक शाक्य आचार्य के उदाहरण का उल्लेख मिलता है जिन्हें चीन के सम्राट को शिक्षा देने के लिए आमंत्रित किया गया था। सम्राट ने उन आचार्य से शिक्षा ग्रहण करने का निर्णय करने से पहले नौ वर्षों तक उनकी परीक्षा ली। नौ वर्ष बीत जाने के बाद सम्राट ने आचार्य से आग्रह किया कि वे उसे शिक्षा दें। जब आचार्य ने सम्राट से पूछा, “आपने शिक्षा प्रारम्भ करने के लिए अनुरोध करने में नौ वर्षों का समय क्यों लगाया?” तो सम्राट ने उत्तर दिया, “इस पूरी अवधि में मैं आपकी परीक्षा ले रहा था।” आचार्य ने तब उत्तर दिया, “अब अगले नौ वर्ष मैं आपकी परीक्षा लेने में लगाऊँगा!” नतीजा यह हुआ कि आचार्य उस सम्राट को कभी शिक्षा दे ही नहीं पाए। यदि आप इसमें बहुत अधिक समय लगाएं, तो ऐसा हो सकता है।

जहाँ तक वर्तमान युग में किसी लामा की परख करने का प्रश्न है, पहली बारीकी को इन दो प्रश्नों की सहायता से समझा जा सकता है: पहली बार उस आचार्य से भेंट होने पर आपको कैसा अनुभव हुआ? क्या भेंट होने पर तत्काल आपके चित्त को खुशी का अनुभव हुआ, या फिर किसी भी प्रकार की कोई अनुभूति नहीं हुई? इसके अलावा, जब आपने पहली बार उन आचार्य का नाम सुना तो क्या आपको इससे खुशी मिली या नहीं? दूसरी बारीक बात यह है कि जब आप पहली बार आचार्य से भेंट करने के लिए गए तो क्या वे वास्तव में वहाँ मौजूद थे या नहीं? कभी-कभी ऐसा होता है कि जब लोग किसी आचार्य से पहली बार मिलने के लिए जाते हैं, तो आचार्य अपने घर पर मौजूद नहीं होते हैं। यह कोई शुभ संकेत नहीं है। तीसरी बात यह है कि इस बात को ध्यान से सुना जाए कि दूसरे लोग उस आध्यात्मिक गुरु के बारे में क्या कहते हैं, और अलग-अलग लोगों की राय को सुनना चाहिए। हालाँकि यह बहुत कठिन होता है कि आध्यात्मिक गुरुजन में सभी प्रकार की उचित योग्यताएं विद्यमान हों, लेकिन मुख्य बात यह है कि उनके हृदय में स्नेह और उदारता का भाव होना चाहिए, सभी की परवाह करने की स्नेहपूर्ण उत्कट इच्छा होनी चाहिए, और उन्हें ईमानदार होना चाहिए।

किसी भी आध्यात्मिक गुरु या लामा के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाने से पहले उसकी उचित प्रकार से जाँच कर लेना बहुत महत्वपूर्ण होता है। केवल यह सुन कर ही उत्साहित नहीं हो जाना चाहिए कि कोई लामा आने वाले हैं, और सोच-विचार किए बिना उनसे मिलने के लिए नहीं चल देना चाहिए। ऐसा करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। किन्तु एक बार जब आप किसी आध्यात्मिक गुरु के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो जाएं तो फिर उसके बाद गुरु के प्रति मन में संदेह रखना या फिर उनकी जाँच-पड़ताल करना भी उचित नहीं है।

पुराने समय में महान अनुवादक मारपा जैसे अनुवादकों और दूसरे लोगों ने सोना जमा करने और भारत की यात्रा करके वहाँ के आध्यात्मिक गुरुओं से भेंट करने के लिए अनेक प्रकार के कष्ट उठाए। मारपा के शिष्य मिलारेपा को अपने हाथों से एक नौ-मंज़िला मीनार का निर्माण करना पड़ा था। उन्होंने अपनी पीठ पर पत्थर ढोए जिससे उनके शरीर पर भयंकर घाव हो गए। उन्होंने बहुत कष्ट उठाए। मीनार का निर्माण कर लेने के बाद भी मारपा उन्हें दीक्षा या शिक्षाएं देने के लिए तैयार नहीं थे। मारपा के न्गॉग चोकू दोर्जे नाम के एक और शिष्य भी थे जिन्होंने चक्रसंवर अभिषेक दिए जाने के लिए अनुरोध किया था। वे इतनी दूरी पर रहते थे जितना दूर एक दिन भर में घोड़े की सवारी करके जाया जा सकता है। जिस समय मीनार का निर्माण पूरा हुआ, उस समय मारपा की पत्नी दागमेमा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम दारमा-डोडे रखा गया। अपने पुत्र के जन्म की खुशी में और मिलारेपा की नौ-मंज़िला मीनार का निर्माण पूरा होने के अवसर पर मारपा ने न्गॉग चोकू दोर्जे के पास यह संदेश भेजा कि वे चक्रसंवर की दीक्षा देना चाहते हैं, और इसलिए उन्हें आना होगा।

जब न्गॉग चोकू दोर्जे आए, तो वे मारपा को चढ़ावे के तौर पर देने के लिए अपनी सारी सम्पत्ति को भी लेकर आए। उनकी सम्पत्ति में एक बकरी भी शामिल थी जिसका पैर टूटा हुआ था और इसलिए वह चल नहीं सकती थी। इसलिए वे उस बकरी को घर पर ही छोड़ आए। मारपा ने कहा, “क्या बात है? तुम उस बकरी को भी क्यों नहीं ले कर आए? मैंने इन शिक्षाओं को हासिल करने के लिए तीन बार भारत गया और उस यात्रा में मैंने भीषण कठिनाइयों का सामना किया, और यह दीक्षा तो बहुत ही मूल्यवान है। तुम्हें वापस घर जा कर उस बकरी को लाना ही होगा।” जब मारपा ने चक्रसंवर की दीक्षा दी तो मारपा की पत्नी को मिलारेपा पर दया आ गई और वे मिलारेपा को भी अभिषेक के लिए ले आईं। मारपा ने एक बड़ा सा डंडा उठाया और फटकारते हुए मिलारेपा को खदेड़ दिया, वे मिलारेपा को अभिषेक प्राप्त करने की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं थे। मारपा की पत्नी बार-बार मारपा से अनुरोध करती रहीं कि वे मिलारेपा को वहाँ मौजूद रहने दें और अभिषेक प्राप्त करने की अनुमति प्रदान करें।

आखिरकार मारपा अपनी पत्नी के लिए करुणा भाव के कारण मिलारेपा को अभिषेक देने के लिए तैयार हो गए। मिलारेपा को इतनी कठिनाइयों का सामना इसलिए करना पड़ा क्योंकि मारपा ने ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए भारत में नरोपा से शिक्षा ग्रहण करने के लिए बहुत भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, और नरोपा ने भी अपने शिक्षक तिलोपा से शिक्षा ग्रहण करने में बहुत भारी कठिनाइयाँ उठाई थीं। ज्ञानोदय ऐसे ही आसानी से प्राप्त नहीं होता है। इन सिद्धियों को हासिल करने के लिए मिलारेपा को भी अनेक प्रकार की कठिनाइयों से जूझ़ना था।

मारपा ने कहा, “हालाँकि मिलारेपा मेरी सेवा कर रहा है, फिर भी मैं उसके साथ बहुत नाराज़गी और कड़ाई का व्यवहार करता हूँ। लेकिन मेरी सेवा के परिणामस्वरूप वह इसी जीवनकाल में ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकेगा। वह पहले ही मीनार बनाने जैसे कठिन कार्य करके दिखा चुका है।” लेकिन मारपा ने अपनी पत्नी पर दया दिखाई, क्योंकि वह मिलारेपा के प्रति बहुत करुणा का भाव रखती थी, और इसलिए उन्होंने मिलारेपा को अभिषेक प्राप्त करने की अनुमति दे दी। अभिषेक प्राप्त करने के बाद मिलारेपा को उसी जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए कठोर ध्यान साधना और अभ्यास करने की आवश्यकता थी। लेकिन, मारपा के वफादार सेवक होने के कारण ही मिलारेपा ज्ञानोदय प्राप्त कर सके – लेकिन फिर भी, उन्हें गुफाओं में रहकर साधना करने की कठिनाइयों से होकर गुज़रना पड़ा।

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